Nhạc sĩ: Traditional
Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650
भोलिये शिवशंकर भगवाने की जै
प्रिये भक्तो शिश्यु महापुरान की वायविय सहीता उत्तरखंड की अगली कथा है
योग्य शिष्य की आचारिय पद पर अभिशेक का वर्णन
तथा संसार के विविद प्रकारों का निर्देश
तो आइए भक्तो आरंभ करते हैं इस कथा के साथ
बीसमा अध्याय
उपमन्यु कहते है
हे यद्वनन्दन जिसका इस प्रकार संसकार किया गया हो
और जिसने पाशुपत वर्थ का नुष्ठान पूरा कर लिया हो
वह है शिष्य यदि योग्य हो तो गुरु उसका आचारिय पद पर अभिशीक करे
योग्यता नहोने पर ना करे
इस अभिशीक के लिए पूर्वत मंडल बना कर
परमिश्व शिव की पूजा करे
पर पूर्वत पाँच कलशों की स्थापना करे
इनमें चार तो चारों दिशाओं में हो
और पाँचवा मध्य में हो
पूर्व वाले कलशपर निवत्ति कलाका
पश्चिम वाले कलशपर प्रतिष्ठा कलाका
दक्षिन कलशपर विध्या कलाका
उत्तर कलशपर शांति कलाका
और मध्यवर्ति कलश्वर शांत्य तीता कला का न्यास करके उनमें रक्षा आदि का विधान करके धेनु मुद्रा बांध कर कल्शों को अभिमंत्रित करके पूर्वत पूर्णा होती परियंत होम करें
फिर नंगे सिर शिष्व को मंडल में लिया कर गुरु मंत्रों का तरपणा आदि करें और पूर्णा होती परियंत हवन एवं पूजन करके पूर्वत देविश्वर की आग्या लें
शिष्व को अभिशेक के लिए ऊंची आसन पर बैठाएं पहले सकली करण की क्रिया करके पंच कला रूपी शिष्व के शरीर में मंत्र का नियास करें
फिर उस शिष्य को बांध कर शिव को सौप दे
तदंतर निर्वत्ति कला आदी से युप्त कलशों को क्रमशे उठा कर
शिष्य का शिव मंत्र से अभिशेक करें
अंत में मध्यवर्ती कलश के चल से अभिशेक करना चाहिए
इसके बाद शिव भाव को प्राप्त हुए आचार्य शिष्य के मस्तक पर शिव हस्त रखें
गुरु पहले अपने दाहिने हाथ पर सुगंध द्रव्य द्वारा मंडल का निर्मान करें
तद पश्चात वह उस पर विधी पूर्वक भगवान शिव की पूजा करें
इस प्रकार वह शिव हस्त हो जाता है
मैं स्वयं परम शिव हूँ यह निश्चय करके शिरी गुरुदेव अएसंदिक्द चित से शिष्य के सिर का स्पर्श करते हैं
उस शिव हस्त के स्पर्श मात से शिष्य का शिवत्व अविवक्त हो जाता है
और उसे शिवाचारिये की संग्या दे
तदंतर उसको वस्त्रा भूष्णों से अरंकरित करके
शिव मंडल में महादेव जी की आराधना करके
108 अहुती एवं पूर्ण अहुती दे
फिर देवेश्वर की पूजा एवं भूदल पर साष्टांग प्रणाम करके
गुरु मस्तक पर हाथ चोड़ भगवान शिव से यह निवेदन करें
भगवन्स्त्व त्व प्रसादेन देशि कोयम अयाक्रतह अनुग्रह त्वयादेव दिव्याग्यास्मै पदीयताम
हे भगवन आपकी कृपा से मैंने इसी योज्य शिष्य को आचारिय बना दिया है
हे देव अब आप अनुग्रह करके इसे दिव्याग्या प्रदान करें इस प्रकार कहकर गुरु शिष्य के साथ
पुने शिव को प्रणाम करें और दिव्य शिव शास्त का शिव की ही भाती पूजन करें।
उसके बाद शिव की आग्या लेकर आचारिय अपने उस शिष्य को अपने दोनों हातों से शिव सम्बन्धी ज्ञान की पुस्तक।
वह उस शिवगम विध्या को मस्तक पर रखकर फिर उसे विध्यासन पर रखे और यथोचित रीती से प्रणाम कर उसकी पूजा करें।
तदंतर गुरु से राजोचित चिन्ह प्रदान करें क्योंकि आचारिय पद्वी को प्राप्त हुआ पुरुष राज्य पाने के भी योग्य है।
तदंतर गुरु से पूर्व आचारियों द्वारा आचरित शिव शास्त्रोक्त आचरण का अनुसाशन करें जिससे सब लोगों में सम्मान होता है।
आचारी पद्वी को प्राप्त हुआ पुरुष शिव शास्त्रोक्त लक्षनों के अनुसार यत्नपूर्वक शिष्यों की परिख्षा करके उनका संस्कार करने के अनंतर उन्हें शिव घ्यान का उपदेश दे
इस प्रकार वे बिना किसी आयास की शोच, शमा, दया, अस्प्रिहा, कामनात्याग तथा अन्सुया, इर्शाताग आधी गुणों का यत्नपूर्वक अपने भीतर संग्रहे करें
इस तरहें उस शिश्य को आधेश देकर मंडल से शिव का, शिव कल्शुं का तथा अगनी आधी का विसरजन करके वहे सदस्यों का भी पूजन, दक्षना आधी से सत्कार करें
अथवा आपने गणों सहित गुरू एक साथ ही सब संसकार करें
जहां दो या तीन संसकारों का प्रियोग करना हो, वहां के लिए विधी का उपदेश किया जाता है
वहां आधी में ही अद्वशुद्धी प्रकरण में कहे अनुसार कल्शों की स्थापना करें
अभिशेक के सिवा समयाचार दिख्षा के समय कर्म करके शिव का पूजन और अद्वशुद्धन करें
अद्वशुद्धी हो जाने पर फिर महादेव जी की पूजा करें
उसके बाद हवन और मंत्र तरपन करके दीपन कर्म करें तथा महिश्वर की आग्या लें
शिश्य के हाथ में मंत्र समर्पन पूर्वक शीश कारिय पूण करें
अथवा संपूर्ण मंत्र संसार का क्रमशहे अनुचिंतन करके गुरु अभिशेक परियंत अद्वशुद्धी का कारिय संपन्न करें
वहां सांत्यतीता आदि कलाओं के लिए जिस विधि का अनुष्ठान किया गया है
वह सारा विधान तीन तत्वों की शुद्धी के लिए भी कर्तव्य है
शिव तत्व, विध्या तत्व और आत्म तत्व ये तीन तत्व कहे गए हैं
शकती में पहले शिव का, फिर विध्या का और उसके बाद उसकी आत्मा का विरभाव हुआ है
शिव से शांत्यतीता आद्वा प्राप्त है
उससे शांति कलाद्वा, उससे विध्या कलाद्वा, विध्या से परशिष्ठ, प्रतिष्ठा, कलाद्वा और उससे निर्वत्ती कलाद्वा प्याप्त है।
शिवशास्त्र के पारंगत मनीशी पुरुष मंत्र मूलक सांभव शैव संसकार को दुर्लव मान कर शाक्त संसकार का प्रतिपादन करते हैं
श्री कृष्ण इस प्रकार मैंने तुम से संपून यह चतुरवित संसकार कर्म का वर्णन किया
अब और क्या सुनना चाहते हो, बोलिए शिवशंकर भगवाने की जै
प्रिये भक्तों, इस प्रकार यहाँ पर शिव महापुरान की बायविय सहिता उत्तर्खन की ये कथा और बीस वार्ध्याय समाप्त होता है
आदर के साथ सम्मान के साथ पूलिये
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै
आनंद के साथ
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय