Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिए शिवशंकर भगवाने की जय प्रिय भक्तों श्री शिव महापुरान के वायविय सहिता उत्तरखंड की अगली कथा है
आवरण पूजा की विस्त्रित विधी तथा उप्त विधी से पूजन की महिमा का वर्णन
तो आईए भक्तों आरंब करते हैं इस कथा के साथ पीस्वा अध्याय
उप्मन्यू कहते हैं
हे यदुनन्दन पहले शिवा और शिव के दाएं और बाएं भाग में
क्रमशय गनेश और कार्तिके का गंध आधी पाँच उपचारों द्वारा पूजन करें
फिर इन सब के चारों और ईशान से लेकर सधो जात परियंत
पाँच ब्रह्म मूर्तियों का शक्ति सहित क्रमशय पूजन करें
यह प्रथम आवरण में किया जाने वाला पूजन है
उसी आवरण में हिर्दय आधी छे अंगो तथा शिव और शिवा का अगनी कोन से लेकर
पूर्व दिशा परियंत आठ दिशाओं में क्रमशय पूजन करें
वही वामा आदी शक्तियों के साथ वाम आदी आठ रुद्रों की पूर्वादी दिशाओं में करमशे पूजा करें
यह पूज़न वैकल्पिक है
हे यदुननन, यह मैंने तुमसे प्रथम आवरण का वर्णन किया है
अब प्रेम पूर्वक दूसरे आवरण का वर्णन किया जाता है
शद्धा पूर्वक सुनु
पूर्व दिशा वाले दल में अनंत का और उसके वाम भाग में उसकी शक्ती का पूजन करे
दक्षिन दिशा वाले दल में शक्ति सहित सूख्ष्म देवी की पूजा करे
पश्चिम दिशा के दल में शक्ति सहिथ शिवत्तम का
उत्तर दिशा वाले दल में शक्ति युक्त एक नेट्र का
इशान कौन वाले दल में एक रुद्र और उनकी शक्ती का
अगनी कौन वाले दल में त्रिमूर्ती और उनकी शक्ती का
नहरित्यकोण के दल में श्रीकंथ और उनकी शक्ती का
तथा वायव्यकोण वाले दल में शक्ती सहीत शिखंडीश का पूजन करें
समस्त चक्रवर्तियों की भी द्वित्यावरण में ही पूजा करनी चाहिए
तृत्य आवरण में शक्तियों सहीत अष्ट मूर्तियों का पूर्वादी आठों दिशाओं में क्रमशे पूजन करें
भव, शर्व, इशान, रुद्र, पशुपति, उग्र, भीम और महादेव
ये क्रमशे आठ मूर्तियां हैं
इनके बाद उसी आवरण में शक्तियों सहीत महादेव आदी ग्यारे मूर्तियों की पूजा करनी चाहिए
महादेव, शिव, रुद्र, शंकर, नील, लोहित, इशान, विजय, भीम, देव, देव, भवदभव, तथा कपरदीश या कपालीश
यह ग्यारे मूर्तियां हैं इनमें से जो प्रथम आठ मूर्तियां हैं उनका अगणी कोण वाले दल से लेकर पूर्व दिशा परियंद आठ दिशाओं में पूजन करना चाहिए
देव देव को पूर दिशा के दल में स्थापित यवं पूजित करें
और इशान का पुने अगनी कोड़ में स्थापन पूजन करें
फिर इन दोनों के बीच में भवत भव की पूजा करें
और उनहीं के बाद कपालीश या कपरदीश का इस्थापन पूजन करना चाहिए
उस त्रत्य आवरण में फिर व्रशवराज का पूर्व में
नन्दी का दक्षिन में, महाकाल का उत्तर में, शास्ता का अगनी कोण के दल में
मात्रिकाओं का दक्षिन दिशा के दल में, गनेश जी का नहरित्य कोण के दल में
कार्तिके का पश्चिम दल में, जेश्ठा का वायव्य कोण के दल में
गोरी का उत्तर दल में, चंड का इशान कोण में
तथा शास्ता एवं नन्दिश्वर के बीच में मुनिंद्र वशब का यजन करें
महाकाल के उत्तर भाग में पिंगला का
शास्ता और मात्रिका के बीच में ब्रङगिश्वर है
मात्रिकाँं तथा गनेज जी के बीच में
ऴीर भद्र का
इसकंद और गनेश जी के बीच में सरस्वती देवी का जेष्ठा और कार्तिके के बीच में शिव चढ़नों की अर्चना करने वाली श्री देवी का जेष्ठा और गनामबा गोरी के बीच में महामोटी की पूजा करें।
गणांबा और चंड के बीच में दुर्गादेवी की पूजा करें इसी आवरण में पुना शिव के अनूचर वर्ग की पूजा करें इस अनूचर वर्ग में रुद्रगन प्रमतगन और भूतगन आते हैं इन सब के विविद रूप हैं और ये सब के सब अपनी शक्तियों के
साथ है इनके बाद इकागरचित हो शिवा के सखी वर्ग का भी ध्यान एवं पूजन करना चाहिए
इस प्रकार तृत्य आवरण के देवताओं का विस्तार पूर्वक पूजन हो जाने पर उसके बाहिय भाग में चतुर्थ
आवरण का चिंतनेवं पूजन करें पूर्व दल में सूर्य का दक्षिन दल में चत्रुमुख प्रम्मा का पश्चिम दल में
रुद्र का और उत्तर दिशा के दल में भगवान विश्णु का पूजन करें इन चारों देवताओं के भी प्रतक प्रतक आवरण है
इनके प्रथम आवरण में चहों अंगो तथा दीपता आदी शक्तियों की पूजा करनी चाहिए
दीपता, सुक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूती, विमला, अमोगा और विधूता
इनकी क्रमश है पूर्व आदी आठ दिशाओं में इस्थिती है
द्वति आवरण में पूर्व से लेकर उत्तर तक क्रमश है
चार मूर्तियों की ओर उनके बाद उनकी शक्तियों की पूजा करें
आदित, तेभासकर, भानू और रवी ये चार मूर्तियां क्रमश है
पूर्व आदी चारों दिशाओं में पूज निये है
ततपश्चात, अर्ग, प्रम्मा, रुद्र तथा विश्णू ये चार मूर्तियां भी पूर्व आदी दिशाओं में पूज निये है
पूर्व दिशा में विस्तरा, दक्षिन दिशा में सुत्रा, पश्चिम दिशा में बोधनी और उत्तर दिशा में आप्प्याईनी की पूजा करें
इशान कोण में उशा की, अग्नी कोण में प्रभा की, रहरित्य कोण में प्राज्या की, और वायव्य कोण में संध्या की पूजा करें
इस तरहें द्वित्य आवरण में इन सब की स्थापना करके विधिवत पूजा करनी चाहिए
तृत्य आवरण में सोम, मंगल, बुद्धी मानों में श्रेष्ट बुद्ध, विशाल बुद्धी ब्रस्पती, तेजो निधी शुक्र, शैनिष्चर तथा धूम्र बढ़न वाले भयंकर राहु केतु का पूर्वादी दिशाओं में पूजन करें
अथोवा दुवित्तिय आवरण में द्वादश आदित्यों की पूजा करनी चाहिए और तृत्य आवरण में द्वादश राशीयों की
उसके बाहिय भाग में साथ साथ गणों की सब और पूजा करनी चाहिए
रिशियों, देवताओं, गंधर्वों, नागों, अपसराओं, ग्रामीनों, यक्षों, यातुधानों, साथ छंदों में, अश्वों तथा वाल खिल्यों का पूजन करें
इस तरहें तरतिय आवरण में सूर्य देव का पूजन करने के पश्चात तीन आवरणों सहित ब्रह्मा जी का पूजन करें
पूर्व दिशा में हिरन्य गर्व का, दक्षिन में विराट का, पश्चिम दिशा में काल का, और उत्तर दिशा में पुरुष का पूजन करें
हिरन्य गर्भ नामक जो पहले ब्रह्मा है
उनकी अंग कांती कमल के समान है
काल जन्म से ही अंजन के समान काले है
और पुरुष इसफटिक मनी के समान निर्मल है
त्रगुण, राजस, तामस तथा सात्विक
ये चारों भी पूर्वादी दिशा के करम से
पुर्थम आवरण में ही स्थित है
द्वती आवरण में पूर्वादी दिशाओं के दलों में
क्रमश है
सनत कुमार, सनत, सनन्दन और सनातन का पूजन करना चाहिए
तरपश्यात तीसरे आवरण में
ग्यारे प्रजापर्तियों की पूजा करें
उन में से पुर्थम आठ का तो पूर्वादी आठ दिशाओं में पूजन करें
फिर शेष तीन का पूर्वादी के करम से
अर्थात पूर्व, दक्षिंद एवं पश्चिम में स्थापन पूजन करें
दक्ष, रुची, ब्रह्गू, मरीची, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, अत्री, कश्यप और वशिष्ट
ये ग्यारे है विख्यात प्रजापती है
इनके साथ इनकी पत्नियों का भी क्रमश है पूजन करना चाहिए
प्रसूती, आकोती, ख्याती, संभूती, द्रिती, स्मृती, क्षमा, सनन्ती, अन्सूया, देवमाता, अधीती तथा अरुन्धती
ये सभी रिशी पत्निया, पती वृता, सदा शिव पूजन परायना, कान्तिमती और प्रिय दर्शना
परम्धती
ये सब्सक्राइब पूजन करना चाहिए
चार वेदों को पूर्वादी चार दिशाओं में पूजना चाहिए
अन्य ग्रंथों को अपनी रुची के अनुसार
आठ या चार भागों में बाट कर
पूजन करना चाहिए
सब ओर उनकी पूजा करनी चाहिए
इस प्रकार दक्षिन में तीन आवरणों से युक्त ब्रह्मा जी की पूजा करके
पश्चिम में आवरण सहित रुद्र का पूजन करें
ईशान आदी पाँच ब्रह्म और हिर्दे आदी छे अंगों को
रुद्र देव का प्रथम आवरण कहा गया है
द्वतीय आवरण विद्ध्विश्वर में है
पाशुपत दर्शन में विद्ध्विश्वरों की संख्या आठ बताई गई है
उनके नाम इस प्रकार हैं
अनन्त, सूक्ष्ण, शिवत्तम, एकनेत्र, एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकंठ और शिकंडी
इनको क्रमशहे पूर्वादी दिशाओं में स्थापित करके उनकी पूजा करें
द्वतीय आवरण में इनी की पूजा बताई गई है
तिरतीय आवरण में भेध है
तिर्गुणा आदी चार मूर्तियों की पूजा करनी चाहिए
पूरु दिशा में उन रूप शिव नामक महादेव पूजित होते है
उनकी तिर्गुण संग्या है क्योंकि वे तिर्गुणात्मक जगत की आश्रे है
दक्षिन दिशा में राजस पुरुष के नाम से प्रसिद्ध स्विस्टी कृता ब्रह्मा का पूजन किया जाता है
वे भव कहलाते हैं पश्चिम दिशा में तामस पुरुष अगनी की पूजा की जाती है
इनी को संघारकारी हर कहा गया है
उत्तर दिशा में सात्विक पुरुष सुखदायक विश्णू का पूजन किया जाता है
ये ही विश्व पालक मिर्ड है
इस प्रकार पश्चिम भाग में शंभू के शिव रूप का
जो पचीस तत्वों का साक्षी चबीस्वा तत्व रूप है
सांख्योक्त चोबिस प्राक्रत तत्वों के साक्षी जीवों को
पचीसवा तत्व कहा गया है
जो इससे भी परे है
वे सर्वशाक्षी परमात्मा शिव चबीस्वे तत्व रूप है
पूजन करके उत्तर दिशा में भगवान विश्णू का पूजन करना चाहिए
पूजन को पश्चिम में और संकर्षन को उत्तर में स्थापित करके इनकी पूजा करनी चाहिए
यह पर्थम आवरण बताया गया है
अब द्वितिय शुद्ध आवरण बताया जाता है
मतश्य, कूर्म, वराह, नरसिंग, वामन
तीनों में से एक राम, आप श्री कृष्ण और हैग्रिव
यह द्वितिय आवरण में पूजित होते हैं
द्वितिय आवरण में पूरु भाग में चक्र की पूजा करें
दक्षिन भाग में कहीं भी प्रतीहतने होने वाले नारायनस्त्र का यजन करें
पश्चिम में पाँच जन्य का और उत्तर में सारंग धनुष की पूजा करें
इस प्रकार तीन आवरों से युक्त साक्षात विश्व नामक परम हरी महा विश्णु की
जो सदा सर्वत्र वापक हैं मूर्ती में भावना करके पूजा करें
इस तरहें विश्णु के चक्रव्यू क्रम से चार मूर्तियों का पूजन करके
क्रम से उनकी चार शक्तियों का पूजन करें
प्रभा का अगणी कोण में, सर्श्वती का नहरित्य कोण में, गणाम विका का
वायव्यकोण में तथा लक्ष्मी का आईशान कोण में पूजन करें इसी प्रकार भानु वादी मूर्तियों और उनकी शक्तियों का पूजन करके उसी आवरण में लोकिश्वलों की पूजा करें उनके नाम इस प्रकार हैं
इस प्रकार चोथे आवरण की विधी पूर्वक पूजा संपन्न करके बाहिय भाग में महिशर की आयुध्धों की अर्छना करें
इशान कोण में तेजसु सी तिरशूल की पूर्व दिशा में वज्र की अगनी कोण में पर्शु की दक्षिन में बान की
नहरित्य कोण में खड़क की पश्चिम में पाश की वायव्य कोण में अंकुष की ओर उत्तर दिशा में पिनाक की पूजा करें
तथ पश्चात पश्चिमा भिमुक रोद्र रूपधारी छित्र पाल का अर्चन करें
इस तरहें पंचम आवरण की पूजा का संपादन करके
समस्त आवरण देवताओं के बाहिके भाग में
अथवा पाँचवे आवरण में ही मात्रिकाओं सहीत महा वरशब
नन्दिकेश्वर का पूर्व दिशा में पूजन करें
तदंतर समस्त देव योनियों की चारो रचना करें
इसके सिवा जो आकाश में विचरने वाले रिशी
सिद्ध, दैत्य, यक्ष, राक्षस, अनन्त आती नागराज
उन उन नागेश्वरों के कुल में उत्पन्न हुए
अन्य नाग, धाकनी, भूत, बेताल, प्रेत और भैर्मों के नायक
नाना योनियों में उत्पन्न हुए
अन्य पाताल वासी जीव, नदी, समुद्र, परवत, वन, सरोवर, पशू, पक्षी, विक्ष, कीट आधी
छुद्र योनी के जीव, मनुष्य, नाना प्रकार के आकार वाले मृग
छुद्र जन्तु ब्रह्मांड के भीतर के लोक
कोटी कोटी ब्रह्मांड ब्रह्मांड के बाहर के असंख्य भूवन
और उनके अधिश्व तता दसों दिशाओं में इस्तित
ब्रह्मांड के आधार भूथ रुद्ध रहें
और गुण जनित, माया जनित, शक्ती जनित
तथा उससे भी परे जो कुछ भी शब्द, वाज्ज, जर्ज, चेतनात्म, प्रपंच है
उन सब को शिवा और शिव के पार्श भाग में स्थित जान कर
उनका सामाने रूप से यजन करें
वे सब लोग हाथ चोड़ कर
मन्द मुस्कान युक्त मुक्से
सुशोवित होते हुए प्रेम पूर्वक महादेव और महादेवी का दर्शन करें
ऐसा चिंतन करना चाहिए
इस तरहें आवरण पूजा संपन्न करके
विक्षेप की शांति के लिए पुन्हे देविष्ट्र और शिव की अर्चना करने के पश्याद
पंचाक्षर मंत्र का जब करें
तदंतर शिवर पारवती के सम्मुख
उत्तम वेंजनों से युक्त तथा
अमरत के समान मधुर, शुद्ध एवं मनोहर
महाचरू का नयविध्य निवेदन करें
यह महाचरू वत्तिस आढ़क लगभग तीन मन आठ सेर का हो थोत्तम है
और कम से कम एक आढ़क चार सेर का हो तो निम्न शेनी का माना गया है
अपने वैभव के अनुसार जितना हो सके
महाचरू तियार करके उसे शद्धा पूर्वक निवेदित करें
तदंतर जल और ताम्बूर, इलाईची आदि निवेदन करके
आर्ति उतार कर शीश पूजा समाप्त करें
याग के उप्योग में आहने वाले द्रव्य, भोजन, वस्त्र आदि को उत्तम शेनी का भी तियार करा करते
भक्तिमान पुरुष वैभव होते हुए धन वैव करने में कंजुसी ना करें
जो शठ्या कंजुस हैं और पूजा के प्रति उपेक्षा की भावना रखते हैं
वे हैं यदि कर्पनता वश कर्म को किसी अंग से ही हीन करते हैं
तो उसके वे काम में कर्म सफल नहीं होते हैं
ऐसा सत्पुर्शों का कथन है
इसलिए मनिश्य यदि फल सिद्धी का उच्छुख हो
तो उपेक्षा भाव को त्याग कर संपून अंगों की योग से
काम में कर्मों का संपादन करें
इस तरहें पूजा समाप्त करके महादेव और महादेवी को प्रणाम करें
फिर भक्ती भाव से मन को एकागर करके इस्तुती पाठ करें
इस्तुती के पश्चात साधक उच्छुखता पूर्वक
कम से कम 108 बार और समभ हो तो 1000 से अधिक बार पंचाक श्री विध्या का चप करें
तथ पश्चात करमशय विध्या और गुरु की पूजा करके
अपने अभ्युदय और शद्धा के अनुसार यग्य मंडप की सदिश्यों का भी पूजन करें
फिर आवरणों सहीद देविश्वर शिव का विसरजन करके
यग्य के उपकरणों सहीद वैसारा मंडल गुरु को
अथवा शिव चरणा शित भक्तों को दे दे
अथवा उसे शिव के ही उत्तेश से
शिव के क्षेत्र में समर्पित कर दे
अथवा समस्त आवरण देवताओं का यथोचित रीती से पूजन करके
साथ परकार के होम द्रव्यों द्वारा
शिवागनी में इष्ठ देवता का यजन करें
यह तीनों लोकों में विख्यात योगिश्व नामक योग है
इससे बढ़कर कोई योग तृभुन में कहीं नहीं है
संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो इससे साध्य नहीं हो
इस लोक में मिलने वाला कोई फल हो यह परलोक में इसके द्वारा सब सुलव है
यह इसका फल नहीं है
ऐसा कोई नियंत्रन नहीं किया जा सकता
कोई संपोन, श्रियो रूप, साध्धे काई शेष्ट साधक है
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है
कि पुरुष जो कुछ फल चाहता है
वैस्तब चिंता मणी के समान
महान इससे प्राप्त हो सकता है तथा � BaghQué किसी शुद्र फल के उद्देश्य से इसका प्रhet creation
नहीं करना चाहिए क्योंकि किसी महान से लगूप फल की इच्छा रखने वाला पुरुष स्वयं लगूतर हो जाता है
महा देव जी के उद्देश्च से महान या अल्प जू भी करम किया जाए
वह सब सिद्ध होता है अते उनी के उद्देश्च से करम का प्रियोग करना चाहिए
शत्रू तथा मृत्यू पर विजय पाना आदी जो फल दूसरों से सिद्ध होने वाले नहीं है
उनहीं लोकिक या परालोकिक फलों के लिए
विद्वान बुरुष इसका प्रियोग करें
महापातकों में
महान रोग से भै आदी में
तथा दुर्भिक्ष आदी में
यदि शांती करने की आवशक्ता हो
तो इसी से शांती करें
अधिक बढचड कर बाते बनाने से क्या लाब
इस योग को महिश्र शिव ने
शैवों के लिए बड़ी भारी आपत्ती का निवारन करने वाला
अपना निजी अस्त्र बताया है
अतै इससे बढ़कर यहां अपना कोई रक्षक नहीं है
ऐसा समझकर इस कर्म का प्रियोग करने वाला पुरुष
शुब फल का भागी होता है
जो परती दिन पवित्र एवं एकाकर्चित होकर
इस तोत्रमात का पाठ करता है
वह भी अभिष्ट प्रियोजन का अष्टमांश फल पालेता है
जो अर्थकान संधान करते हुए, पूर्णी मां अश्टमि, अथवा चतुरदशी को उपवास पूर्वख इस त्रोत का पाठ करता है, उसे आधा अभिष्ट फल प्राप्त हो जाता है
जो अर्थ का अनसंधान करते हुए लगातार एक माह तक इस त्रोत का पाठ करता है
और पूर्णिमा अश्टमी एवं चतुरदशी व्रत रखता है
वह संपून अभिष्ट फल का भागी होता है
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै
प्रिय भक्तों इस प्रकार यहाँ पर
शिव महा पुरान की वाइविय सहीता उत्तरखन की एक कथा
और तीस्वा अध्या यहाँ पर समाप्त होता है
तो सिनही के साथ बोलिये
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै
आदर और भक्ती के साथ बोलिये
ओम नमः शिवाय