Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जय
प्रिय भक्तों शिश्यु महापुरान के वाइब ये सहिताव तर्खन की अगली कथा है
शडद्वशोधन की विधी
तो आईए भक्तों आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ
सत्रवाद्याए
उपमन्यू कहते हैं
हे यदुनन्दन इसके बाद गुरु शिश्य की योगता को देखकर
उसके संपून बन्धन को निवृत्ति के लिए शडद्वशोधन करें
कला, तत्व, भुवन, वर्ण, पद और मंत्र
यही संक्षेप से छै अध्वा कहे गए हैं
निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विध्या, शांति और शांत्यतीता यह पांच कलाएं हैं
उन्हें विद्वान पुरुष कलाध्वा कहते हैं
अन्य पांच अध्वा इन पांचों कलाओं से व्याप्त हैं
शिव तत्व से लेकर भूमी परियंत जो 26 तत्व हैं
उनको तत्वाध्वा कहते हैं
यह अध्वा शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है
आधार से लेकर उन्मनातक भून अध्वा कहा गया है
यह भेद और भेदों को छोड़कर साथ है
रुद्रस्वरूप जो पचास वर्ण है उन्हें वर्ण अध्वा की संग्या दी गयी है
पदों को पदाध्वा कहा गया है
जिसके अनीक भेद हैं
सब प्रकार के उपमंत्रों से मंत्राध्वा होता है
जो परम विध्या से व्याप्त है
जैसे तत्वनायक शिव की तत्वों में गणना नहीं होती
उसी प्रकार उस मंत्र नायक महिश्वर की मंत्र आध्वा में गणना नहीं होती
कल आध्वा व्यापक है और अन्य अध्वा व्यापक है
जो इस बात को ठीक ठीक नहीं जानता, वह अद्व शोधन का अधिकारी नहीं है
जिसने छे प्रकार के अद्वा का रूप नहीं जाना, वह उनके व्यापक भाव को समझ ही नहीं सकता
इसलिए अद्ध्वाओं के स्वरूप तथा उनके व्यापक व्यापक भाव को ठीक ठीक चान कर ही अद्ध्व शोधन करना चाहिए
पूर्ववत कुंड और मंडल निर्मान का कारिये वहां करके पूर्व दिशा में दो हात लंबा चोड़ा करश मंडल बनावे
होए तत्वश्यात शिवाचारिय शिष्य सहित इस नारोण नित्य करम करके मंडल में फृष्ट हो पहले ही की भावित शिव जी की
पूजा करें फिर वहां लगभग चार सेर चावल से तैयार की गई खीर में से आधा प्रभु को नेविध्य लगा दें और शेष
खीर को होम के लिए रखें पूर्व दिशा की ओर बने हुए अनेक रंगों से अलंकित मंडल में गुरु पांच कल्शों की
स्थापना करें चार को तो चारों दिशाओं में रखे और एक को मद्द भाग में उन कल्शों पर मूल मंत्र के नमः शिवाय इन
पांच वक्षों को बिन्रु और नाद से युग्त करके उनके द्वारा कल्प विधि का ज्ञाता गुरु ईशानादि ब्रह्मों की
स्थापना करें मध्यवर्ति कलश्वर ओम नम ईशानाए नमः ईशानम स्थाप यामी ओम नम ईशानाए नमः ईशानम
स्थाप यामी कहकर ईशान की स्थापना करें ओरवर्ति कलश्वर ओम तत्त watch on eating नमः अथाbooks उमीशा पर
अमीज कहकर उसके दो कि दक्षिन कलश्वर ओम पोशित घराए नमः ऐभर मताब है यामी कह कर
गोर की वाम या उत्तर भाग में रखे हुए कलश पर
कहकर वाम देव की तथा पश्चिम के कलश पर
कहकर सधो जात की स्थापना
करें तरंतर रक्षा विधान करके मुद्रा बांध कर कलशों को
अभिमंत्रित करें इसके बाद पूर्वत शिवागनी में होम आरंभ
करें पहले होम के लिए जो आदी खीर रखी गई थी उसका हवन
करके शीश भाग शीश को खाने के लिए दें पहले की भाती
मंत्रों का तरपनांत कर्म करके पूर्ण आहुती होम करने के
पश्याद प्रदीपन कर्म करें प्रदीपन कर्म में ओम हुम नामह शीवाए
कहव चारन करके क्रम शह हिर्दय आदि अंगों को तीन तीन आहुतियां
देनी चाहिए, अंगों में हिर्दे, सिर, शिखा, कवच, नित्र, त्रै और अस्त्र इन छे की गढणा है, इन मेंसे एक एक अंगों को तीन तीन बार मंत्र पढ़कर तीन तीन आवतियां देनी चाहिए, इन सब के स्वरूप का तेजस्वी रूप में चिंतन करना चाहिए,
सूत्र को एक बार त्रिकुण करके पुने त्रिकुण करें, फिर उस सूत्र को अभिमंत्रित करके उसका एक छोर शिष्य की शिखा के अग्रभाग में पान दे,
शिष्य सिर्द उंचा करके खड़ा हो जाए
उस अवस्था में वै सूत उसके पैर के अंगूठे तक लटकता रहे
सूत को इस तरहें लटका कर उसमें शुशुमना नाडी की संयोजना करे
फिर मंतर्ग्य गुरु शांत मुद्रा के साथ मूल मंतर्ग से
तीन आहुती का हुम करके उस नाडी को लेकर उस सूत्र में स्थापित करे
फिर पूर्वत फूल फैंक कर शिष्य के हिरदे में ताड़न करे
और उससे चेतन्य को लेकर बारे आहुतीयों के पश्यात शिव को निवेधित कर
उस लटकते हुए सूत्र को एक सूत्र से जोड़े और हुंफट मंत्र से रक्षा करके उस सूत्र को शिष्य के शरीर में लपेटकर
फिर ये भावना करिए, इस शिष्य का शरीर, मूल, त्रह, मैं, पाश है, योग और योगत्व ही उसका लक्षन है
यह विषय इंद्रियों और देह आति का जनक है। तदंतर शांत्यतीता आदि पहाँच कलाओं को जो आकाश आदि तत्त रूपणी हैं, उस सूत्र में उनके नाम देले कर जोड़ना चाहिए।
इस प्रकार यथा।
इस प्रकार यथा।
इस तरहें इन कलाओं का योजन करके उनके नाम की अंत में
नमहाँ,
नमहाँ जोड़कर उनकी पूजा करें।
यथा।
शांत्यतीता कलाए नमहाँ।
शांति कलाए नमहाँ।
इत्यादी।
अथवा आकाश आदि के बीज भूत।
हम्, यम्, रम्, वम्, लम्।
मंत्रों द्वाराया पंचाक्षर के पाँच अक्षरों में नाद विन्दू का योग करके।
बीज रूप हुए उन मंत्राक्षरों द्वारा क्रमः शह्य पूर्वक्त कार्य करके तत्व आदि में मलादि पाशों की व्याप्ति का चिंतन करें।
इसी तरह मलादी पाशों में भी कलाओं की व्याप्ति देखें
फिर आहुती करके उन कलाओं को संदीपित करें
तदंतर शिव के मस्तक पर पुष्प से धालन करके
उसके शरीर में लिप्टे हुए सुत्र को मूल मंत्र के उच्चारन पूर्वक
सांत्यतीत पद में अंकित करें
इस परकार कमशे है
सांत्यतीत से आरंभ करके
निर्वत्ति कला परियंत पूर्वक कार्य करके
तीन आहुतियां देकर मंडल में पुनै शिव का पूज़न करें
इसके बाद देवता के दक्षिन भाग में
शिष्य को कुछ युक्त आसन पर मंडल में उत्तरा भी मुक विठा कर गुरू होमा वसिष्ट चरू से दे
गुरू के दिये हुए उस चरू को शिष्य आदरपूर्व ग्रहन करके शिव का नाम ले उसे खा जाए
फिर दो बार आंचमन करके शिव मंत्र का उचारण करें उसके बाद गुरू दूसरे मंडल में शिष्य को पंच-गव्य दे
शिष्य भी अपनी शक्ती के अनुसार उसे पी दो बार आंचमन करके शिव का इस्मान करें
उसके बाद गुरु शिष्य को मंडल में पूर्वत बिठा कर
उसे शास्त्रोक्त लक्षन से युक्त दंत धावन दे
शिष्य पूर्व यवतर गियो मुँ करके बैठे और मौन हो
उस दतोन के कोमल अगरभाग द्वारा अपने दातों की शुद्धी करे
फिर उस दतोन को धो कर थेंग दे और कुला करके मुँ हाथ धो कर
शिव का इस्पार्ण करे
फिर गुरु की आग्या पाकर शिष्य हाथ जोड़े हुए शिव मंडल में प्रवेश करे
उस भैंके हुए द्रतुन को यदि गुरु ने पूर उत्तर या पश्चिम दिशा में अपने सामने देख लिया
तब वो मंगल है अन्य था अन्य दिशाओं में देखने परा मंगल होता है
यदि निंदित दिशा की ओर वैद दीख जाए तो उसके दोश की शांती के लिए गुरु मूल मंत्र से 108 या 54 अहुतियों का होम करें
तद पश्चात शिष्य का स्पर्श करके उसके कान में शिव नाम का चब करके महादेव जी के दक्षिन भाग में शिष्य को बैठाए
वहाँ नूतन वस्तर पर बिछे हुए कुष्के अभिमंतित आसन पर पवित्र हुआ शिष्य
न मन ही मन शिव का ध्यान करते हुए खुली की ओर सिरहाना कर के � έरात में सोए शिखा में सूध
गधे हुए उस कि शिष्य की शिखा को शिखा श्य ही बांध कर गुरु नूतन वस्तर द्वारा घुंकार इच्छार करके
इक्पालों के लिए बली दे, शिष्य भी उपवास पूर्वक वहाँ रात में सोया रहे
और सवेरा होने पर उठकर अपने देखे हुए सपन की बातें गुरू को बताएं।
बोलिये शिवशंकर भगवान ने की जय।
प्रिय भक्तों, इस प्रकार यहाँ पर शिष्य महाफुरान की वायविय सहिता उत्तरखंड की ये कथा और सत्रवा ध्याय यहाँ पर समाप्त होता है।
ताईये भक्तों, स्नेह से बोलते हैं।
बोलिये शिवशंकर भगवान ने की जय।
ओम नमः शिवाय।