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Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-38

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-38 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-38 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-38 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-38

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोल ये शिवशंकर भगवाने की
जए!
प्रिये भगतों
श्री शिव महा पुरान के वाइविय सहिता
उत्तरखण की अगली कता है
योग मार्ग के विगन
सिध्धी सूचक उपसरग
तथा पृत्वी से लेकर
बुद्धी तत्व परियंत
एश्वरिय गुनों का वर्णन शिव शिवा के ध्यान की महिमा
तो आईये भगतों आरंब करते हैं इस कथा के साथ अरतीस्मा अध्याय
उपमन्यू कहते हैं
हेशे केश्न आलस्य तीख्षन व्याधियां प्रमात्
योगदर्शन
का अंतराय बताया गया है और 31 सूत्र में पाच विक्षेप सहभू
संग्यक विगन अथवा पृतिबंधक कहे गये हैं
किन्टु यहां शिवपुराण में दस परकार की अंतराय बताये गये हैं
इनमें योगदर्शन कथित अलब्ध भूमी कत्व को छोड़ दिया गया है
और
विक्षेप सहभू में परिगनित दुख और
दोर मनस्य को सम्मलित कर लिया गया है
योग सुत्र में इस्तयान और संशे
यह तो प्रतक प्रतक अंतराय हैं
और यहां इस्थान संशे
नाम से एक ही अंतराय माना गया है
साथ ही इस पुराण में एश्रधा को भी एक अंतराय के रूप में गिना गया है
योगियों के शरीर और चित्त में जो अलसता का
भाव आता है उसी को यहां आलश से कहा गया है
वात, पिट और कफ,
इन धात्मोंके विशंथा से जो दोष उत्पण्य होते हैं उनिकोँ
व्याधी कहते हैं करम दोश से इन व्याधियों के उत्पत्ती होती है
असाउधानी के
वर हारीके कारण योग के साधनो का nagyonा पुरमाद है।
यह है, यह नहीं है।
इसप्रकार उभ्यकोटी से आक्रांत हो।
हुए ज्ञान का नाम इस धान संशए है।
मन का कहीं स्तिरना होना ही,
अनवस्थित चित्तता,
चित्त की अस्थिर्ता है।
योग मार्ग में भावरहित,
अनुराग शून्ने, जो मन की व्रत्ती है,
उसी को आश्रद्धा कहा गया है।
विपरीत भावना से युक्त बुद्धी को ब्रांती कहते हैं।
दुख कहते हैं।
कश्ट को
उसके तीन भेद हैं अध्यात्मिक,
आधी भोतिक और आधी दैविक।
मनिश्यों के चित्त का जो अज्ञान जनित दुख है,
उसे अध्यात्मिक दुख समझना चाहिए।
पूर्वकृत कर्मों के परिणाम से शरीर में जो रोग आधी उत्पन्य होते हैं,
उन्हें आधी भोतिक दुख कहा गया है।
विद्ध्यूतपात,
अस्तर,
शस्त्र और विश आधी से जो कश्ट प्राप्त होता है,
उसे आधी दैविक दुख कहते हैं।
इच्छा पर आग़ात पहुचाने से मन में जो क्शोब होता है,
उसी का नाम है दोरमनस्य.
विचित्र विश्यों में जो सुख का भ्रम है,
वही विशे लोलुपता है।
भूतकाल में रहा हो,
बहुत दूर हो
अथ्वा भविश में होने वाला हो,
उसका ठीक-ठीक प्रतिभास ज्यान हो जाना
प्रतिभा कहलाता है।
सुनने का प्रयत्म न करने पर भी सम्पून
शब्दों का सुनाई देना शवन कहा गया है।
समस्त देहधारियों की बातों को समझ लेना वार्ता है।
दिव्य पतार्थों का बिना किसी प्यत्न के दिखाई देना
धर्शन कहा गया है। दिव्य रसों का स्वाद प्राप्त होना आस्वाद कहलाता है।
सिद्ध योगी के पास स्वेम ही रत्न उपस्थित हो जाते हैं
और बहुत सी वस्तवें परदान करते हैं।
मुक्स से चानसा नाना प्रकार की मधुर वानी निकलती है। सब
प्रकार के रसायन और दिव्य ओष्ठियां सिद्ध हो जाती हैं। देवांगिनाएं
इस योगी को प्रणाम करके मनोवांचित वस्तवें देती हैं।
योग सिद्धी के एक देश का विसाक्षातकार हो जाये तो
मोक्ष में मन लग जाता है। यह मैंने जैसे देखा ये
अनुभव किया है। उसी प्रकार मोक्ष भी हो सकता है।
करश्ता, स्थूलता, बाल्यावस्ता,
व्रध्धावस्ता, युवावस्ता,
नाना जाती का स्वरूप,
प्रत्वी, जल, अगनी और वायू,
इन चार तत्वों के शरीर को धारन करना,
नित्य अपार्थिव एवं मनोहर गंध को ग्रहन करना,
ये पार्थिव एश्वरिय के �
जिस
विरस्वस्तु को भी खाने की च्छए उसका तत्काल सरस हो जाना,
जल,
तेज और वायू,
इन तीन तत्वों के शरीर को धारन करना,
तत्वा देह का फोड़े भुनसी और गहावादी से रहित होना,
पार्थिव एश्वरिय के आठ गुणों को मिलाकर ये सोहल जली एश्वरिय के
अद्भुत गुण है,
शरीर से अगनी को प्रकट करना,
अगनी के ताप से जलने का भैज़ दूर हो जाना,
यदी इच्छा हो
सिश्टी को जला कर फिर उसे जुंका त्यों कर देनी की ख्षमता होना,
मुख में ही अन्य आदी को पचा लेना,
तत्वा तेज और वायु दो ही तत्तों से शरीर को रच लेना,
ये आठ गुण जली एश्वरिय के उपर युक्त सोले गुणों के साथ चोबीस होते हैं,
ये
प्रवेश कर जाना,
बिना प्रयत्न के ही परवत आदी के महान भार को उठा लेना,
भारी हो जाना,
हलका होना,
हाथ में वायु को पकड़ लेना,
अंगुली के अग्र भाग की चोट से भूमी को भी कमपित कर देना,
एक मात्र वायु तत्तों से ही शरीर का निर्बान कर लेन
यह आठ गुन अगनी के 32 गुनों से मिलकर 40 होते हैं,
यह 40 ही वायु सम्मंदी एश्वरिय के गुन हैं,
यही सम्पून इंद्रियों का एश्वरिय है,
इसी को एंद्र एवं आंबर,
आकाश सम्मंदी एश्वरिय भी कहते हैं,
इच्छानुसार सभी वस्तों की उपलबधी,
जहां चाहें वहां निकल जाना, सबको अभ्यभूत कर लेना,
संपून गोहिय अर्थ का दर्शन होना,
कर्म की अनुरूप निर्बान करणा,
सबको वश्मे कर लेना,
सदाप्रिय वस्तुवों का ही दर्शन होना और एक
ही स्थान से सम्पोन संसार का दिखाई देना।
ये आठ गुण पूर्वोक्त इंद्रिय सम्मन्धी
एश्वरिय गुणों से मिलकर अटालीस होते हैं।
पान्द्रमस एश्वरिय इन अटालीस कुनों से युक्त कहा गया है।
ये पहले के एश्वरियों से अधिक गुणवाला है।
इसे मानस एश्वरिय भी कहते हैं।
पेदना, पीटना,
बादना, खोलना,
संसार के वश्मे रहने वाले समस्त प्राणियों को ग्रहन करना,
सब को प्रसन्न रखना,
पाना,
मृत्यों को जीतना, तथा काल पर विजएपाना,
ये सब एहंकार सम्मन्धी एश्वरिय के अंतरगत हैं।
तवाल्ण कारिक
एश्वरिय को ही प्राजापत्य भी कहते हैं।
चांद्रमस एश्वरिय के गुणों के साथ इसके आठ गुन मिलकर छप्पन होते हैं।
महान आभीमाणिक एश्वरिय के ये ही छप्पन गुन है,
पालन करना,
संगहार करना,
सब के ऊपर अपना दिकार स्थापित करना,
प्राणियों के चित को प्रेरित करना,
सबसे अनुपम होना,
इस जगत से प्रथक नए संसार की रचना कर लेना,
तथा शुब को अशुब और अशुब को शुब कर देना,
यह बौध्य एश्वर्य है.
यह सारी विज्ञान सिध्धियां औप सर्गीख हैं,
इने परम वैराज्य द्वारा प्रेतन पूर्वक रोकना चाहिए.
इन अशुद्ध प्रातिभासिक गुणों में जिसका चित आसक्त है,
उसे संपूर्ण कामणाओं को पूर्ण करने
वाला निर्भय परम एश्वर्य नहीं सिध्ध होता.
इसलिए देवता असुरो राजाओं के गुणों तथा
भोगों को जो त्रण के समान त्याग देता है,
उसे ही उत्कृष्ट योग सिध्धी प्राप्त होती है.
अथ्वा यदि जगत पर अनुग्रह करने की चाहो,
तो वह योग सिध्धी मुनी चानुसार विच्रे.
इस जीवन में गुणों और भोगों का उपभोग
करके अंत में उसे मोक्ष की प्राप्ती होगी.
अब मैं योग के प्रियोग का वढन करूँगा.
एक आगरचित होकर सुने,
शुबकाल हो,
शुबदेश हो,
भगवान शिव का ख्षेतरादी हो, एकांत इस्थान हो,
जीव जंतु न रहते हो,
गुलाहल न होता हो और किसी बाधा की संभावन न ना हो.
ऐसे इस्थान में लिपी पुती सुन्दर भूमी को गंद
और धूप आदी से सुआसित करके वहाँ फूल भिखेर दें,
चंदोवा आदी तान कर उसे विचित्र रीती से सजा दें.
तत्हा वहाँ कुष्प, पुष्प, समीधा,
जल, फल और मूल की सुविधा हो.
फिर वहाँ योग का अभ्यास करें.
अगनी के निकट,
जल के समीप और सूखे पत्तों के ढीर पर योग अभ्यास नहीं करना चाहिए.
जहां डास और मच्छर भरे हो,
साप और हिनसक जंतों की अधिकता हो,
दुष्ट पश्व निवास करते हो,
भै की संभावना हो,
तत्हा जो दुष्टों से घिराओआ हो,
ऐसे इस्थान में भी योग अभ्यास नहीं करना चाहिए.
योग अभ्यास नहीं करते और परिमित हो,
जो कर्मों में यथा योग समुचित चेश्ठा करता हो,
तत्हा जो उचित समय से सोता और जागता हो,
एवं सर्वता आयास रहित हो,
उसी को योग अभ्यास में तत्पर होना चाहिए.
आचार्य परियंत गुरुजनों की परंप्रा को क्रमशेह प्रणाम करके अपनी गर्तन,
मस्तक और छाती को सीधा रखे.
प्राण को बाय हात की हतेली पर रखकर धीरे से पीठ को उंचा करें,
और छाती को आगे की ओर से सुईस्थिर रखते
हुए नासिका की अगर भाग पर दिश्टी जमाएं.
प्राण का संचार रोख कर पाशान के समान निश्चल हो जाएं.
अपने शरीर के भीतर,
मानस, पंदिर में, हिर्दे कमल के आसन पर
पार्वती सहीद भगवान शिव का चिंतन करके
ध्यान यग्य के द्वारा उनका पूजन करें.
मूलाधार चक्र में,
नासिका के अगर भाग में, नाभी में,
कंठ में,
तालू के दोनों छिद्रों में,
भौँहों के मद्धे भाग में,
द्वार देश में,
ललाट में या मस्तप में शिव का चिंतन करें.
शिवा और शिव के लिए यतोचित रीति से उठ्तम आसन की कलपना
करके वहां सावरन या निरावरन शिव का इसमार्ण करें.
द्वीदल,
चतुरदल,
शरदल,
दशदल,
द्वादशदल
अथवा
शोडशदल
कमल के आसन पर विराजबान शिव का विदीवधिस्मार्ण करना चाहिए.
दोनों भोहों के मद्दे भाग में द्वीदल कमल है,
जो विद्धुत के समान प्रकाश्वान है.
भुहु मद्धे में इस्तिर जो कमल है,
उसके क्रमश है दक्षिन और उत्तर भाग में दो पत्ते हैं.
और क्षे अंकित हैं.
शोडस तल कमल के पत्ते सोले स्वर्रूप हैं,
जिनमें आ से लेकर अह
तक के अक्षर क्रमश हैं.
यह जो कमल है,
उसकी नाल के मूल भाग से
बारे दल इस्वटित हुए हैं,
जिनमें का से लेकर
ठ तक के बारे अक्षर क्रमश हैं.
दूर्य के समान प्रकाश्मान इस कमल के
उन द्वाधश दलों का अपने हिरदय के भीता ध्यान करना चाहीं.
तत पशात गोध दुग्द के समान उज्जवल कमल के दस दलों का चिंतन करें.
उनमें करमश है,
ड से लेकर फ तक के अक्षर अंकित हैं.
उसके बाद नीचे की ओर दलवाले कमल के छाडल हैं,
जिनमें ब से लेकर ल तक के अक्षर अंकित हैं.
इस कमल की कांती धूम रहीत अंगार के समान है.
मूलाधार में इस्तित जो कमल है,
उसकी कांती स्वण के समान है.
उसमें करमश है व से लेकर स तक के चार अक्षर,
चार दलों के रूप में इस्तित हैं.
इन कमलों में से जिसमें ही अपना मन रमे है,
उसी में महादेव और महादेवी का अपनी धीर बुद्धी से चिंतन करें.
उनका स्वरूप अंगुथे के बराबर निर्मल और सब और से दीपतिमान है,
अत्वा वे शुद्ध दीपशिखा के समान आकार वाला
है और अपनी शक्ती से पून तहे मंडित है.
अत्वा चंद्रलेखा या तारा के समान रूप वाला है अत्वा वे
निवार के सींख या कमल नाल से निकलने वाले सूध के समान है.
कदम्ब के गोलक या ओस के कण से भी उसकी उपमा दीजा सकती है.
वे रूप,
पृत्वी आधी तत्तों पर विजए प्राप्त करने वाला है.
ध्यान करने वाला पुरुष जिस तत्तों पर विजए पाने की इच्छा रखता हो,
उसी तत्व के अधिपती की इस थूल मूर्ति का चिंतन करें.
ब्रह्मा से लेकर सदाशिव परियंत तथा भव आधी आठ मूर्तियां ही
शिव शास्त्र में शिव की इस थूल मूर्तियां निष्चित की गई हैं.
मुनिश्वरों ने उन्हें घोर,
शान्त और मिश्व तीन प्रकार की बताया है.
फल की आशा न रखने वाले ध्यान कुशल पुर्शों को
इनका चिंतन करना चाहीं.
यदि घोर मूर्तियों का चिंतन किया जाए,
तो वे शिगर ही पाप और रोग का नाश करती हैं.
नथू अधिक शीक्रता होती है और नधीक विलंब ही.
सौम्य मूर्ति में ध्यान करने से विशेस्ता,
मुक्ति,
शान्ति
एवं शुध बुद्धी प्राप्त होती है.
क्रमशह सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं इसमें संचे नहीं है
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये
प्रिये भगतों शिशिव महापुरान की
वाइविय सहित उत्तरखण की ये कथा और अडीसमा अध्यायाँ पर समाप्त होता है
स्नेखे साथ आदर और संवान के साथ बोलिये
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये और भाविभोर होकर बोलिये
ओम नमः शिवाय ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय

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