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Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-37

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-37 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-37 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-37 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-37

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोली शिवशंकर भगवाने की जए!
प्रिय भक्तों,
श्री शिव महा पुरान के वाईविये सहीता उत्तरखंड की अगली कता है
योग के अनेक भेद,
उसके आठ और छे अंगों का विवेचन
यम, नियम, आसन,
प्रानायाम,
दशविद प्राणों को जीतने की महिमा
प्रात्याहार,
धारणा,
ध्यान और समाधी का निरूपन
भक्तों, बहुत याननदायक प्रसंग है,
बहुत ही लाबदायक कता है,
ध्यान पूरोख सुनेंगे तो कल्यान निश्यत होगा
तो आईये भक्तों,
आरम्ब करते हैं,
इस कता के साथ सेति स्वाध्याय
श्री किष्णने कहा,
हे भगवन,
आपने घ्यान,
क्रिया और चरिया का संख्षिप्त सार उध्रत करके मुझे सुनाया है,
यह सब शुती के समान आदर्णी हैं,
और इसे मैंने ध्यान पूरोख सुना है,
अब मैं अधिकार,
अंगविधी और प्रियोजन सहित परम दुरलफ
जाये तो मनुष्य आत्मगाती होता है,
अते आप योग का ऐसा कोई साधन बताईए,
जिसे शिगर सिद्ध किया जा सके,
जिससे की मनुष्यों को आत्मगाती नहीं होना पड़े,
योग का वहनुष्ठान,
उसका कारण, उसके लिए उप्यूक्त समय,
साधन
तधा उसके भिधूं का तार्तम्य क्या है?
उप्मन्यू बोले,
हे श्री केश्न,
तुम सब प्रश्नों के तार्तम्य के ग्याता हूँ,
तुमारा यह प्रश्न बहुत ही उचित है,
इसलिए मैं इन सब बातों पर करम से प्रकास डालूंगा।
तुम एक आगरचित होकर सुनो,
जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है,
ऐसे चित्तिकी भगवान शिव में,
जो निष्चल वृत्ति है,
उसी को संक्षेट से योग कहा गया है।
यह योग पांच प्रकार का है,
मन्त्रियोग, सपर्शयोग,
भावयोग, अभावयोग और महायोग।
मन्त्र जप के अभ्यास वश्ष,
मन्त्र के वाच्चार्थ में इस्थित हुई विक्षे प्रहिद जो मन की वृत्ति है,
उसका नाम मन्त्रियोग है।
मन की वही वृत्ति
जब प्राणयाम को प्रधानता दे,
तो उसका नाम सपर्शयोग होता है।
वही सपर्शयोग,
जब मन्त्र के सपर्श से रहित हो,
तो भावयोग कहलाता है।
जिससे महत्तपून विश्व के रूप मात्र का अव्यव,
विलीन,
तिरोहित हो जाता है,
उसे अभावयोग कहा गया है।
क्योंकि उस समय सद्धस्तुका भी भान नहीं होता,
जिससे एक मात्र उपाधी शुन्य
शिव स्वभाव का चिंतन किया जाता है।
अव्योग की वद्धी शिव में ही हो जाती है,
उसे महायोग कहते हैं।
देखें और सुने गए लोकिक और परालोकिक विश्वियों
की ओर से जिसका मन विरक्त हो गया हो,
उसी का योग में अधिकार है,
दूसरे किसी का नहीं है।
लोकिक और परालोकिक दोनों विश्वियों के दोशों का और इश्वर
के गुणों का सदाही दर्शन करने से मन विरक्त होता है।
प्राय सभी योग आठ या छे अंगों से युक्त होते हैं।
ये थोड़े में योगके छह लक्षन है,
शिवोचास्त्र में इन्के प्रतक् प्रतक् लक्षन बताय है,
कामिक आधी में,
योगशास्त्रों में और किने किने पुराणों में भी ration ने जाएगई है.
शोच, संतोष, तप,
जप,
स्वाध्याय और प्रणिधान इन पांच भेदों से
युक्त दूसरे योगांग को नियम कहा गया है।
तात्प्रिय यह है कि नियम अपने अंशों के भेद से
पांच परकार का है। आसन के आठ भेद कहे गये हैं।
आसन के आठ भेद कहे गए हैं।
स्वस्थिक आसन,
पद्मासन,
अर्ध चंद्रासन,
वीरासन,
योगासन,
परसाधीत आसन,
परियंकासन और अपनी रुची के अनुसार आसन।
अपने शरीर में प्रकट हुई जो आयू है उसको प्रान कहते हैं।
उसे रोकना ही उसका आयाम है। उस प्रानायाम के तीन भेद कहे गए हैं।
रेचक,
पूरक और कुंभक।
नासिका के एक छिद्र को दबा कर या बंद करके
दूसरे से उदरिस्थित वायू को बहर निकालें।
इस क्रिया को रेचक कहा गया है।
फिर दूसरे नासिका छिद्र के दोरा बाहिय वायू से शरीर को धोकनी की भाती भर
लें। इसमें वायू के पूरण की क्रिया होने के कारण इसे पूरक कहा गया है।
जब साधक भीतर की वायू को नहीं तो छोड़ता
है और न बाहर की वायू को ग्रहन करता है,
केवल भरे हुए गड़े की भाती
अविचल भाव से इस्थित रहता है,
तब उस प्राणयाम को कुमभक नाम दिया जाता है।
योग के साधक को चाहिए कि वह रेचक आधी तीनों प्राणयामों
को नहीं तो बहुत जल्दी जल्दी करें और न बहुत तेर से करें।
साधना के लिए उधधत हो,
क्रम योग से उसका अभ्यास करें।
रेचक आधी में नाडी शुधन पूर्वक जो प्राणयाम का अभ्यास किया जाता है,
उसे सुइच्छा से उतकरमन परियंत करते रहना चाहिए।
यह बात योग शास्त्र में बताई गई है,
कनिश्ट आधी के क्रम से प्राणयाम चार परकार का कहा गया है।
मात्रा और गुणों के विभाग तार्तम में से ये भेद बनते हैं।
चार भेदों में से जो कन्यक या कनिश्ट प्राणयाम है,
वह प्रथम उध्गात कहा गया है।
उध्गात का अर्थ नाभी मूल से प्रेड़ना
की हुई वायू का सिर में टक्कर खाना है।
यह प्राणयाम में देश, काल और
संख्या का परिणाम है। इसमें बारे मात्राय होती हैं। मध्यम प्राणयाम
द्वित्य उध्गात है। उसमें चोबीस मात्राय होती है। उत्तम शेनी का
प्राणयाम द्रित्य उध्गात है। इसमें चत्तीस मात्राय होती है। इससे व
योग सूत्र में चतुर्थ प्राणयाम का परिचे स्वर्गार दिया गया है।
बाह्यां तर विशियाक शेपि चतुर्थ,
अर्थात बाहिय और आभ्यंतर विशियों को फैंकने वाला प्राणयाम चोथा है।
वह शरीर में स्वेद और कंप आधी का जनक होता है।
योगी के अंदर आनन्द जनित नोमांच,
नित्रों से आश्रुपात,
जल्प,
ब्रांति और मूर्शा अधी भाव प्रगट होते हैं।
गुटने के चारो और प्रतक्षन करम से न बहुत
चल्दी और न बहुत धीरी धीरी चुट्की बजाएं।
गुटने की एक परिकरमा में जितनी देर तक चुट्की बस्ती है,
उस समय का मान एक मात्रा है। मात्राओं को करम से जानना चाहिए।
उद्घात करम योग से नाडी शोधन पूर्वक प्रानायाम करना चाहिए।
जब और ध्यान क्येव听 पूर्वक किये जानेवाले प्राणायाम को सग Renee.
कियेया खरते हैं।
शरीर की वायूँपर विजय पाई जाती है।
प्रान, आपान, समान, उदान, व्यान,
नाग, कूर्म,
क्रिकल,
देवदत और धरञ्ज।
ये दस प्रान वायू हैं।
प्रान प्रियान करता है।
इसलिए इसे प्रान कहते हैं।
जो कुछ भोजन किया जाता है,
उसे जो वायू नीचे ले जाती है, उसको आपान कहते हैं।
जो वायू सम्पून अंगों को बढ़ाती हुई,
उन में व्याप्त रहती है,
उसका नाम व्यान है।
जो वायू मर्म इस्थलों को उद्द्वेलित करती है,
उसकी उदान संग्या है।
जो वायू सब अंगों को संभाव से ले चलती है,
वहें अपने उस सम्नैन रूप कर्म से समान कहलाती है।
मुक से कुछ उगलने में कारण भूत वायू को नाग कहा गया है।
धनंजै नाम वायू सम्पूंत शरीर में व्याप्त रहती
हैत वैं मरुतक शरीर शरीर को भी नहीं छूरती थि.
जब उचित प्रमान या मात्रा से युक्त हो जाता है,
तव वह करता के सारे दोशों को दगद कर देता है
और इसके शरीर की रक्षा करता है.
प्रान पर विजय प्राप्त हो जाये तो,
उससे प्रगट होने वाले चिन्णों को अच्छी तरहें देखें.
पहली बात यह होती है कि विष्ठा,
मोत्र और कफ की मात्रा घटने लगती है.
अधिक भोजन करने की शक्ती हो जाती है और विलंब से सांस चलती है.
शरीर में हलकापन आता है.
शीगर चलने की शक्ती प्रगट होती है.
हिरदे में उत्साः बढ़ता है.
स्वर में मिठास आती
है.
प्रशित,
मेधा,
युआपन,
इस्तिर्था और प्रसन्नता आती है.
तप,
प्राश्चित,
यग्य,
दान और वत आधी जितने भी साधन हैं,
ये प्राणयाम के सोहलवी कला के भी बराबर नहीं है.
अपने अपने विशे में आसक्त हुए इंद्रियों को वहां से हटा कर �
तो वह स्वर्ग की प्राप्ती कराती हैं.
और विश्यों की ओर खुली छोड़ दिया जाये,
तो वह नरक में डालने वाली होती हैं.
इसलिए सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धीमान पुरुष को चाहिए,
कि वह यान,
वैराज्य का आश्षे ले,
इंद्रिय रूपी अश्वों को शीगर ही काबुमे
करके स्वहेम ही आत्मा का उध्धार करें.
उध्धार को किसी इस्थान विशेश में बानदना,
किसी धेविशेश में इस्थिर करना,
यही संक्षीप से धार्णा का स्वरूप है.
एक मात्र शिव ही इस्थान है, दूसरा नहीं,
क्योंकि दूसरे इस्थान में त्रिविद दोश विद्धमान है.
आजितकाल तक इस्थान स्वरूप शिव में स्थापित हुए,
मन जब लक्ष से चुतने हो,
तो धार्णा की सिद्धी समझना चाहिए.
अन्यता नहीं.
मन पहले धार्णा से ही स्थिर होता है,
इसलिए धार्णा के अभ्यास से मन को धीर मनाएं.
अब ध्यान की व्याक्या करते हैं.
ध्यान में धये चिन्तायाम
यह धातु माना गया है.
इसी धातु से
लयुठ प्रत्यत करने पर
ध्यान की सिद्धी होती है.
अतय अधिक्षी प्रहित चित्व से जो शिव का बारंबार चिन्तन किया जाता है,
उसी का नाम ध्यान है.
धे में इस्थित हुए चित्य की जो धेयाकार व्यत्ति
होती है और बीच में दूसरी व्यत्ति अंतर नहीं डालती,
उस धेयाकार व्यत्ति का प्रभाह रूप से बना रहना ध्यान कहलाता है।
दूसरी सब वस्तों को छोड़कर केवल कल्यान कारी परमदेव,
देविश्वर,
शिव का ही ध्यान करना चाहिए। वे ही सबके परमधे हैं।
यह अतर्ववेद की शुती का अन्तिम निर्णय है।
इसी प्रकार शिवा देवि भी परमधे है।
यह दोनों शिवा और शिव संपून भूतों में व्यापते हैं।
शुती,
स्मृति एवं शास्त्रों से यह सुना गया है कि शिवा और शिव सर्व व्यापक,
सर्वधा हुदित,
सर्वग्य एवं नाना रूपों में निरंतर ध्यान करने योगे हैं।
इस ध्यान के दो प्रियोजन जानने चाहिए।
पहला है मोक्ष और दूसरा प्रियोजन है अनीमा आधी सिध्यों की उपलब्धी।
ध्याता, ध्यान,
देर
और ध्यान प्रियोजन
इन चारों को अच्छी तरह जानकर योग वेट्टा पुरुष्य योग का अभ्यास करें।
जो घ्यान और वैराज्ञे से संपन्य,
शद्धालूक, शमाशील,
मम्ता रहित तथा सदा उठ्सा रखने वाला है।
सादक को चाहिये कि वे जप से ठकने पर फिर ध्यान
करें। और ध्यान से ठक जाने पर पुने जब करें।
इस तरह जप और ध्यान में लगे होए पुरुष्य का योग जल्दी सिध होता है।
बारे प्राणायामों की एक धार्णा होती है।
समाधी को योग का अनतिमंग कहा गया है।
जो योगी धेये में
चित को लगा कर
सुईस्थिर भाव से उसे देखता है
और बुझीवी आग के समान शान्त रहता है। वह समाधिस्त कहलाता है।
वह न सूंता है
न दिखता है। न इसपरशका है न मन से संकलप विखल्प करता है।
विद्धी का उदेह होता है,
वो नवबुद्धी के द्वारा ही कुछ समसता है,
केवल काश्ट की भाती स्थित रहता है।
इस तरह सिव में लीन चित्वुए योगी को यहां समाधिस्त कहा जाता है।
जैसे वायु रहित इस्थान में रखावा दीपक
कभी हिलता नहीं है,
निस्पंध बना रहता है।
उसी तरह समाधि निष्ट,
शुद्ध चित्व योगी भी उस समाधि से कभी विचलित नहीं होता।
सुइस्थिर भाव से इस्थिर रहता है।
अगर उत्तम योग का अभ्यास करने वाले योगी के सारे अंतराय शीक्र
नष्ट हो जाते हैं,
और समपूर्ण विगन भी धीरे धीरे दूर हो जाते हैं।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
भक्तों,
इस प्रकार यहां पर शिश्यु महा पुरान के बाईवी ये सहीता,
उत्तरखंड की ये कथा
और सैती स्वाध्याय समाप्त होता है।
तो भक्तों मेरे साथ प्रसन्यचित होकर बोलिये।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
जैये।
ध्यान से
अपने आराद्ध शिव को अपने मन में बसा कर बोलिये।
ओम नमः शिवाय।
ओम नमः शिवाय।
ओम नमः शिवाय।

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