Nhạc sĩ: Traditional
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बोल ये शिवशंकर भगवान की
जैसे
प्रिये भक्तों
श्री शिव महा पुरान के विद्ध्विश्वर सहीता की अगली कता है
बंधन और मोक्ष का विवेचन
शिव पूजा का उपदेश
लिंग आदी में शिव पूजन का विधान
भस्म के स्वरूप का निरूपन और महत्व
शिव एवं गुरू शब्द के विव्युत्पत्ती
तथा शिव के भस्म धारन का रहेश
तो आईए भक्तों आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ अठार्वा अध्याय
रिशी बोले
सरवग्यों में श्रेष्ट सूत जी
बंधन और मोक्ष का स्वरूप क्या है
यह हमें बताईए
सूत जी ने कहा
हे महरशियो मैं बंधन और मोक्ष का स्वरूप
तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा
तुम लोग आदर पूर्वक सुनो
जो प्रकरती आदी आठ बंधनों से बंधा हुआ है
वह जीव बध केलाता है
और जो अठों बंधनों से छूटा हुआ है
उसे मुक्त कहते हैं
प्रकरती आदी को वश्मे कर लेना मोक्ष केलाता है
बंधन आगंतुक है और मोक्ष स्वतह सिद्ध है
प्रकरती बुद्धी महतत्व तिरगुनात्मक एहंकार और पांच तनमात्राएं
इने ग्यानी पुरुष प्रकत्या धर्ष्टक मानते हैं
प्रकरती आधी आठ तत्वों के समु से
देह की उतपत्ति हुई है
देह से करम उत्पण्य हुआ है और फिर करम से नूतन देह की उतपत्ती होती है
इस परकार, बारम बार जन्म और करम होते रहते हैं
शरीर को स्थूल,
सूख्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिए।
स्थूल शरीर
जाग्रत अवस्था में व्यापार कराने वाला,
सूख्ष्म शरीर जाग्रत और स्वब्न अवस्थाओं
में इंद्रिय भोग प्रदान कराने वाला,
प्रकारण शरीर,
शुषब्ता वस्था में आत्मानन्द की अनुभूती कराने वाला कहा गया है।
जीव को उसके प्रारब्ध करमानुसार सुख,
दुख प्राप्त होते हैं।
जीव अपने पुन्य करमों के फल सरूप,
सुख और पाप करमों के फल सरूप,
दुख का उपभोग करता है।
जीव अपने त्रिविध शरीव से होने वाले शुभा शुभ करमों द्वारा
सदा चक्र की भाती बारंबार घुमाया जाता है।
इस चक्रवत भ्रवन की निवत्ती के लिए चक्र
करता का इस्तवन एवं आराधन करना चाहिए।
प्रकृति आदी जो आठ पांश बतलाए गए हैं,
उनका सहुदाय ही महा चक्र है। और जो प्रकृति से परे हैं,
वे परमात्मा शिव हैं। भगवान महिश्वर
ही प्रकृति आदी महा चक्र के करता हैं।
तुकि वे प्रकृति से परे हैं।
जैसे बकायन नामक वरक्ष का थाला जल को पीता और उगलता हैं,
उसी परकार शिव,
प्रकृति आदी को अपने वश्मे करके उस पर शासन करते हैं।
उनोंने सब को वश्मे कर लिया हैं,
इसलिए वे शिव कहे गए हैं।
शिव ही सरवज्य,
परिपूर्ण
तथा
निः स्प्रिय हैं।
सरवज्यता,
तृप्ती,
अनाधिबोध,
स्वतंतरता,
नित्य अलुप्त शक्ती से संयुक्त होना और
अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारन करना,
जब वेश्वर के इन छे परकार के मानसिक एश्वरियों को केवल वेद जानता है।
अतः
बगवान शिव के अनुग्रह से ही प्रकृती आधी आठो तत्व वश्मे होते हैं।
बगवान शिव का कृपा परसाद प्राप्त करने के लिए उनहीं का पूजन करना चाहिए।
यदि कहें
शिव तो परिपूर्ण हैं,
नियस्प्रह हैं,
उनकी पूजा कैसे हो सकती है?
तो इसका उत्तर यह है कि भगवान शिव के उधेश से,
उनकी प्रसन्दता के लिए किया हुआ सत्कर्म,
उनके कृपा परसाद को प्राप्त कराने वाला होता है।
शिव लिंग में,
शिव की प्रतीमा में तथा शिव भक्त जनों में शिव की
भावना करके उनकी प्रसन्दता के लिए पूजा करनी चाहिए।
यह पूजन शरीर से,
मन से,
वानी से
और धन से भी किया जा सकता है।
उस पूजा से महेश्वर शिव,
जो प्रकृती से परे हैं,
पूजक हैं,
विशेश कृपा करते हैं और उनका वह कृपा परसाद सत्य होता है।
शिव की कृपा से कर्म आदी सभी बंधन अपने वश में हो जाते हैं।
कर्म से लेकर प्रकृती परियंत सब कुछ जब वश में हो जाता है
तो वह जीव मुक्त कहलाता है।
और स्वात्माराम रूप से व्राजमान होता है।
परमिश्वर शिव की कृपा से जब कर्म जनित शरीर अपने वश में हो जाता है,
वह सामिप्य मुक्ति है। बगवाण का महा प्रसादने की अधिकाथ करते हैं।
भगवान का महा पुरसाद प्राप्त होने पर
बुद्धी भी वश्मे हो जाती हैं.
बुद्धी प्रकृती का कारिय हैं.
उसका वश्मे होना
सारिष्टी मुक्ती कहा गया है.
पुनहें भगवान का महान अनुग्रह प्राप्त होने पर प्रकृती वश्मे हो जायेगी.
उससमे भगवान शिव का मानसिक एश्वरिय बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायेगा.
सरवग्यता और त्रप्ती आदी जो शिव के एश्वरिय हैं,
उन्हें पाकर मुक्त पुरु�
इसी को
सायुज्म मुक्ती कहते हैं.
इसप्रकार लिंग आदी में शिव की पूजा करने से
क्रमश है, मुक्ती स्वतह प्राप्त हो जाती है.
शिव क्रिया,
शिव तप,
शिव मन्तर, जप,
शिव घ्यान और शिव ध्यान के लिए सधा उत्र-ुत्र अभवियास बढ़ाना चाहीए.
जन्वकाल से, रात को सोते समय तक
और जन्वकाल से लेकर मृत्यू परियंतर सारा समय
भगवान शिव के चिंतन में ही बिठाना चाहिए.
पुश्पों से जो शिव की पूजा करता है,
वे शिव को ही प्राप्त हो जाता है।
रिशी बोले,
उत्तम वर्त का पालन करने वाले सूच जी,
लिंग आदी में शिव जी की पूजा का क्या विधान है,
यह हमें बतलाईए।
वे दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देने वाले हैं। पौरुश
लिंग और प्रकर्ती लिंग के रूप में बहुत से लिंग हैं।
उन्हें भगवान शिव ही विस्तार पूर्वक बता सकते हैं।
दूसरा कोई नहीं जानता। पृत्वी के आकार भूत जो जो लिंग ग्यात हैं,
उन उनको मैं तुम्हें बता रहा हूं। उनमें
स्वेम भू लिंग प्रधम है। दूसरा बिंदू लिंग,
तीसरा प्रतिष्ठित लिंग,
चोथा चर लिंग
और पाच्वा गुरू लिं�
प्रतिष्ठित लिंग प्रधम है। पृत्वी के अंतर गत बीज रूप से प्राप्त हुए
भगवान शिव व्रक्षों के अंकुर की भात ही भूमी को भेद कर नाध लिंग के रूप
में व्यक्त हो जाते हैं। विश्वतहय व्यक्त हुए शिव की स्वेम प्रगच होने क
लगता है। सोने,
चान्दी यादी के पत्र पर,
भूमी पर अथ्वा बेद पर अपने हाथ से लिखित जो शुद्ध प्रणव मंतरूप लिंग
है उसमें तथा मंतर लिंग का आलिखन करके उसमें भगवान शिव की प्रतिष्ठा और
आवाहन करें। ऐसा बिंदु नाध म
और उस साधक के अभ्याज से उसको ज्यान भी होता है।
अपने आत्मसिध्धी के लिए अपने हाथ से वैदिक मंतरों के
उच्छारन पूर्वक शुद्ध मंडल में शुद्ध भावना द्वारा जिस
उत्तम शिव लिंग की स्थापना की है उसे पौरुष लिंग कहते हैं
तथा वही प्रतिष्ठत लिंग कहलाता है। उस लिंग
से शिव लिंग का निर्मान कराकर
जो मंतर पूर्वक उसकी स्थापना करते हैं उनके द्वारा
इस्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठत लिंग कहलाता है।
किन्तु वहे प्राकृत लिंग है इसलिए प्राकृत
एश्वर्य भोग को ही देने वाला होता है।
जो शक्तिशाली और नित्य होता है
उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुरबल और
अनित्य होता है वह प्राकृत कहलाता है।
लिंग नावि जिव्या,
नासाग्रभाग
और शिखा के क्रम से कटी,
हिर्दे और मस्तक तीनों इस्थान में जो लिंग की भावना
की गई है उस अध्यात्मिक लिंग को ही चर लिंग कहते हैं।
परवत को पोरुष्ण लिंग बताया गया है और भूतल को विद्वान
पुरुष्ण प्राकृत लिंग मानते हैं। व्रिक्ष आदी को
पोरुष्ण लिंग जानना चाहिए और गुल्म आदी को प्राकृत लिंग।
साथी नामक धान्य को प्राकृत लिंग समझना चाहिए और शाली,
अगन एवं गेहुं को पोरुष्ण लिंग।
अनीमा आदी आठो सिद्धियों को देने वाला जो
एश्वरिय है उसे पोरुष एश्वरिय जानना चाहिए।
सुन्दर इस्त्री तथा धन आदी विश्यों को आस्तिक
पुरुष प्राकृत एश्वरिय कहते हैं।
चार्लिंगों में सबसे प्रथम रस्लिंग का वर्णन किया गया है।
रस्लिंग
ब्राह्मनों को उनकी सारी अभिष्ट वस्तुओं को देने वाला है।
जब की रत מפलियोंट के 再见य की ़िलोण को
सरे वीडियेल बनने चाहिए।
जो म दखात लिए शरुणना होगा।
इसफटिकमै लिंग तथा बान लिंग सब लोगों
को उनकी समस्त कामनाय परदान करते हैं
अपना नहों तो दूसरे का इसफटिक या बान
लिंग भी पूजा के लिए निशिद्ध नहीं है
इस्त्रियों विशेस्त है
सद्धवाओं के लिए पार्थिक् links पूजा का विधान है
प्रवत्ती मार्ग में इस्ठित विदुःाओं के
लिए इसफ़टीक लिंग की पूजा बताई गई है
परण्तु विरक्तwheeddhwhaas के लिए रस्लिंग
की पूजा को ही apology たाले गया है
वरत का पालन करने वाले महरशियो बच्चपन में जवानी में
और बुढ़ापे में भी शुद्ध सपतिकमे शिवलिंग का पूजन
इस्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करने वाला होता है
ग्रहा सक्त इस्त्रियों के लिए पीठ पूजा
भूतल पर सम्पून अभिष्ठ को देने वाली है
प्रवर्ति मार्ग में चलने वाला पुरुष सुपात्र
गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजा कर्म संपन्य करे
इष्ट देव का अभिष्ठ करने के पश्चात
अगहनी के चावल से बने हुए खीर आधी पकवानों द्वारा नयवेध्य अरपण करे
पूजा के अंत में शिवलिंग को सम्पूत में पधरा कर
घर के भीतर
प्रतक रख दे
अलग रख दे
जो निर्वत्ती मारगी पुरुष हैं उनके लिए हाथ पर ही शिवलिंग
पूजा का विधान है उन्हें भिक्षा आदी से प्राप्त हुए
अपने भोजन को ही नयवेध्य रूप में निवेधित करना चाहिए
निवीरित्त पुर्षों के लिए सोक्षमिलिंग
सबसे शेष्ट बताया जाता है
वे विभूतियों के द्वारा आप पूजन करें और विभूतियों को
नयवेध्य रूप से निवेधित भी करें
पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारन करें
वेभूति तीन प्रकार की बतायी गई है
लोकागणि जनित,
वेदागणि जनित,
और शिवागणि जनित
या लोकिक भस्म को द्रव्यों की शुध्धी के लिए लाकर रखें
मिट्टी, लकडी और लोहे के पात्रों की धान्यों की,
तिल आदी द्रव्यों की,
वस्तर आदी की तथा परियुशित वस्तों की भस्म से शुध्धी होती है
कुट्टे आदी से दूशित हुए पात्रों की भी भस्म से ही शुध्धी मानी गई है
वस्तु विशेश की शुध्धी के लिए यथा योग
सजल अथवा निरजल भस्म का उपयोग करना चाहिए
अघोर-मूरती धारी शिव का जो अपना मंत्र है
उसे पढ़कर बेल की लकड़ियों को झलाए उस मंत्र से
रूतों की होता भावा evaluate वह कर बहन गयना चाहिये
अगनी को शिवागनी कहा गया है
उसके द्वारा
जले हुए काश्ट का जो भस्म है
वह शिवागनी जनित है
कपिला गाय के गोबर अथवा गाय मात्र के गोबर को तथा शमी,
पीपल,
पलाश,
बड,
अमलताश और बेर
इनकी लकडियों को शिवागनी से जलाएं
तो यह शुद्ध भस्म शिवागनी जनित माना गया है अथवा कुषकी
अगनी में शिव मंत्र के उच्छारण पूर्वक काश्ट को जलाएं
तिर उस भस्म को
कपड़े से अच्छी तरह चान कर नए घड़े में भर कर रख दें
उसे समय समय पर अपनी कांती या शोभा की व्रध्धी के लिए धारन करें
ऐसा करने वाला पुरुष सम्मानिते उम पूजित होता है
पुरुष समानिते बगवान शिवने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकेट किया था
जैसे राजा अपने राज्य में सार भूत कर को ग्रहन करता है
जैसे मनुष्य सच्चे आदी को जलाकर रांध कर
उसका सार ग्रहन करते हैं
जट्रा नल नाना परकार के भस्म भोज्य आदी पदार्थों को भारी
मात्रा में ग्रहन करके जलाकर सार तर वस्तु ग्रहन करता
और उस सार तर वस्तु से स्वधेह का पोशन करता है
उसी प्राकार प्रपंच करता परमिश्वर शिव ने भी अपने में अधेह रूप से
विद्धमान प्रपंच को जलाकर भस्म रूप से उसके सार तत्व को ग्रहन किया है
प्रपंच को दग्द करके शिवने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है।
राख, भवूत,
पोतने के बहाने जगत के सार को ही ग्रहन किया है।
अपने शरीर में अपने लिए रत्म स्वरूप
भस्म को इस प्रकार इस्थापित किया है।
करके आच्य ही,
�равवर्षी हुष्ट�्य,
भर्शार वरद कारकेस्य जोंते हो,
वे ब्रह्मा, विश्णू और रुद्र का सार्थत्व हैं।
वे इन सब वस्तवों को जगत के अभ्यूदय का हेतु मानते हैं।
इन भगवान शिव ने ही प्रपंच के सार्थ सरवस्त्व को अपने वश्मे किया है।
इकार का आर्थ है
पुरुष और वकार का अर्थ है अम्रित स्वरूपा शक्ती
इन सब का सम्मलित रूप ही शिव कहलाता है
अतहें इस रूप में भगवान शिव को अपना आत्मा मान कर उनकी पूजा करनी चाहिए
अतहें पहले
अपने अंगों में भस्म मले फिर ललाट में उत्तम त्रपुंड धारन करें
पूजा काल में सजल भस्म का उपयोग होता है और
द्रव्यशुधी के लिए निर्जल भस्म का
पुनातीत परमशिव राजस आधी सविकार गुणों का अवरोध करते हैं
दूर हटाते
हैं इसलिए वे सब के गुरूप का आश्रे लेकर इस्थित हैं
गुरू विश्वासी शिश्यों के तीनों गुणों को पहले दूर करके
त़िर उन्हे शिव-तत्त्वा का बोध कराते हैं
कलते है इसलिए गुरू कहलाते हैं
गुरू की पूज़ा परमाथ्मा शिव की ही पूज़ा है
गुरू के उप्योग से बचाहवा सारा पदार्थ
आत्मशुधि करने वाला होता है
उप्योग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है
जैसे चोर चोरी करके लाई हुई वस्तु का उप्योग करता है
गुरू से भी विशेष ग्यानवान पुरुष मिल जाए
तो उसे भी यपन पूर्वक गुरू बना लेना चाही
अज्यान रूपी बन्धन से छूटना ही जीव मात्र के लिए साध्य पुर्शार्थ
है अतेह जो विशेष ग्यानवान है वही जीव को उस बन्धन से छुडा सकता है
जब तक शरीर रहता है तब तक
जो क्रिया के ही आधीन है वह जीव बद केलाता है
इस थूल,
सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों को वश्मे
कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता है।
ऐसा ग्यानी पुर्षों का कथन है,
माया चक्र के निर्माता भगवान शेव ही परमकारण है,
वे अपनी माया के दिये हुए द्वन्ध का स्वेम ही परिमारजन करते हैं,
अतेहः शिव के द्वारा कलपित हुआ द्वन्ध
उनहीं को समर्पित कर देना चाहिए।
जो शिव की पूजा में तदपर हूँ,
वे मोन रहें,
सत्य आधी गुनों से संयुक्त हूँ तथा क्रिया,
जब तप घ्यान और ध्यान में से एक-एक अनुष्ठान करता रहें,
एश्वरिय,
दिव्य शरीर की प्राप्ति,
घ्यान का उदे,
अज्ञान का निवारण,
और भ
ख़रण करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण,
शिव भक्त पुरुष उसके यतोक्त फल को पाता है,
शिव भक्त पुरुष देश,
काल,
शरीर और धन के अनुसार यता योग्य क्रिया आधी का अनुष्ठान करें,
न्यायो पारजित उत्तम धन से निर्वाह करत
अथ्वा कहते हैं
के दरिद्र पुरुष के लिए भिक्ष्या से
प्राप्त हुआ अन्घ्यान देनेवाला होता है,
शिव भक्त को विक्षान प्राप्त हो तो है शिव भक्ती को बढ़ाता है
शिव योगी पुरुष विक्षान को शंबू सत्र कहते हैं
जिस किसी भी उपाय से जहां कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्य का भोजन करते हुए
शिव मंत्र के रहस्यो को भगवान शिव ही जानते हैं दूसरा कोई नहीं जानता
बोले शिव शंकर भगवान की जए
भगतों,
इसप्रकार
श्रीषिव महापुराण का
अठारमा अध्यायहान समाप्त होता है
तो स्नहे से बोलीए,
बोलीए शिवशंकर भगवान की जैए
और आदर के साथ बोलिए
ओम नमह शिवाय
ओम नमह शिवाय
ओम नमह शिवाय