Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवान की जै!
प्रिय भक्तों,
श्रीशिव महापराण के शत्रुद्र सहिता की अगली कथा है
शिवजी के द्वादश जोतिर लिंग अवतारों का सेविस्तार वर्णवन.
भक्तों, बहुत आनन्द आने वाला है.
तो आईए आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ 42 मा अध्याय.
नन्दिश्वर जी कहते हैं की,
हे मुने,
अब तुम सर्वव्यापी भगवान शंकर के बाहरे अन्य
जोतिर लिंग स्वरूपी अवतारों का वर्णन शवन करो.
जो अनेक परकार के मंगल करने वाले हैं,
उनके नाम ये हैं.
सवरास्थमे सोमनात,
श्रीशहल पर
मल्ली कारजन,
उज्जैनी में महाकाल,
ओमकार में ओमरिश्वर,
हिमाल्या पर केदार,
दाकिनी में भीमशंकर,
काशी में विश्वनात,
गोमती के पाद, पर परवाद पर प
ज़िनादान के तट पर त्रंबकेश्वर,
चिताभूमी में वैधनात,
दारूकवन में नागेश्वर,
सेतुबंद पर रामेश्वर,
और शिवाले में गुश्मेश्वर,
हेमुने,
परमात्मा शम्भु के ये ही वेबार है, अवतार है.
पूजन और इसपर्श करने से मनुष्यों को
सब प्रकार का अनन्द प्राप्त होता है.
हेमुने,
उनमें पहला अवतार सोमनात का है,
यह चंद्र्मा के दुख का विनाश करने वाला है,
इनका पूजन करने से क्षे और कुष्ठ आधी रोगों का नाश हो जाता है.
परमात्मा शिव के सोमिश्वर नामक
शिवावतार सोराष्ट नामक पावन प्रदेश में लिंग रूप से इस्थित है.
पूर्वकाल में चंद्रमा ने इसकी पूजा की थी.
अनि संपून पापों का विनाश करने वाला
एक चंद्रकुंड है,
जिसमें स्नान करने से बुधिमान मनुष्य संपून रोगों से मुक्त हो जाता है.
पात्माशिव के सोमिश्वर नामक महा लिंग का धर्शन करने से मनुष्य
पाप से छूट जाता है और उसे भोग और मोक्ष सुलब हो जाते हैं.
पर वो भगतों को अभीश्ट फल परदान करने वाला है.
भगवान शिव परम प्रसन्नता पूर्वक अपने निवास भूत
केलास किरी से लिंग रूप में शी शैल पर पधारे हैं.
पुत्र प्राप्ती के लिए उनकी स्तुती की जाती है.
यह जो दूसरा जूतर लिंग है,
वह दर्शन और पूजन करने से महा सुख कारक होता है.
और अंत में मुक्ति भी प्रदान कर देता है.
इसमें तनिक भी संचे नहीं है.
हे तात,
शंकर जी का महाकाल नामक तीसर अवतार
उज्जैनी नगरी में हुआ.
वह अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है.
एक बार रत्नमाल निवासी भूशन नामक असुर,
जो वैदिक धर्म का अविनाशक,
विप्रदोही तथा सब कुछ नष्ट कर देने वाला था,
उज्जैनी में जा पहुँचा.
तव वेद नामक ब्राह्मन के पुत्र ने
शिव जी का ध्यान किया,
फिर तो शंकर जी ने तुरंद ही प्रकठ होकर
हुंकार द्वारा उस असुर को भस्म कर दिया.
तद पशाद अपने भक्तों का
सर्वधा पालन करने वाले शिव देवधाओं के प्रार्थना करने पर
महाकाल नामक जुदे लिंग स्वरूप से वही प्रतिश्ठित हो गए.
इन महाकाल नामक लिंग का प्रयत्न पूर्वक दर्शन और पूजन
करने से मनुश्य की सारी कामणाये पूर्ण हो जाती हैं
और अंत में उसे परम गती प्राप्त होती है.
परम आत्म बल से संपन्य परमिश्वर शंभुने
भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाला
ओमकार नामक चोथा उतार धारन किया हैं.
हे मुने विगनगिरी ने भक्ती पूर्वक विधी विधान
से शिव जी का पार्थियो लिंग स्थापित किया.
उसी लिंग से विगन का मनुरत पूर्ण करने वाले महादेव प्रगट हुए.
तब देवताओं के प्रार्थना करने पर भुक्ती मुक्ती के प्रदाता भक्त वच्चल
लिंग रूपी शंकर वहां दो रूपों में भख्त हो गए.
हे मुनिश्वर,
उनमें एक भाग ओमकार में,
ओमकारिश्वर नामक उत्तम लिंग के रूप में प्रतिश्ठित हुआ,
और दूसरा पार्थियो लिंग परमिश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ.
हे मुने,
इन दोनों में जिस किसी का भी दर्शन,
पूजन किया जाय,
उसे भक्तों की अफिलाशा पून करने वाला समझना चाहिए.
महा मुने,
इस परकार मैंने तुम्हें इन दोनों महा
दिव्य जोतरिलिंगों का वर्णन सुना दिया.
परमात्मा शिव के पांचमे अवतार का नाम है केदारेश.
यह केदार में जोतरिलिंग स्वरूप से इस्तित हैं.
हे मुने,
वहां श्री हरी के जो नर नारायन नामक अवतार हैं,
उनके प्रार्थना करने पर शिव जी हिमगिरी के केदार शिखर परिस्थित हो गए.
वे दोनों उस केदार श्वरूप की नित्य पूजा करते हैं.
वहां शंभु दर्शन और पूजन करने वाले बक्तों को अभिष्ठ प्रदान करते हैं.
हे तात,
सरविश्वर होते हुए भी शिव इस खंड के विशेश रूप से स्वामी है.
शिव जी का यह अवतार सम्पून अभिष्ठों को प्रदान करने वाला है.
महा प्रहुषंबु के छटे अवतार का नाम भीम शंकर है.
इस अवतार में उन्होंने बड़ी बड़ी लिलाएं
की हैं और भीमासुर का विनाश किया है.
काम रूप देश के अधिपती राजा सुदक्षिन शिव जी के भक्त थे.
भीमासुर उन्हें पीड़ित कर रहा था.
तब शंकर जी ने अपने भक्त को दुख देने वाले
उस अदभुद असुर का वद करके उनकी रक्षा की.
फिर राजा सुदक्षिन के प्रार्थना करने पर स्वहम शंकर जी
डाकनी में भीम शंकर नामक जोतिल लिंग स्वरूप से स्थित हो गए.
हे मुने,
जो समस्त ब्रह्मान सरूप तथा भोग मोक्ष का प्रदाता है,
वह विगनिश्वर नामक साथव आवतार काशी में हुआ.
मुक्तिदाता सिद्ध सरूप स्वहम भगवान शंकर अपनी
पुरी काशी में जोतिल लिंग सरूप में स्थित हैं.
विश्णवादी सभी देवता,
कैलास,
पती,
शिव,
और भैरो,
नित्य उनकी पूजा करते हैं.
जो काशी विश्वनात के भगत हैं और नित्य उनके नामों का जप करती रहते हैं,
वे कर्मों से निर्लिप्त होकर
कैवल पद के भागी होते हैं.
चंद्रशेखर शिव का जो त्रियंबक नामक आठम अवतार है,
वे गोतम विशी के प्रार्थना करने पर गोतमी नदी के तट पर प्रगट हुआ था.
गोतम की प्रार्थना से उन मुनी को प्रसन्य करने के लिए,
शंकर जी प्रेम पूर्वक जोतिरलिंग स्वरूप से वहां अचल होकर इस्थित हो गए.
उन महेश्वर का दर्शन और इस्पर्श करने
से सारी कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं.
तत्वशात मुक्ती भी मिल जाती है.
शिव जी के अनुग्रह से शंकर प्रिया परमपावनी गंगा
गोतम के स्नेह वश्व वहां गोतमी नाम से प्रवाहित हुई.
उनमें नवा अवतार वैदनात नाम से प्रसिद्ध है.
इस अवतार में बहुत सी विचत्र लिलायें करने वाले भगवान शंकर
रावन के लिए आविर्भूत हुए थे.
उस समय रावन द्वारा अपने लाये जाने को भी कारण मान कर महिश्वर
जोतिर्लिंग स्वरूप से चिता भूमी में प्रतिष्ठित हो गए.
उस समय से वे तुलोकी में
वैदनातिश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए.
वे भकती पूर्वक दर्शन और पूजन करने वालों
उन्हें यह भुकती मुक्ती का भागी बना देता है.
दस्वा नागिश्वर अवतार कहलाता है.
यह अपने भकतों की रक्षा के लिए प्रादरुभूत हुआ था.
यह सदा दुष्टों को दंड देता रहता है.
इस अवतार में शिवजी ने दारूक नामक राक्षस को जो धर्म घाती था
मार कर वैश्चों के स्वामी अपने सुप्रिये नायक भकत की रक्षा की थी.
तद पशात बहुत सी लिलाएं करने वाले वे परादपर प्रभू शंभू
लोकों का उपकार करने के लिए अम्भिका सहित
जोतिर लिंग स्वरूप से इस्थित हो गए.
हे मुने नागेश्वा नामक उस शिवलिंग का दर्शन तथा अरचन करने से
राशी के राशी महान पातक तुन्त विनिष्ठ हो जाते हैं.
हे मुने शिव जी का ग्यारमा अवतार रामिश्वर आवतार कहराता है.
वै श्रीराम चंद्र का प्रिये करने वाला है.
उसे श्रीराम ने ही स्थापित किया था.
जिन भक्तवत सलशंकर ने परमपरसन्य होकर
श्रीराम को प्रेम पूर्वक विजय का वरदान दिया,
वे ही लिंग स्वरूप में आविरभूत हुए.
मुने तब श्रीराम की अत्यंत प्रार्थना करने पर
वे सेतु बंध पर जोते लिंग रूप से स्थित हो गए.
उस समय श्रीराम ने उनकी भली भाती सेवा पूजा की.
रामिश्वर की अद्भूद महिमा की
भूतल पर किसी से तुलना नहीं किया सकती.
वे सरवधा भुक्ती,
मुक्ती की पुरधाईनी तथा भक्तों की कामना पूर्ण करने वाली हैं.
जो मनुश्य सद्भख्ती पूर्वक रामिश्वर लिंग को गंगा जल से इस्धान कराएगा,
वे जीवन मुक्त ही है.
वे इस लोक में जो देवताओं के लिए भी दुर्लब है,
ऐसे संपूर्ण भोगों को भोगने के पच्चाथ
फरम ज्ञान को प्राप्त होगा,
फिर उसे कैवल्य मोक्ष मिल जाएगा.
गुश्मिश्वर अवतार शंकर जी का बार्मा अवतार है.
वे नाना प्रकार की लीलाओं का करता
भक्त वच्चल तथा गुश्मा को आनंद देने वाला है.
मुने गुश्मा का प्रिय करने के लिए भगवान शंकर दक्षन दिशा
में इस्थित देवशहल के निकटवर्ती एक सरोवर में प्रकट हुए.
मुने गुश्मा के पुत्र को सुधेहने मार डाला था.
उसे जीवित करने के लिए गुश्मा ने शिवजी की आराधना की.
तव उनकी भक्ती से सन्तुष्ट होकर भक्त
वच्चल शंभु ने उनके पुत्र को बचा लिया.
तदंतर कामनाओं के पूरक शंभु गुश्मा की प्रात्ना से
उस तडाग में जोतिर्लिंग स्वरूप से इस्थित हो गई.
उस समय उनका नाम गुश्मिश्वर होई.
जो मनुष्य उस शिवलिंग का भक्ती पूरवक दर्शन तथा पूजन करता है,
वह इस लोक में संपूर्ण सुखों को भोग कर अंतमें मुक्तिलाब करता है.
सनत्कमार जी,
इस प्रकार मैंने तुमसे इस
12 दिव्य जोतिर्लिंगों का वर्णन किया.
ये सभी भोग और मोक्ष के प्रदाता है.
जो मनुष्य जोतिर्लिंगों की इस कथा को पढ़ता अथ्वा सुनता है,
वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है,
तथा भोग मोक्ष को प्राप्त करता है.
इस प्रकार मैंने इस
शत्रुद्र नाम की सहीता का वर्णन कर दिया.
यह शिव के सो अवतारों की उत्तम कीर्ति से संपन्य
तथा संपूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली है.
जो मनुष्य से नित्त,
समाहित चित्त से पढ़ता अथ्वा सुनता है,
उसकी सारी लालसाएं पूर्ण हो जाती हैं
और अंत में उसे निष्चही मुक्ती मिल जाती है.
तो बोलिये शिवशंकर भगवान की जै!
प्रीय भग्तोँ
इस प्रकार यहांपर शिशिवमहापुरान के शत्रुद्रसंहिता की यह कथा
और 42ओं अध्याय हौपर समाप्त होता है.
बोलिये शिवशंकर भगवान की जै!
तो प्रिय भक्तों
इस प्रकार यहां पर शिश्यु महा पुरान के
शत्रुद्र सहिता की कथायें भी समाप्त होती हैं
तो स्नहे के साथ बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै!
ओम् नमः शिवाय!