Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये
प्रिय भगतों,
शीशिव महापुरान के बायविय संहिता उत्तरखंड की अगली कथा है
गुरु से मंत्र लेने तथा उसके जप करने की विधी
पाँच परकार के जब तथा उनकी महिमा
जब में वरजनिये बातें,
सदाचार का महित्तव,
आस्तिकता की पशंचा,
तथा पण्चाक्षर मंत्र की विशेष्ता का वर्नन
तो आईये भक्तों आरमब करते हैं इस कथा के साथ
14 का अध्याय
प्रवाद्याय
महादेव जी कहते हैं
हे वरानुने
आज्या हीन,
क्रिया हीन,
शद्धा हीन तथा विधी के पारणार्थ आवशक दक्षणा से
हीन जो जप किया जाता है वह सदा निश्वल होता है।
जिरा स्वरूप भूत मंत्र यदि आज्या सिद्ध,
क्रिया सिद्ध,
और शद्धा सिद्ध होने के साथ ही दक्षणा से भी युक्त हो,
तो उसकी सिद्धी होती है और उससे महान फल प्राप्त होता है।
तो गुरु को भक्ति भाव से हाथी,
खोड़े,
रत्र,
रत्न,
शेत्र,
और ग्रह आधी अर्पित करें। जो अपने लिए सिद्धी चाहता हो,
वह धन के दान में करपनता ना करें। तद अंतर सब सामक्रियों
सहित अपने आपको गुरुजी की सेवा में अर्पित कर दें�
इस तरह सन्तुष्ट हुए गुरु अपने पूजक शिश्यों को,
जो एक वर्ष तक उनकी सेवा में रह चुका हो,
गुरु की सेवा में उच्छा रखने वाला हो,
एहंकार रहित हो,
और उपवास पूर्वक स्नान करके शुद्ध हो गया हो।
पुनहें विशेश शुद्धी के लिए पून कलश में रखे हुए
पवित्र द्रव्युक्त मंत्र शुद्ध जल से नहला कर,
चंदन, पुष्पमाला,
वस्तोर आबूशनों द्वारा
अलंक्रित करके उसे सुन्दर वेश भूशा से विभूशित करें।
तद पशात शिष्च से ब्राह्मनों द्वारा
पुन्याह वाचन और ब्राह्मनों की पूजा
करवा कर समुद्र तथ पर नदी के किनारे,
कूशाला में,
देवाले में,
किसी भी पवित्र इस्थान में अथवा घर में सिध्धी रायक काल आने पर
शुभ तिती,
शुभ न
शिष्च को अनुग्रह पूर्वक विधी के अनुसार मेरा ज्यान दे,
एकान्त इस्थान में अत्यंत प्रसंज्चित हो,
उच्छ स्वर से
हम दोनों के उस उत्तम मंत्र का शिष्च से भली भाती उच्छारन कराएं,
बारंबार उच्छारन कराकर
शिष्च को इस प्रकार
प्रिये हो,
इस तरहें गुरु शिष्च को मंत्र और आज्या परदान करें
इस प्रकार गुरु से मंत्र और आज्या पाकर
शिष्च एकाक्रिचित हो संकल्प करके
पुरशचरन पूर्वक प्रति देन उस मंत्र का जप करता रहें,
वे जब तक जीये तक तक
अनन्य भावसे तत्परता पूर्वक नित एकहजार आठ मंत्रों का जप किया करें,
जो ऐसा करता है वे परमगती को प्राप्त होता है,
जो प्रति दिन सैयम से रहकर
केवल रात में भोजन करता है
और मंत्र के जितने अक्षर हैं उतने लाख का चोगणा जप
आधर पूर्वक पूरा कर देता है,
वे पूरशचरनिक
कहलाता है,
वो पूरशचरन करके परते दिन जप करता रहता है,
उसके समान इस लोक में दूसरा कोई नहीं है,
वे सिद्धी दायक सिद्ध हो जाता है,
साधक को चाहिये कि वे शुद्ध देश में इसनान करके सुन्दर आसन पांध कर,
अपने हिर्दे में तुम्हारे साथ मुझ शिव का
और अपने गुरु का चिंतन करते हुए,
उत्तर या पूर्वर की ओर मुख किये, मोन भाओ से बैठे,
चित को एकागर करे,
तथा देहन पलावन आदी के द्वारा पाँचो तत्तों का शोधन करके,
मंत्र का न्यास आधी करे,
इसके बाद सकली करन की क्रिया संपन्य करके,
प्रान और अपान नियमन करते हुए हम दोनों के स्वरूप का ध्यान करे,
और विध्यास्थान अपने रूप,
रिशी,
चंद,
देवता,
बीज,
शक्ती तथा मंत्र के वाच्यार्थ रूप,
मुझ परमिश्वर का स्महन करके,
पंचाक्ष्री का जप करे,
मानस जप उठ्तम है,
उपान्शु जप मत्ध्यम है,
तथा वाचिक जप,
उससे निम्न को�
जप वाचिक करता है,
जिस जप में केवल जिव्या मात्र हिलती है,
अत्वा बहुत धीरे स्वर्ज से अक्षरों का उठ्चारन होता है,
तथा जो दूसरे के कानों में पढ़ने पर भी उन्हें सुनाय नहीं देता,
ऐसे जप को उपान्शु कहते हैं.
जिस जप में अक्षर,
पंग्ति का एक वर्ण से दूसरे वर्ण का,
एक पद्ध से दूसरे पद्ध का,
तथा शब्द और आर्थ का मन के द्वारा बारंबार जिन्तन मात्र होता है,
वह मानस जप कहलाता है.
वाचिक जप एक गुना ही फल देता है,
उपान्शु जप
सो गुना फल देने वाला बतया जाता है,
मानस जप
फल सहस्त गुना कहा गया है,
तथा सगर्ब
जप उससे सो गुना अधिक फल देने वाला है.
प्रानायाम पूर्वक जो जप होता है,
उसे सगर्ब जप कहते हैं,
अगर्ब जप में भी आदी और अंत में प्रानयाम कर लेना शीष्ट बतया गया है.
मंत्रार्थवेद्धा बुद्धिमान साधक,
प्रानायाम करते समय 40 बार मंत्र का इसमन कर ले,
जो ऐसा करने में असमर्थ हो,
वे अपने शक्ती के अनुसार जितना हो सके,
उतनी मंत्रों का मानसिक जप कर ले,
पाँच,
तीन अथवा एक बार अगर्व या सगर्व प्रानयाम करें,
इन दोनों में सगर्व प्रानयाम शीष्ट माना गया है.
सगर्व की अपिक्षा भी
ध्यान सही जब्द सेस्त गुणापफल देने वाला कहा जाता है.
इन पाँच प्रकार के जबों में से
कोई एक जब अपनी शक्ती के अनुसार करना चाहिए.
अंगुली से जब की गण्णा करना एक गुणा बताया गया है.
रेखा से गण्णा करना आठ गुणा उत्तम समझना चाहिए.
पुत्रजीव
जीया पोता के बीजों की माला से गण्णा
करने पर जब का दस कुणा अधिक फल होता है.
शło शन्ख के मनकों से सो गुुना। मूँगे
से हजार गुणा। इस्वतिक मनी की माला से
दस हजार गुणा। मोतियों की माला से लाख
गुणा। पदमाक् milligrams ते डसलाख गुणा।
लाक्योंगुन पद्माक्षर से ढस लाख गुना,
और स्वण के बने हुए मनकों
से घर्णा करने पर गोटी गुना अधिक फल पताया गया है।
कुष्की गाउट से
तथा रुद्राक्ष से घर्णा करने पर अनन्त गुने फल की प्राप्ति होती है.
पिस्तीदाइनी और पचीज़ तानों की माला मुक्तिदाइनी होती है।
पन्द्रह रुद्राक्ष की बनी हुई माला
अभिचार कर्म में फलदायक होती है।
जब कर्म में अंगूठे को
मोक्षदायक समझना चाहिए और तरजणी को शत्रुनाशक,
मध्यमा धन देती है और अनामिका शान्ति प्रदान करती है।
108 दानों की माला उठ्तम उठ्तम मानी गई है। सो दानों
की माला उठ्तम और 50 दानों की माला मध्यम होती है।
54 दानों की माला मनोहार्णी एउम् शीष्ट कही गई है।
इस तरहें की माला से जब करें,
नहीं जब किसी को दिखाएं नहीं।
अनश्ठिका,
अंगुली अक्षर्णी
जब के भल को ख्षरित नश्ठ ने करने वाली मानी गई है।
तो इसलिए जब करम में शुब है,
दूसरी अंगुली के साथ अंगुष्ठ द्वारा जब करना चाहिए।
क्योंकि अंगुष्ठ के बिना किया हुआ जब निश्वल होता है।
घर में किये हुए जब को समान या एक गुना समझना चाहिए।
जब को पवित्र वन या उध्धान में किये
हुए जब का फ़ल सहस्त गुना बताया गया है।
पवित्र परवत पर तस हजार गुना,
नदी के तटपट
लाग गुना,
धेवाल्य में कोटी गुना,
और मेरे निकट किये हुए जब को अनंत गुना कहा गया है।
सूर्य, अगनी, गुरू,
चंद्रमा, धीपक,
जल,
ब्रामन और गौँँ के समीप किया हुआ जब शेष्ट होता है।
पूर्वा भिमुक्ष किया हुआ जब वशी करन में और दक्षना भिमुक्ष
जब अविचार कर्म में सभलता प्रदान करने वाला है।
वश्चिमा भिमुक्ष जब को धन दायक चानना चाहिए
और उत्रा भिमुक्ष जब शान्ती दायक होता है।
सूर्य,
अगनी,
ब्रामन,
देवता तथा अन्शेष्ट पुर्षों के समीप
उनकी ओर पीठ करके जब नहीं करना चाहिए।
दिर पर पगडी रखकर,
कुर्टा पहिनकर,
नंगा होकर,
बाल खोलकर,
गले में कपडा लपीटकर,
अशुद्ध हात लेकर,
सम्पून शरीर से अशुद्ध रहकर तथा विलाप पूर्वक कभी जब नहीं करना चाहिए।
जब करते समय मध,
छींकना, ठूकना,
जमभाई लेना तथा कुट्टों और नीच पुर्शों की ओर देखना वर्चित है।
इदी कभी वैसा संबह हो जाये तो आच्चमन करें
अथवा तुम्हारे साथ मिरा पारवती सहित शिव का
स्मान्ड करें।
जिया ग्रहे नक्षत्रों का दर्शन करें
अथवा प्रानायाम कर लें।
बिना आसन के बैठ कर सो कर,
चलते चलते अथवा कड़ा हो कर जपना करें।
गली में या सड़क पर,
एपवित्र स्थान में तथा अन्धिरे में भी जपना करें।
पुछ पाउं भैला कर,
कुकुट आसन से बैठ कर,
सवारी या खाट पर जड़ कर अथवा चिन्ता से व्याकुल हो कर जपना करें।
यता शक्ती हो तो उन सब नियोमों का पालन करते वे जब करें। और अशक्त
पुरुष यता शक्ती जब करें। इस विशें में बहुत कहने से क्या लाव।
आचार से मिर्णिये बात सुनो,
सदाचारी मनुष्य शुद्ध भाव से जप और ध्यान करके कल्यान का भागी होता है।
आचार परमधर्म है,
आचार उत्तम धन है,
आचार शेष्ट विध्या है और आचार ही परमगती है।
आचार हीन पुरुष संसार में निन्दित होता है
और परलोक में भी सुख नहीं पाता,
इसलिए सबको आचारवान होना चाहिए।
आचार है परमोधर्म, आचार परमधनम्,
आचार परमाविध्या, आचार परमागति ही,
वेदज्य विद्वानों ने वेद शास्त्र के कतना अनुसार,
जिस वर्ण के लिए जो कर्म विहित बताया है,
उस वर्ण के पुर्शों को उसी कर्म का सम्यक आच्रण करना चाहिए।
वही उसका सदाचार है, दूसरा नहीं,
सदपुर्शों ने उसका आच्रण किया हैं,
इसलिए वेश्द आचार कहलाता है।
सदाचार का भी मूल कारण आस्तिक्ता है।
यदि मनुष आस्तिक हो तो प्रमादा आदी के कारण सदाचार
से कभी भ्रज्ज्ड हो जाने पर भी तूशित नहीं होता।
अतह सदा आस्तिक्ता का आश्रे लेना चाहिए।
जैसे इह लोक में सतकर्म करने से सुख और दुशकर्म करने से दुख होता है,
उसी तरहें परलोक में भी होता है। इस विश्वास को आस्तिक्ता कहते हैं।
सदाचार से हीन,
पतित और अन्त्यज का उध्धार करने के लिए,
कल्युग में पंचाक्षर मंत्र से बढ़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
चलते फिरते,
खड़े होते अत्वा स्वेच्छानुसार कर्म करते हुए,
अपवित्र या पवित्र पुरुष के जब करने पर भी,
यह मंत्र निश्वल नहीं होता है।
अन्त्यज, मूर्ख, मूड, पतित,
मरियाता रहित, और नीच के लिए भी,
यह मंत्र निश्वल नहीं होता है।
किसी भी अवस्था में पड़ा हुआ मनुश्य भी,
यदी मुझ में उत्तम भक्ति भाव रखता है,
तो उसके लिए मंत्र निसंदेह सिद्ध होगा ही।
जो गुरू के उपदेश से नहीं मिला है,
वह मंत्र साध्य होता है।
जो मुझ में,
मंत्र में,
तरहां गुरू में अतिश्य शद्धा रखने वाला है,
उसको मिला हुआ मंत्र किसी गुरू के द्वारा साधित हो या असाधित
सिद्ध होकरी रहता है।
इसमें संचे नहीं है,
इसलिए अधिकार की द्रश्टी से
विगन युक्त होने वाले दूसरे मंत्रों को त्याग कर
विद्वान पुरुष,
साक्षात परमा विध्या पंचाक्ष्री का आश्रे लें।
वसिद्ध हो की एक हुआ, वसिद्ध देता पर,
वसिद्ध हो चीज़ागा की देख जाता है,
यहाई इन सब मंत्रों के लिए भी है।
सब मंत्रों के जो दोश हैं,
वे इस मंत्र में संभव नहीं है।
क्योंकि यह मंत्र जाती आदी के अपेक्षा न रख कर प्रवत्त होता है।
अपनी चोटे-चोटे तुछ्छे फ़लों के लिए सहसा
इस मंत्र का विनियोग नहीं करना चाहिए।
क्योंकि यह मंत्र महान फ़ल देने वाला है।
यदुननन,
इस प्रकार तिशूल धारी महादेव जी ने तीनों लोकों
के हित के लिए साक्षात महादेवी पार्वती से
इस पंचाक्षर मंत्र की विधी कही थी। जो एकागर्चित
हो भक्ती भाव से इस प्रसंग को सुनता या सुनाता है,
वे सब पापों से मुक्त हो, �
बोली शिवशंकर भगवाने की जैये। ओम नमः शिवाय।
ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय।