Nhạc sĩ: Traditional
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बोले शिवशंकर भगवाने की
जए!
प्रिये भगतों
चिश्यु महा पुरान वायविय संहिता उत्तरखंड की अगली कता है
पंचाक्षर मंत्र की महिमा
उसमें समस्त वाढ्यम की स्तिति
उसकी उपदेश परंपरा
देवी रूपा
पंचाक्षर विध्या का ध्यान उसके समस्त और व्यस्त
अक्षरों के रिशी छंद देवता बीज शक्ती तथा
अंग न्यास आधी का विचार
तो आईये भकतों आरम्बर करते हैं इस कथा के साथ तेरुमा अध्याय
देवी बोली हे महिश्वर
दुरजय दुरलग्य एवं कलुशित कलेकाल में जब सारा
संसार धर्म से विमुख हो पाप में अंधकार से
आच्छादित हो जाएगा
वर्ण और आश्रम सम्मंधी आचार नश्ट हो जाएगे
धर्म संकट उपस्तित हो जाएगा
सबका अधिकार
जाएगा उस समय उपदेश के प्रणाली नश्ट हो
जाएगी और गुरु शिष्य की परंपराबी जाती रहेगी
एसी परिस्थती में आपके भग
किस उपाय से मुक्त हो सकते हैं
महादेव जी ने कहा
हे देवी कलीकाल के मनुष्य मेरी परम मनूरम पंचाक्ष्री विध्
जो कतनीयें और अचिंतनीयें हैं उन मानसिक,
वाचिक और शारीलिक तोषों से जो दूशित,
कृतग्न,
निर्दै, छली, लोभी और कुटिलचित हैं
वे मनुष्य भी यदि मुझमे मन लगाकर मेरी पंचाक्ष्री विध्या का जप करेंगे
उनके लिए वे विध्या ही संसार भैसे तारने वाली होगी
एदेवी मैने बारंबार प्रतिग्या पूर्वग
यह बात कही है कि भूतल पर मेरा पतित हुआ भक्त भी इस
पंचाक्ष्री विध्या के द्वारा बंधन से मुक्त हो जाता है
देवी बोली
एदी मनिश्य पतित होकर सर्वता
कर्म करने की योग्ग नहीं रह जाए
तो उसके द्वारा कियागया कर्म
नर्ग की ही प्राप्ती कराने वाला हुता है
ऐसी दशा में पतित मानव इस विध्या द्वारा कैसे मुक्त हो सकता है
महादेव जी ने कहा
हे सुन्दरी
तुमने यह बहुत ठीक बात पूची है अब इसका उत्तर सुनो
पहले मैंने इस विशय को गोपनीय समझकर अब तक प्रगट नहीं किया था
यदि पतित मनुश्य मोहवश अन्य मंत्रों के उचारण पूर्वक मेरा पूजन करे
तो वे निसंदेह नरक गामी हो सकता है
इन्तु पंचाक्षर मंत्र के लिए ऐसा प्रतिबंध नहीं है
जो केवल जल पीकर और हवा खाकर तप करते हैं
तथा दूसरे लोग जो नानापरकार के वृतों द्वारा
अपने शरीज को सुखाते हें उन्हें इन वृतों
द्वारा मेरे लोख की प्राप्ति नहीं होती
परन्तु जो भक्ति पूर्वक पंचाक्षर मंत्र
से ही एक बार मेरा पूजन कर लेते हैं,
वे भी इस मंत्र के ही परताप से मेरे धाम में पहुँँ जाता हैं।
इसलिए तप यग वरत और नियम पंचाक्षर द्वारा
मेरे पूजन की करोडवी कला के समान भी नहीं है।
ही देवी,
इशान आदी पांच ब्रह्म जिसके हंग हैं,
उस शडखशर या पंचाक्षर मंत्र के द्वारा
जो भक्ति भाव से मेरा पूजन करता है,
वे मुक्त हो जाता है।
मेरा भक्त पंचाक्षर मंतर का उपदेश गुरू से ले चुका हो,
या नहीं,
वे कूड़ को जीत कर इस मंतर के द्वारा मेरी पूजा किया करें।
जिसने मंत्र की दिख्षा नहीं ली है,
उसकी अपेख्षा दिख्षा लेने वाला बुरुष कोटी कोटी गुणा अधिक माना गया है।
अतयह देवी,
दिख्षा लेकर ही मंतर से मिरा पूजन करना चाहीए।
जो इस मंतर की दिख्षा लेकर मैत्री मुदिता करुना
उपेख्षा आधी गुणों से युक्त तथा ब्रह्मचरिय
परायन हो भक्ती भाव से मिरा पूजन करता है,
वे मेरी समता प्राप्त कर लेता है।
इस विशय में अधिक कहने से क्या लाफ।
मेरे पंचाक्षर मंतर में सभी भक्तों का
दिकार है। इसलिए वे स्चेष्ट तर्प मंतर है।
पंचाक्षर के प्रभाव से ही लोग,
वेद,
महरशी, सनातान धर्म,
देवता
तथा यह संपून जगत ठिके हुए हैं।
देवी,
परले काल आने पर जब चराचर जगत नश्ट हो जाता है और
सारा प्रपंच प्रकर्ती में मिलकर वही लीन हो जाता है,
तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ,
दूसरा कोई नहीं रहता। उस समय समस्त देवता और
शास्त्र पंचाक्षर मंतर में स्थित होते हैं�
तत्पश्यार त्रिवणात्मक मूर्तियों का संगार करने वाला अवान्तर
परले होता है। उस परले काल में भगवान नारायन देव माया
में शरीर का अश्चले जल के भीतर शेषःया पर शेहन करते हैं।
तब उन्होंने पहले अमितेजस्वी दस महरक्षियों की स्विश्च्टी की,
जो उनके मानस्पुत्र कहे गए है।
अन पुत्रों की सिद्धी बढ़ाने के लिए पिताम है ब्रह्मा ने मुझसे कहा,
ए महादेव,
ए परमिश्वर,
मेरे पुत्रों को शक्ति पढ़ान कीजिए।
उसके इस्परंकार प्रात्ना करिए पाँचमुग् महाणे वाले मैं,
ब्रह्मा जी के पंख से नकह q,
उसके इकीाइकक नकच कैये,
पांच अकतें हूं को खूद्या थे You guide
them by swearing 對नेनेत्याकेकानीन,
बढ़ा नमि कियने enlightened towards Eugene
in full hormone व Soul of Guru हैं ए पतशी�
तर पश्चात उन्होंने अपने पुत्रों को यथावत रूप
से उस मंत्र का और उसके अर्थ का भी उपदेश दिया।
तर शात लोग पितामें ब्रह्मा से उस मंत्र रत्न को
पाकर मेरी आराधना की च्छा रखने वाले उन मनुश्चोंने
उनकी बताई हुई पद्रती से उस मंत्र का चप करते हुए मेरु के रमणिये
शिकर पर मुझवान परवत के निकटे क सहस्त्र दिव वर्षों तक तीवर
यह श्रीवान मुझवान परवत सधाही मुझे प्रिय है
और मेरे भक्तोंने निरंतर उसकी रख्षा की हैं
उन रिशियों की भक्ती देखकर मैंने ततकाल उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया
और उन आरिय रिशियों को पंचाक्षर मंत्र के रिशी चंद,
देवता,
बीज,
शक्ती,
कीलक,
शडंगन्यास,
दिगबंद और विनियोग इन सब भातों का पूर्म रूप से ज्यान कराया
आदी में नमह पद का प्रियोग करना चाहिए,
उसके बाद शिवाय पद का यही वै पंचाक्षर विद्धा है,
जो समस्त शुत्यों की सिरमोर है तता
सम्पून शब्द समदाय की सनातन बीज रूपनी है
इसलिए मेरे ही स्वरूप का प्रितिपादन करने वाली है,
इसका एक देवी के रूप में ज्यान करना चाहिए,
इस देवी की अंगकांती तपाय हुए स्वण की समान है,
इसके पीन पयोधर ऊपर को उठे हुए है,
यह चार भुजाओं और तीन नेत्रों से सुशोबित है
इसके अंगों में पाँच प्रकार के वर्ण हैं,
जिनकी रश्मियां प्रकाशित हो रही हैं,
वे वर्ण हैं,
पीत,
क्रेश्न,
धूम्र,
स्वर्णीम तथा रत,
इन वर्णों का यदि प्रितक प्रितक प्रियोग हो
तो इन्हें बिंदु और नाद से विभूशित करना चाह
रूप हैं तथा भी उनमें दूसरे अक्षर को
इस मंत्र का बीच समझना चाहिए,
धीर्ग स्वर्व पूर्वक्ड जो चोथा वर्ण हैं उसे
कीलक और पाँचवे वर्ण को शक्ती समझना चाहिए,
इस मंत्र के वामदेव रिशी हैं और पंक्ती छंद है,
हे वारणनी मैं
पंक्ती छंद है, शिवो देवता
मामबीजम यमशक्ती वामकीलकम सदाशिवक्रपाप्रसादो
पलब्धी पूर्वकम खिलपुर्शार्थ सिद्धये जपे विनियोगः।
शिव पुराण के इस वर्ण की अनुसार यही
विनियोग वाक्य है,
हे वरारोहे,
गोतम, अत्री, विश्वामित्र, अंगिरा और भरद्वाज,
ये नकारादी वर्णों के क्रमशेह रिशी माने गए हैं,
जायत्री,
अनुष्टुप,
तृष्टुप,
व्रहती, अविराध,
ये क्रमशेह पाँचो अक्षरों के चंद हैं,
इंद्र,
रुद्र, विश्णू,
ब्रह्मा और स्कंध,
ये क्रमशेह उन अक्षरों के देवता हैं,
पराणने,
मेरे पूर्व आधी चारों दिशाओं के तथा उपर के पाँचो
मुख इं नकारादी अक्षरों के क्रमशेह स्थान हैं,
इस पंचाक्र मंतर के मोल विध्या शिव,
शेव,
सूत्र,
तत्हा पंचाक्षर नाँ जाने,
वा नेत्र है और यकार
अस्तर है।
इन वर्णों के अंत में अंगों के चत्रियंत रूप के साथ क्रमश है।
नमहा, श्वाहा,
वशट,
हुम,
वोशट और फट जोडने से अंग न्यास होता है।
अंग न्यास वाक्य का प्रियोग यों समझना चाहिए।
ओम् ओम् हिर्दयाय नमहा,
ओम् नम् शिर्से श्वाहा,
ओम्मं शिखाये वशट,
ओम् शिम् कवचाये हुम्,
इसी तरहें कर्ण्यास का प्रियोग है। यथा,
विनियोग में जो रिशी आदी आए हैं,
उनका न्यास इस त्रकार समझना चाहिए।
हे देवी,
अर्थात,
नमः शिवाय के इस्थान में,
नमः शिवाय,
कहने से ये देवी का मूल मंत्र हो जाता है।
अतेह साधक को चाहिए कि वैस मंत्र से,
मन,
वाणी और शरीर के भेद से हम दोनों का पूजन,
जप और होम आदी करें। मन आदी के भेद से ये पूजन तीन प्रकार का होता है,
मानसिक,
वाचिक और शारिदिक।
हे देवी,
जिसकी जैसी समझ हो,
जिसे जितना समय मिल सके,
जिसकी जैसी बुद्धी,
शक्ती,
संपत्ती,
उठसा एवं योगता और प्रीती हो,
उसके अनुसार वै शास्त्र विधी से,
जब कभी,
जहां कहीं,
अथवा जिस किसी भी साधन द्वारा मेरी पूजा कर सकता है,
�
मुझे मन लगा कर जो कुछ करम या
विध करम से किया गया हो,
वै कल्यान कारी तथा मुझे प्रिय होता है,
तथापी जो मेरे भक्त हैं और कर्म करने में
अत्यंत विवश अर्थात असमर्थ नहीं हो गए हैं,
उनके लिए सब शास्त्रों में मैंने ही नियम बनाया है,
उस न
जिसके बिना मंत्र जप निश्पल होता है और
जिसके होने से जप करम अवश्य सपल होता है,
बोली शिवशंकर भगवाने की जए। प्रिये भक्तों,
इस प्रकार यहां पर शिवशंकर बगवाने की
जेय। और आधर उसम्मान के साथ ओम नमः शिवाय।
ओम नमः शिवाय।