Nhạc sĩ: Traditional
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बोले शिवशंकर भगवान की
जेव
प्रीये भक्तों
शिशिव महा पुरान के विद्धेश सहिता की अगली कता है
सदाचार, सोचाचार
सनान, फस्म धारन, संध्या वंदन
प्रणाव जप,
गयत्री जप
दान,
न्याय तहे
धनोर पारजन तथा अगनी होत्र आधी की विधी एवं महिमा का वर्णन
तो आईये भक्तों आरंब करते हैं इस कथा के साथ तेहर्मा अध्याय
रिश्यों ने कहा
हे सूच जी
अब आप शिगर ही हमें वह सदाचार सुनाईए
जिससे विद्वान पुरुष पुन्य लोकों पर विजे पाता है
स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्म में आचार
तथा नर्क का कश्ट देने वाले अधर्म में आचारों का भी वर्णन कीजिए
सदाचार का पालन करने वाला विद्वान ब्रिष्वन्यां
ही वास्तब 你ोम रूच नाम्ड़ारण करने का अधिकारी है
जो केवल वेदोक्त आचार का पालन करने वाल Creedical Deep
Chanting के साथ उहने awful विआचार पिर्शौनि जांते है
अभ्यासी है
उस ब्राह्मन की विप्रसंग्या होती है सदाचार वेदाचार तथा विध्या
इनमें से एक एक गुन से ही युक्त होने पर उसे दुज्ज कहते हैं
जिसमें स्वल्प मात्रा में ही आचार का पालन देखा जाता है
जिसने वेदा ध्यन भी बहुत कम किया है
तथा जो राजा का सेवक अर्थाथ प्रोहित मंत्री आदी है
उसे ख्षत्रिय ब्राह्मन कहते हैं
जो ब्राह्मन कृशी तथा वानिज्य कर्म करने वाला है
और कुछ-कुछ ब्राह्मन उचित आचार का भी पालन करता है
वे वैश्य ब्राह्मन है तथा जो स्वेम ही खेत जोतना
हल चनाता है उसे शुद्र ब्राह्मन कहा गया है
जो दूसरों के दोश देखने वाला और परद्रोही है उसे चांडाल दुज्ज कहते हैं
अगर वैश्य भी खेत जोतने का काम करता है उसे व्रिशल समझना चाहिए सेवा,
शिल्प और करशन से भिन व्रित्ति का
आश्रे लेने वाले शुद्र दश्यु कहलाते हैं
वर्णों के मनुश्यों को चाहिए कि वे
ब्रह्म मोहुर्त में उठकर पूर्वा भिमुखो
सबसे पहले देवताओं का,
फिर धर्म का,
अर्थ का,
उसकी प्राप्ती के लिए उठाय जाने वाले
कलेशों का तथा आय और व्यय का भी चिंतन करें
रात के पिशले पहर को
उशह काल जानना चाहिए उस अन्तिम पहर को जो आधाया मद्धभाग है उसे संधी कहते
हैं उस संधी काल में उठकर द्रिज को मल मूत्र आदी का त्याग करना चाहिए
घर से दूर जाकर बहार से अपने शरीर को धखे रहकर
दिन में उत्राभिमुक बैठकर मल मूत्र का त्याग करें
यदि उत्राभिमुक
बैठने में कोई रुकावट हो
तो दूसरी दिशा की ओर मुक करके बैठें
जल, अगनी, ब्रहमन आदी तथा देवताओं का सामना
बचाकर बैठें
मल त्याग करके उठने पर
फिर उस मल को न देखें
तदन्तर जलाशे से बाहर निकाले हुए जल से ही गुदा की शुद्धी करें
अत्वा देवताओं,
पित्रों तथा रिशियों के तीर्थों में उत्रे
बिना ही प्राप्त हुए जल से शुद्धी करनी चाहिए
गुदा में साथ,
पांच या तीन बार मिट्टी लगा कर उसे धो कर शुद्ध करें
परेंतों गुदा में लगाने के लिए एक पसर मिट्टी की आवशक्ता होती है
लिंग और गुदा की शुद्धी के पश्चात उठकर अन्यत्र जाएँ
और हाथ पेरों की शुद्धी करके आठ बार कुल्ला करें
जिस किसी व्रिक्ष के पत्ते से अथवा उसके
पतले काश्ट से जल के बाहर दतूवन करना चाहिए
उस समय तरजणी अंगुली का उपयोग न करें
यह दंत शुद्धी का विधान बतया गया है
तद अंतर चल संबंदी देवताओं को नमसकार करके
मंत्र पाथ करते हुए जलाशे में इसनान करें
यदि कंठ तक या कमर तक पानी में खड़े होने
की शक्ती न हो तो घुटने तक जल में खड़े हो
जल चड़क कर मंत्र चारण पूर्वक इसनान कारिय संपन्य करें
विध्वान पुरुष को चाहिए
कि वहाँ तीर्थ जल से देवता आदी का इसनानांग तरपण भी करें
इसके बाद धोत वस्त्र लेकर पांच कच करके उसे धारन करें
क्योंकि संज्ञावन्दन अधी सभी कर्मों में उसकी आवशकता होती है
हे द्विजों वस्त्र को निचोडने से जो जल गिरता है
वह एक श्रेणी के पित्रों की त्रप्ती के लिए होता है
उसके बाद जाबाली उपनिशद में बताए गए अगनी रीत
मंत्र से भस्म लेकर उसके दोरा त्रिपुंड लगाएं
इस विधी का पालन नहीं किया जाए इससे पूर्व ही यदी जल में भस्म गिर जाए
तो गिराने वाला नर्क में जाता है
आपो हिष्ठा
इत्यादी मंत्र से पाप शांती के लिए सिर पर जल चढ़कें
तथा यस्यक्षमाएं इस मंत्र को पढ़कर
पेर पर जल चढ़कें इसे संधी प्रोक्षन कहते हैं
आपो हिष्ठा इत्यादी मंत्र में तीन रिचाएं हैं और
प्रतेक रिचा में गायत्री चंद के तीन तीन चरण हैं
इन में से प्रतम रिचा के तीन चरणों का पाठ करते हुए करम से है पेर,
मस्तक और हिर्दे में जल चढ़कें
इसे विद्ध्वान पुरुष मंत्र इसनान मानते हैं
किसी अपवित्र वस्तु से किंचित स्पर्श हो जाने पर
अपना स्वास्त ठीक नहीं रहने पर
राजा और राष्ट पर भय उपस्तित होने पर
तथा यात्रा काल में जल की उपलब्धी नहीं होने की विवस्था आ जाने पर
मंत्रि स्नान करना चाहिए
प्रातेह काल
सूर्यश्चे मा मन्युष्चे
इत्यादी सूर्य अनुवाक से
अगनी स्मंभन्दी अनुवाक से जल का आच्चिमन करके
पुनहे जल से अपने अंगों का प्रोक्षन करें
मध्याहन काल में भीापहए पुनन्तु
इस मंत्र से आच्चिमन करके पूर्वद प्रोक्षन या मारजन करना चाहिए
पाते
culminated
area
चंग्ली
प्रातह काल और मध्यान के समय अंजली में अर्ग जल लेकर
अंजलीयों की और से सूर्य देव के लिए अर्ग दें
फिर अंगुलियों से शिद्र से
धलते हुए सूर्य को देखें
तत्हा उनके लिए स्वतह प्रदिक्षणा करके शुद्ध आच्मन करें
साय काल में सूर्यास से दो गड़ी पहले की हुई संध्या निश्पल होती है
क्योंकि वे सायं संध्या का समय नहीं है
ठीक समय पर संध्या करनी चाहिए
एसी शास्त्र की आज्या है
यदि संधो पास्णा
किये बिना दिन बीज जाय तो प्रतेक समय
के लिए करमश है प्राश्चित करना चाहिए
यदि एक दिन बीटे तो प्रतेक बीटे होई
संध्या काल के लिए नित्य नियम के अतिरिक्त
सो गायत्री मंतर का अधिक जब करें
यदि नित्य करम के लुप्त होए दस दिन से अधिक बीट जायें तो
उसके प्राश्चित रूप में एक लाख गायत्री का जब करना चाहिए
यदि एक मास तक नित्य करम छूड जाये
तो पुने अपना उपनयन संसकार कराएं
तो तरपन करें तो तरपन करम के लिए ईश,
गोरी,
कार्तिके,
विश्नु,
ब्रह्मा,
चंद्रमा और यमका
तथा ऐसे ही अन्य देवुताओं का भी शुद्ध जल से तरपन करें
ब्रह्मा आरपन करके शुद्ध आच्वन करें
तीर्थ के दक्षिन प्रशस्थ मठ में,
मंत्राले में,
देवाले में,
घर में अथवा अन्य किसी नियत इस्थान में आसन पर इस्थिरता
पूर्वक बैठकर विद्वान पुरुष अपनी बुधी को इस्थिर करें
और संपूर्ण देवताओं को नमस्कार करके पहले प्रणव का
जब करने के पश्चात गायत्री मंत्र की आवर्ती करें
प्रणव के आ,
उ,
और म इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है
इस बात को जानकर पढ़ाओ
ओम का जब करना चाहिए
जब काल में यह भावना करनी चाहिए कि हम
तीनों लोकों की सिश्टी करने वाले ब्रह्मा,
पालन करने वाले विश्णू,
और संघार करने वाले रुद्र की जो स्वयम प्रकाश चिनमे हैं उपासना करते हैं
प्रणव के इस अर्थका बुद्धी के द्वारा चिंतन करता हुआ
जो इसका जप करता है वे निट ही बरम को प्रापत कर लेता है
परृफत्र कई इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिनतन करता हुआ
जो इसका जब करता है वैं नित्त ही ब्रम पराप्त कर लेता है
अथा। अर्था अनु संधान के बिना भी प्रणाव का नित्त जब करना चाहिए
इस से ब्राहमनत्व की पूर्ती होती है
ब्राहमनत्व की पूर्ती के लिए शेष्ट ब्राहमनों को
प्रति दिन प्रातह काल एक सहस्तर गायत्री मंतर का जब करना चाहिए
मध्यान काल में सो बार और साय काल में अठाइस बार जब की विधी है
अन्य वर्ण के लोगों को अर्थात ख्षत्रिय और वैश्य को
तीनों संध्याओं के समय यता साध्य गायत्री जब करना चाहिए
शरीर के भीतर मूलाधार स्वाधिष्ठान मनीपूर
अनाहत आज्या और सहस्तर ये छे चक्र है
इनमें मूलाधार से लेकर सहस्तरार तक छे
हो इस्थानों में क्रमश है विधिश्वर,
ब्रह्मा,
विश्णू,
ईश,
जीवात्मा और परमिश्वर इस्थित है
इन सब में महा बुद्धी करके इनकी एकता
का निश्य करें और एक ब्रह्म मैं हूँ
ऐसी भावना पूर्वक प्रतेक श्वास के साथ सोहम
का जब करें
उनहीं विधिश्वर आदि की ब्रह्म रंध्र आदि
में तथा इस शरीर से बाहर भी भावना करें
त्रकर्ती के विकार भूत महेत्र तत्व से लेकर
पंच भूत परियंत तत्वों से बना हुआ जो शरीर है
जब का तत्व बताया गया है
इसमेवा Second comment
वरति के दिन सोर्यो भस्तान कर के
उपर्यूकत रूप से जब का अणुश्थान करणा चाही
12 लाख गयत्री का जब करने वाला पुरुष पून रूप से ब्रत्मन काहा गया है
जस ब्रत्मन ने 1 लाख गयत्री का भी जब कागईया हो
कारिये में ने लगाएं
सत्तर वर्ष की अवस्था तक
नियम पालन पूर्व कारिये करें उसके बाद ग्रहस्त त्याग कर सन्यास ले लें
परिवाजक या सन्यासी पुरुष
नित्य प्रातह काल बारे हजार पनाव का जब करें
यदि एक दिन इस नियम का उलंगन हो जाये तो दूसरे दिन
उसके बदले में उतना मंत्र और अधिक जबने चाहिए और
सदा इसप्रकार जब को चलाने का प्रत्न करना चाहिए
यदि क्रमस है एक मास आदी का उलंगन हो गया
तो डेड़ लाग जब करके उसका प्राश्चित करना चाहिए इससे अधिक समय तक
नियम का उलंगन हो जाये तो पुने नए सिरे से गुरू से नियम ग्रहन करें
यदि धर्म तथा अर्थ के लिए यतन करना चाहिए
प्राप्त होता है,
उससे एक दिन अवश्यवेराज्यका उदे होता है
धरम के विपरीत,
आधरम से उपारजित हुए धन के द्वारा
जो भोग प्राप्त होता है उससे भाग के परती आसक्ति उत पणन होती है
मनुश्य धर्म से धन पाता है,
तपस्या से उसे दिव्य रूप की प्राप्ती होती है,
कामनाओं का त्याग करने वाले पुरुष के अन्तह करण की शुद्धी होती है,
उस शुद्धी से ज्ञान का उदेह होता है,
इस में संशे नहीं है भक्तों,
सत्युग आदी में तप को ही प्रशस्थ कहा गया है,
किन्तु कल्युग में द्रव्य साध्य धर्म
अर्थादान आदी अच्छा माना गया है,
सत्युग में ध्यान से,
त्रेता में तपस्या से
और द्वापर में यग्य करने से ज्ञान की सिध्धी होती है,
परंतु कल्युग में
प्रतिमा
भगवती ग्रह
की पूजा से ज्ञान लाब होता है,
अधर्म हिनसा अर्था दुख रूप है
और धर्म सुख रूप है,
अधर्म से मनिष्य दुख पाता है
और धर्म से वे सुख एवं अभिवुदाय का भागी होता है,
दुराचार से दुख प्राप्त होता है और सदाचार से सुख
अत्याब्भोग और मोक्ष की सिध्धी के लिए धर्म का उपारजन करना चाहिए,
जिसके घर में कम से कम चार मनुष्य हैं ऐसे कुटुम्बी ब्रह्मनों को
जो सो वर्ष के लिए जीविका अर्थात जीवन निर्वाह की सामग्री देता है,
उसके लिए वे दान ब्रह्मलोक की प्राप्ती कराने वाला होता है,
एक सहस्त चंद्रायन व्रत का उनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना गया है,
जो ख्षत्रिय एक सहस्त कुटुम्ब को जीविका और आवास देता है,
उसका वे कर्म इंद्रलोक की प्राप्ती कराने वाला होता है भगतों,
वेद विद्धा पुरुष अच्छी तरहें जानते हैं,
वेद विद्धा पुरुष अच्छी तपस्या और तीरत सेवन
से अक्षे सुख पाकर मनुष्य उसका अपभोक करता है,
अब
मैं न्यायत धन के उपारजन की विधी बता रहा हूं,
नहमनों को चाहिए कि वे सदा साउधान रहकर
विशुद्ध प्रतीग्रह अर्थात दान ग्रहन
तथा याजन
अर्थात यग्य कराने आदी से धन का अरजन करें,
वे इसके लिए कहीं दीनता न दिखाएं और ने अत्यंत कलेश दाय करम ही करें,
शत्रिय बाहो बल से धन का उपारजन करें और वैश्च कृषी एवं गो रक्षा से,
नयोपारजित धन का दान करने से दाता को ज्यान की सिध्धी प्राप्त होती है,
ज्यान सिध्धी द्वारा सब पुर्शों को
गुरू करपा मोक्ष सिध्धी सुलभ होती है,
मोक्ष से स्वरूप की सिध्धी अर्थात ब्रम रूप से स्थित प्राप्त होती है,
जिस से मुक्त पुरश परमाननद का अनुभव करता है,
ग्रहस्त पुरश को चाहिये कि वे धन,
धानयादी सब वस्तवों का दान करें,
वे तृशा निर्वत्ती के लिए जल तथा ख्षुधा रूपी
रोग की शान्ती के लिए सदा अन्य का दान करें,
खेत, धान्य, कच्चा अन्य तथा भक्ष भोज,
लेहिय और
चोश ये चार परकार के सिद्ध अन्य दान करने चाहिये,
जिसके अन्य को खाकर मनुष्य जब तक कथा,
शवन,
आदी सद कर्म का पालन करता है,
उतने समय तक उसके किये हुए पुन्य फल का आधा भाग दाता को मिल जाता है,
इसमें संचे नहीं है भक्तों,
दान देने वाला पुरुष,
दान में प्राप्त हुई वस्तु का दान तथा तबस्चा
करके अपने प्रती ग्रह जनित पाप की शुद्धी करले,
अन्य तह उसे रोरो नर्क में गिरना पड़ता है,
अपने धन के तीन भाग करे,
एक भाग
और पड़ुयो公ICA, हम हम पुरीवित रय티, हमभव्य भाग
तस्वा अंश दान कर दें।
इससे पाप की शुद्धी होती है,
शेष धन से धर्म व्रध्धी एवं उपभोक करें।
अन्यथा वै रोरव नर्क में पड़ता है।
अत्वा उसके व्रध्धी पाप पून हो जाती है
या खेती ही चोपट हो जाती है।
व्रध्धी के लिए किये गए व्यापार में प्राप्त हुए धन का छटा भाग दान कर
देने योग्य है। बुद्धीमान पुरुष अवश्च उसका दान कर दें। विद्ध्वान को
चाहिये कि वे दूसरों के दोशों का बखान न करें। ब्राहमनों दोश्वे पुरु�
एश्वरी की सिध्धी के लिए दोनों संध्याओं
के समय अगनी ओत्र करम अवश्च करें।
जो दोनों समय अगनी ओत्र करने में असमर्थ हूँ
वे एक ही समय सूर्य और अगनी को विधी
पूर्वक दी हुई आहुती से सन्तुष्ट करें।
चावल,
धान,
घी,
भल,
कंद्र तथा हविश्य इनके द्वारा विधी पूर्वक इस थाली पाग बनाएं
तथा यतोचित रीति से सूर्य और अगनी को अरपित करें।
यदि हविश्य का अभाव हो
तो प्रधान हो मात्र करें। सदा सुरक्षित रहने वाली अगनी को विध्वान पूरुष
आजस्त्र की संग्या देते हैं। अथ्वा संध्या काल में जप मात्र या
सूर्य की बंदना मात्र कर लें। आत्म ज्ञान की इच्छा वाले तथा �
बोलीये शिवशंकर भगवान की जेव।
स्नेग के साथ बोलेंगे
ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय।