Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शंकर भगवान एकी
जेव
प्रिये भक्तों
श्री शिव महा पुरान के विद्धेश्रत सहीता की अगली कता है
देश, काल, पात्र और दान आदी का विचार
तो आईये भक्तों
आरंब करते हैं इस कता के साथ
पंदरमा अध्याय
रिश्यों ने कहा
समस्त प्रदार्थ के ग्याताओं में शेष्ट सूत जी आप
अपक्रमसे देश, काल आदी का वड़न करें
सूत जी बोले
हे
महरशियों देव यग्य आदी कर्मों में अपना
शुद्ध ग्रह समान फल देने वाला होता है
अर्थात अपने घर में किये हुए देव यग्य आदी
शास्त्रोक्त फल को सम मात्रा में देने वाले होते हैं
गोशाला का इस्थान घर की अपिक्षा डस गुना फल देता है
जलाशे का तट उससे भी डस गुना महत्व रखता है
देवाले से भी डस गुना महत्व रखता है तीर्त भूमि का तट
उससे डस गुना स्चेष्ट है नदी का किनारा
उससे डस गुना उतक्रिष्ट है तीर्त नदी का सपोड़ता है
तीर्त नदी का तथ और उस से भी डस गुना महत्व
रखता है सप्त गंगा नामक नदियों का तीर्त
गंगा, गोधावरी, कावेरी,
ताम्रपढ़नी,
सिंधु, सर्यु और नरवदा
इन साथ नदियों को सप्त गंगा कहा गया है भक्तों
समुंद्र के तथ का इस्थान इन से भी डस गुना पवित्र माना गया है
और परवत के शिखर का प्रदेश समुंद्र तथ से भी डस गुना पावन है
सबसे अधिक महत्व का वैस्तान जानना चाहिए
जहां मन लग जाये यहां तक देश का वढण हुआ
अब काल का तार्तम में बताना चाहता हूँ
सत्युग में यग्यदान आधी कर्म पूर्ण फल
देने वाले होते हैं ऐसा जानना चाहिए
चतacıाधा भी नरीकोनुवेरा है
पहुंचesto है
विद्वान ब्राह्मनों,
सूर्य संक्रांती के दिन किया हुआ सत कर्म पूर्वोक्त
शुद्ध दिन की अपेक्षाद डस गुना फल देने वाला होता है,
यह जानना चाहिए.
उससे भी डस गुना महत्व उस कर्म का है,
जो विशुव,
अर्थात जोतिश के अनुसार वह है समय जब
कि सूर्य विशुव रिखा पर पहुँशता है.
और दिन तथा रात दोनों बराबर होती हैं.
वर्ष में दो बार ऐसा समय आता है,
एक तो सौर्चैत्रमास की नौमी तिती या अंग्रेजी 21 मार्च को
और दूसरा सौर अश्विन की नौमी तिती या अंग्रेजी 22 सितंबर को.
तो जो विशुव नामक योग में किया जाता है,
दक्षिनायन आरम्ब होने के दिन अर्थात करक की संक्रांती में किये
हुए पुन्य कर्म का महत्व विशुव से भी दस गुना अधिक माना गया है.
उसे भी दस गुना मकर्स्क्रांती में अधिक से डस
गुना सूर्य गहें का आत्व है रिष्य के बाले .
इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं
जगत रूबि सूर्य का राहु रूपी विष से सइयोग हुता है
इसलिए सूर्य ग्रहन का समय रोग प्रदान करने वाला है
अते उस विष की शान्ती के लिए उस समय इसनान, दान,
जब करें
स्तुอน है.
जिसने चोबीस लाख गायत्री का जब कर लिया
हो वह ब्राह्मन भी पूजा का उठम पात्र है
वह संपून फलों और भोगों को देने में समर्थ है जो
पतन से त्रान करता अर्थात नरक में गिरने से बचाता है
पात्र सब्बेонगास
पात्र पत्रम शास्त्र पुर्युज यते तातु्षच पात कात पात्रमितलंमपीधीयते
पत्र सब्द का प्रियोग होता। वेद मलर का पातक
वो पत्रकरने की कारणक्यार vertex चल्नता है।
गयत्री अपने गयक्ष पतं से त्रान रहने पात्र करती है।
इसलिए वे गायत्री कहलाती है
जैसे इस लोक में जो धन हीन है
वे दूसरे को धन नहीं देता
जो यहां धनवान है
वही दूसरे को धन दे सकता है
इसी तरहें जो स्वैम शुद्ध और पवित आत्मा है
वही दूसरे मनुष्य का त्रान या उध्धार कर सकता है भगतों
जो गायत्री का जब करके शुद्ध हो गया है वही शुद्ध ब्राहमन कहलाता है
इसलिए दान, जब, होम और पूजा
सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है
ऐसा ब्राहमन ही दान तथा रख्षा करने की पात्रता रखता है
इस्त्री हो या पुरुष जो भी भूखा हो,
वही अन्य दान का पात्र है
जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो,
उसे वस्तु बिना मांगे देदी जाए,
जो जाती मात्र से ब्राहमन है और दीनता पूर्ण वित्ती से जीवन बिताता है,
दान यदी वेदवित्ता ब्रहमन को दिया जाय,
तो यद स्वर्ग लोक में देवताओं के वर्ष से
दस वर्षों तक दिव्य भोग देने वाला होता है।
शिल और उच्छ वर्ष्ति से अरथात उच्छ है। कनसे आदानम कनि साधर जनम सिलम।
इस प्रकार शिल और उच्छ वर्ष्ति से लाया
हुआ और गुरुदक्षणा में प्राप्त हुआ अन्धन,
शुद्ध द्रव कहलाता है।
शुद्ध द्रव कहलाता है।
गौ,
भूमी,
तिल,
स्वर्ण,
घी,
वस्त्र,
धान्य,
गुर,
चान्दी,
नमक,
कोड़ः और कन्या यही वे बारे वस्तुएं हैं।
इनमें गोधान से काईक,
वाचिक और मानसिक पापों का निवारन तथा काईक
आड़ी पुण्य कर्मों की पुष्टी होती है।
हे ब्राह्मणों,
भूमी का दान इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा,
आश्चे की प्राप्ती कराने वाला है।
धानने का दान, अन धन कि समझ्धी में कारण होता है।
नम्बन गर
वात गर
विद्वान आजीवन भोग देने वाला कहा गया है
हे ब्राह्मणों,
वैलोक और परलोक में भी संपूर्ण भोगों की प्राप्ती कराने वाला है
विद्वान पुरुष को चाहिए कि जिन वस्तों से
श्रवन आदी इंद्रियों की त्रप्ती होती हुँ
तथा सदा दान करें शोता आदी दस इंद्रियों के जो शब्द आदी दस विशे हैं
उनका दान किया जाए तो वो भोगों की प्राप्ती कराते हैं
तथा दिशा आदी इंद्रिय देवताओं को संतुष्ट करते हैं
वेद और शास्त्र को गुरू मुक्त से ग्रहन करके गुरू के
उपदेश से अथवा स्वेम ही बोध प्राप्त करने के पश्यात
जो बुद्धी का ये निश्य होता है कि कर्मों का फल अवश्य
मिलता है इसी को उच्छ कोटी की आस्तिक्ता कहते हैं
भाई,
बंधु अतवा राजा के भैसे जो आस्तिक्ता बुद्धी अश्ट्धा
होती है वे कनिष्ट शेनी की आस्तिक्ता है जो सर्वता
दरिद्र है इसलिए जिसके पास सभी वस्तुमों का भाव है
वे वानी अतवा कर्म शरीव द्वारा यजन करें
मंत्र,
इस्तोत्र
और जप आदी को वानी द्वारा किया गया यजन समझना चाही
तथा तीर्थ यात्रा और वरत आदी को विद्वान पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं
यह इस किसी भी उपाय से थोड़ा हो या बहुत
देवतारपंड बुद्धी से जो कुछ भी दिया अतवा किया जाये
वे दान या सतकर्म भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ होता है वक्तों
तपस्या और दान ये दो कर्म मनिश्चों को सदा ही करने चाहिए
तता ऐसे ग्रह का दान करना चाहिए जो अपने वर्ण
चमकदमक या सफाई और गुण सुक्सुविधा से सुशोबित हो
था है वक्तों बोले शिवशंकर भगवाण की जैए प्रिये भगतों इस प्रकार
यहां पर शिव महा पुराण के विध्धेश्वरी सहीता की ये कथा और पंधरमा
अध्याय समाप्त होता है तो बोले शिवशंकर भगवाण की जैए आननद के साथ
ओम नमः शिवाय ओम �