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Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-32

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-32 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran vayaviya sanhita uttar khand adhyay-32 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-32 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Vayaviya Sanhita Uttar Khand Adhyay-32

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोलिये शिवशंकर भगवाने की
जए!
प्रिय भक्तों
शिशिव महा प्रान के वाइविये सहीता उत्तरखण की अगली कता है
एहिक फल देने वाले कर्मों
और उनकी विधी का वर्णन
शिवपूजन की विधी
शान्ती
पुष्टी आदी विविद काम में कर्मों में
विभिन हवनी पदार्थों के उप्योग का विधान
तो आईये भक्तों
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ
32 अध्याय
उपमन्यू कहते हैं
हे श्री किर्षन
यह मैंने तुमसे इहलोक और परलोक में
सिध्धी प्रदान करने वाला क्रम बताया है
जो उठ्तम तो है ही
इसमें क्रिया जब तप और ध्यान का समुच्चे भी है
अब मैं शिव भक्तों के लिए यही फल देने वाले पूजन,
होम,
जप ध्यान,
तप और धान में महान कर्म का वर्णन करता हूं
मंतरार्थ के सुष्ट ग्याता को चाहिए कि वे पहले मंत्र को
सिध्ध करें अन्यथा इश्ट सिध्धी कारक कर्म भी फलद नहीं होता
मंतर सिध्ध कर लेने पर भी जिस कर्म का फल किसी प्रवल अध्रिष्ट
के कारण प्रतीबध हो उसे विद्ध्वान पुरुष्च सहसा ना करें
उस प्रतीबधक का
यहां निवारन किया जा सकता है
कर्म करने के पहले ही शकुन आदी करकी उसकी परिक्षा कर लें
और प्रतीबधक का पता लगने पर उसे दूर करने का प्रियातने करें
जो मनिश्य ऐसा
ना करके
मोह वश एहिक फल देने वाले कर्म का अनुश्थान
करता है वै उससे फल का भागी नहीं होता
और जगत में उपहास का पात्र बनता है जिस पुरुष को विश्वास
नहो वै एहिक फल देने वाले कर्म का अनुश्थान कभी ना करें
क्योंकि उसके मन में शद्धा नहीं रहती और
शद्धाहीन पुरुष को उस कर्म का फल नहीं मिलता
कि आकर्म निश्वल हो जाए
तो भी उसमें देवता का कोई अपराध नहीं है
वैसद्धकम तरवो पोडाते है उसके मन सवच पर
प्रश्म चर्य परायन होना चाहिए।
रात में हविष्य भोजन करे,
कीर या फल खा कर रहे,
हिन्सा आदी जो निशिद्ध कर्म हैं,
उन्हें मन से भी न करे।
सदा अपने शरीर में बस्म लगाए,
पवित्र वेश गुशा धारन करे और पवित्र रहे।
इसप्रकार आचारवान होकर अपने अनुकूल शुब दिन में
पुष्पमाला आदी से अलंकृत पूर्वक्त लक्षन वाले इस्थान में,
एक हात भुमी को गोवर से लीप कर वहां
बिचे हुए बद्रासन पर कमल अंकित करें।
जो अपने तेज से प्रकाशमान हो,
वै तपाए हुए स्वण के समान रंगवाला हो,
उसमें आठ दल हो और केसर भी बना हो,
अध्यभाग में वहे करणीका से युक्त और सम्पून रत्नों से
अलंकृत हो। उसमें अपने आकार के समान ही नाल होनी चाहिए।
वैसे स्वण निर्मित कमल पर
सम्यद्ध विधी से मन ही मन,
अनीमा आधी सब सिध्यों की भावना करें।
फिर उसपर रत्न का सोने का अथवा स्वटिक मनी का उठ्तम
लक्षनों से युक्त वेदी सहीथ शिवलिंग इस्थापित करके,
उसमें विधी पूर्वक पार्शदों सहीथ अविनाशी
साम्व सदाशिव का आवाहन और पूजन करें।
फिर वहां साकार भगवान महेश्वर की भावना मैं मूर्ती का निर्मान करें।
जिसके चार बुजाएं वो चार मुख हों,
वे सब आपूशनों से विभूशित हो,
उसे व्याग्र चर्म पहनाया गया हो,
उसके मुख पर
कुछ-कुछ हास्य की चटा चारही हो,
उसने अपने दो हाथों में वरत और अभय की मुद्रा धारन की हो,
और शेश दो हाथों में मिर्ग मुद्रा और टंक ले रखे हों।
अत्वा
उपासक की रुची की अनुसार अश्ट भुजा मूर्ती की भावना करनी चाहिए।
उस दशा में वह मूर्ती अपने दाहिने चार हाथों में तृशूल,
पर्शू,
खडग और वज्र लिये हो,
और बाएं चार हाथों में पाश,
अंकुष,
खेट और नाग धारन करती हो।
उस मूर्ती का पूर्वर्ती मुख सोम्य तधा
अपनी आकृती के अनुरूब ही कान्ती मान है।
दक्षिन वर्ती मुख नील मिख के समान शाम और देखने में भयंकर है।
उत्तर वर्ती मुख मूंगे के समान लाल है और सिर की नीली
अलकें उसकी शोबह बढाती है।
पश्चिम वर्ती मुख पूर्वर्ती के समान
उज्ज्वल सोम्य तधा चंद्र कलाधारी है।
उस शिव मूर्ती के अंक में पराशक्ती महिश्वरी शिवा आरुढ है।
उनकी अवस्था सोले वर्ष की सी है।
वे सबका मन मोहने वाली हैं और महालक्ष्मी के नाम से विख्यात हैं।
इस प्रकार भावनामई मूर्ती का निर्मान और सकली करन करके
उन में मूर्ती मान परमकारण शिव का आवाहन और पूजन करें।
वहां स्नान कराने के लिए कपिला गाय के
पंच गव्य और पंचा मृत का संग्रह करें।
इसके आथ
पूर्व अधि 8 दिशाओं में क्रमश है।
विद्वेश्वर के आठ कलशों की स्थापना करके
उन सब को
तीरत के जल से भर दे
और कंठ में सूत लपेर दे
फिर उनके भीतर पवित्र द्रव छोड़कर
मंत्र और विधी के साथ
साडी या धोती आधी वस्तर से
उन सब कलशों को
चारो ओर से आच्छादित करते हैं।
तद अंतर
मंत्रो चारण पूर्वक उन सब में मंत्र न्यास करके
स्नान का समय आने पर
सब प्रकार के मांगलिक शब्दों और वाध्धों
के साथ पंचगव आधी के द्वारा परमिश्वर शिव को स्नान कराएं।
पूशोदक,
स्वर्णोदक और रत्नोदक आधी को जो गंध,
पुश्प आधी से वासित और मंत्र सिद्ध हों,
क्रमश है,
लिले कर मंत्रो चारण पूर्वक
उन उन के द्वारा महिश्वर को नहलाएं।
तेर गंध,
पुश्प और दीप आधी निवेधन करके पूजा करम संपन्य करें।
आलेपन या उब्डन कम से कम एक पल और अधिक से अधिक ग्यारहे पल हों।
सुन्दर,
स्वर्ण में और रत्न में पुश्प अर्पित करें।
तेर गंधित नील कमल,
नील कुमद,
अनेक शह,
विल्वपत्र,
लाल कमल
और श्वेद कमल भी शंभू को चड़ाएं।
काला गुरू के धूब को कपूर,
घी और गुग्गुल से युक्त करके निवेधन करें।
पिला गाय के घी से युक्त दीपक में कपूर
की बत्ती बना कर रखें और उसे जला कर
देवता के सम्मुख तिखाएं।
ईशाना आदी,
पांच ब्रम की,
छवों अंगों की और पांच आवरणों की पूजा करनी चाहिए।
दूद में तयार किया हुआ पदार्थ निवेधन के रूप में निवेधित
है। गुड और घी से युक्त महाचरु का भोग लगाना चाहिए। पाटल,
उत्पल और कमल आदी से स्वासित जल पीने के लिए देना चाहिए।
पाच परकार की सुगंदों से युक्त तता अच्छी तरह लगाया
हुआ तामबूल मुक्षुधी के लिए अरपित करना चाहिए।
स्वार्ण और रत्नों के बने हुए अभूशन,
नाना परकार के रंग वाले नूतनमहीन वस्त्र जो धर्शनिय हुँ
ईश्ट देव को देने चाहिए।
उस समय घीत, वाद और कीर्तन आदी भी करने चाहिए।
मूल मंत्र का एक लाख चप करना चाहिए।
पूज़ा कम से कम एक बार,
नहीं तो दो या तीन बार करनी चाहिए। क्योंकि अधिक का अधिक फल होता है।
होम सामक्री के लिए जितने द्रव्यों,
उन में से प्रतेक द्रव्य की कम से कम दस
और अधिक से अधिक सो आँपतियां देनी चाहिए।
मारन और उच्छाटन आधी में शिव के घोर रूप का चिंतन करना
चाहिए। शान्ती कर्म या पोष्टिक कर्म करते समय शिवलिंग में,
शिवागनी में तथा अन्य प्रतिमाओं में शिव
के सोम में रूप का ध्यान करना चाहिए।
संगुप संभुत फरंव करते हैं कि एकलोर्ग के लॉहे में अप्पत उत्पो।
तिलों की आहुती देनी चाहिए।
सम्रद्धी की च्छा रखने वाला पुरुष,
महान दरिद्धे की शान्ती के लिए घी,
दूद अथ्वा केबल कमल के फूलों से होम करें।
वशी करण का एच्छुक पुरुष,
ग्रत युक्त जाती पुष्प,
चमेली या माल्टी के फूल से हवं करें। दूज़ को चाहिए
कि वह ग्रित और करवीर पुष्पों से आहुती देकर
आकिरशन का प्रियोक सफल करें। तेल की आहुती से उच्छाटन,
और मधू की आहुती से इस्तमबन करम करें। सरसों की आहुती से �
तेल की आहुती से उच्चाटन और मधु की आहुती से इस्तंबन कर्म करें।
सरसों की आहुती से भी इस्तंबन किया जाता है।
बढ़के बीज और तिल की आहुती द्वारा मारन और उच्चाटन करें।
नारियल के तेल की आहुती देकर विद्वेशन कर्म करें।
रोही के बीज की आहुती देकर बंधन का तथा लाल सरसों मिले
हुए संपून होम द्रव्यों से सेना इस्तंबन का प्रियोग करें।
अभिचार कर्म में हस्त चालित यंतर से
तयार किये हुए तेल की आहुती देनी चाहिए।
कुट्की की भूसी, कपास की,
डोड तथा तेल मिश्रित सरसों की भी आहुती दी जा सकती है। दूद की आहुती
ज्वर की शान्ती करने वाली तथा सोभाग्य रूप फल परदान करने वाली होती है।
मधु,
घी और दही को परस पर मिला कर इनसे दूद और चावल से अथ्वा केवल
दूद से किया गया होम सम्पून सिध्यों को देने वाला होता है।
साथ,
समिधा,
आदी से शान्तिक अथ्वा पोष्टिक कर्म भी करें।
नाकृषन पर उसह।
शत्रू पर विजय प्रदान कराता है।
शान्ती कारिय में पलाश और खैर आदी की समिधाओं का होम करना चाहिए।
क्रूर्ता पून कर्म में कनेर और आग की समिधा होनी चाहिए।
लड़ाई जगणे में कटीले पेडों की समिधाओं का हमन करना चाहिए।
शान्ती और पुष्टी कर्म को विश्चित शान्ती
चित पुरुषी करें। जो निर्दै और क्रोधी हो
उसी को आभीचारिक कर्म में प्रिवत्त होना चाहिए। वे हैं
भी उस तशा में जबकी दुरवस्था चरम सीमा को पहुँच गई हो
और उसके निवारन का दूसरा को
अपने राश्टपती को हानी पहुचाने के उद्धिश्य से
आभीचारिक कर्म कदापी नहीं करने चाहिए।
यदि कोई आस्तिक,
परमधर्मात्मा और माननिय पुरुष हो
उससे यदि कभी आतताईपन का कारिय हो जाए
तो भी उसको नश्ट करने के उधिश्य से
आभीचारिक कर्म का प्रियोग नहीं करना चाहिए।
जो कोई भी मन,
वाणी और क्रिया द्वारा भगवान शिव के आश्रित हो उसके तथा राष्टपती के
उधिश्य से भी आभीचारिक कर्म करके मनुश्य शीगर ही पतित हो जाता है।
इसलिए कोई भी पुरुष जो अपने लिए सुख चाहता हो,
अपने राष्टपालक राजा की
तथा शिव भक्ती की अभीचार आधी के द्वारा हिंसा न करें।
दूसरे किसी के उद्देश्य से भी मारन आधी का प्रियोग
करने का वश्चताप्त से युक्त हो प्राश्चित करना चाहिए।
निर्धन या धन्वान पुरुष भी
बान लिंग,
नर्मदा से प्रकट हुए शिव लिंग,
रिश्यों द्वारा स्थापित लिंग
या वैधिक लिंग में भगवान चेंकर की पूजा करें।
जहां ऐसे लिंग का भाव हो वहां स्वार्ण और रत्न
के बने हुए शिव लिंग में पूजा करनी चाहिए।
यदी स्वार्ण और रत्न के उपार्जन की शक्ति न हो,
तो मन से हिभावना मैं मूर्थि का निर्वान करके
मानसिक पूजन करना चाहिए।
जो किसी अंश में समर्थ और किसी अंश में असमर्थ है,
वहे भी यदी अपनी शक्ती के अनुसार पूजन करम करता है,
तो अवश्य फल का भागी होता है।
जहां इस करम का अनुष्ठान करने पर भी फल नहीं दिखाई देता,
वहां दो या तीन बार इसके आवर्ती करें,
ऐसा करने से सर्वता फल का दर्शन होगा।
पूजा के उपयोग में आया हुआ जश्वर्ण,
रत्न आदी उत्तम द्रव्य हो,
वहे सब गुरू को दे देना चाहिए,
तथा उसके अतिरिक्त दक्षणा भी देनी चाहिए।
यदि गुरू नहीं लेना चाहते हूं,
तो वहे सब वस्तु भगवान शिव को ही आसमर्पित कर दें
अत्वा शिव भगतों को दे दें। इनके सिवा दूसरों को देने का विधान नहीं है।
जो पुरुष,
गुरू आदी की अपिक्षाना रखकर स्वेम यथा शक्ती पूजा संपन्य करता है,
वह भी ऐसा ही आच्रन करें।
पूजा में चड़ाए हुई वस्तु स्वेम न ले ले,
जो मूड,
लोबवश्र,
पूजा के अंग भूत उत्तम द्रव्य को स्वेम ग्रहन कर लेता है,
वह अभिष्ट फल को नहीं पाता। इसमें अन्यता विचार नहीं करना चाहीं।
किसी के द्वारा पूजित शिवलिंग को मनुष्य ग्रहन करें या ना करें,
यह उसकी च्छा पर निर्भर है।
यदि ले ले,
तो स्वेम नित्ते उसकी पूजा करें अथवा
उसकी पेड़िना से दूसरा कोई पूजा करें।
जो पुरुष्ट इस करम का शास्त्रिय विधी
के अनुसारी निरंतर अनुष्ठान करता है,
वैफल पाने से कभी वंचित नहीं रहता।
इससे बढ़कर प्रशिन्सा की बात और क्या हो सकती है।
तथापी मैं सनुक्षेप से करम जनित उत्तम
सिद्धी की महिमा का वर्णन करता हूँ।
इससे शत्रुवों अथवा अनेक परकार की व्याधियों का शिकार होकर
और मोत के मुहुं में पढ़कर भी,
गड़्धा पहाँ जो जो प्रशिन्सा की बात और क्या हो जाता है।
अगनी सरोवर के समान शीतल और सरोवर भी अगनी के समान
दाहक बन जाता है। उदहान जंगल और जंगल उधान हो जाता है।
छुद्र म्रग सिंग के समान
शोर्य शाली
और सिंग भी क्रिडा म्रग के समान
आज्या पालक हो जाता है।
उधाने प्रिया ने आज्या पालक हो जाता है।
उधान प्राक्रम शाली होता है। शत्रु पक्ष के उध्योग
और कारिय स्थब्द हो जाते हैं। तथा शत्रों के समस्त
सुहिर्देगन उनके लिए शत्रु पक्ष के समान हो जाते हैं।
शत्रु बंदु बांधों सहित जीते जी मुर्दे के समान हो जाते हैं। और सिद्ध
पुर्ष स्वेम आपत्ती में पड़ कर भी अरिष्ट रहित संकट मुक्त हो जाता है।
अम्रत्व साप प्राप्त कर लेता है। उसका खायाओ हुआ अपथ्य
भी उसके लिए सदा रसायन का काम देता है। निरंतर रती का सेवन
करने पर भी वे नयासा ही बना रहता है। भविश्य आदी की सारी
बातें उसे हाथ पर रखे हुए आमले के समान प्रतक्ष दिखा�
इस कर्म का संपादन कर लेने पर संपून कामार्थ सिध्यों
में कोई भी ऐसी वस्तू नहीं रहती जो अलब्य हो।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए।
प्रिये भक्तों,
इस प्रकार यहाँ पर शिशिव महा पुरान के वाईवियस सहीता उत्तरखंड की
यह कता और बत्तिस्मा अध्या यहाँ पर समाप्त होता है। तो सनही के साथ
बोलिये। बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए। ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय

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