Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की
जैये
प्रीय भगतों
शिवशिव महा पुरान के शत्रुद्र सहिता की अगली कता है
किराता अवतार के प्रसंग में मूक नामक दैत्य का
शूकर रूप धारन करके अर्जुन के पास आना
शिवजी का किरात वेश में प्रगत होना और अर्जुन
तथा किरात वेश धारी शिव द्वारा उस दैत्य का वध।
तो आईए भगतों आरंब करते हैं इस कथा के साथ उन्तालिस्मा अध्याय।
नन्दिश्वर जी कहते हैं
हे मुने तद अंतर अर्जुन व्यास जी के उपदेशानुसार
विधी पूर्वक स्नान तथा न्यास आधी करके परम
भक्ती के साथ शिव जी का ध्यान करने लगे।
उस समय वे एक शेष्ट मुनी की भाती एक ही पहर के बल पर खड़े हो
सूर्य की ओर एक आगरतर्श्टी करके खड़े-खड़े मंत्र चप कर रहे थे।
इस प्रकार वे परम प्रेम पुर्वक मन ही मन शिव जी का इसमहन करके शम्भु
के सर्वतक्रिश्ट पंचाक्षर मंत्र का चप करते हुए घोर तप करने लगे।
उस तपस्या का ऐसा उत्किष्ट तेज प्रगत हुआ जिससे देवगण विश्मित हो गए।
प्रगत पर जिससे देवगण विश्मित पर जिससे देवगण विश्मित हो गए।
प्रगत पर जिससे देवगण विश्मित हो गए।
तभुदार बुद्धी एवं प्रसन्न आत्मा महाप्रभुः शिवजी
उस वचन को सुनका ठठाकर हस पड़े
और देवताओं से इस परकार बोले।
देवताओं
अब तुम लोग अपने इस्थान को लोड़ जाओ। मैं सब तरहें से तुम लोगों का कारिय
संपन्य करूंगा। यह बिलकुल सत्य है। इसमें संदेह की गुञ्जाईश नहीं है।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने,
शम्भु के उस वचन को सुनकर
देवताओं को पूर्णते अनिश्चे हो गया,
तब वे सब अपने इस्थान को लोड़ गये।
इसी समय मूख नामक दैत्य शूकर का रूप धारन करके वहां आया।
हे विप्रेंद्र। उसे उस समय मायावी दुरात्मा
दुरियोधन ने अर्जुन के पास भेजा था।
तो यह जहां अर्जुन इस्थित थे,
उसी मार्ग से अत्यंत वेग पूर्वक पर्वत शिखरों को घाड़ता,
वरख्षों को छिन भिन्य करता तथा अनेक परकार के शब्द करता हुआ आया।
पर अर्जुन की भी दुश्टी उस मूख नामक असुर पर पड़ी,
वे शिवजी के पाध पधों का स्मण करके
यूँ अचार करने लगे।
अर्जुन ने मन ही मन कहा,
यह कौन है और कहां से आ रहा है?
यह तो क्रूर कर्मा दिखाई पढ़ रहा है।
निश्चय ही है मेरा अनिश्ट करने के लिए आ रहा है। इसमें तनिक भी
संचे नहीं है। क्योंकि जिसका धर्शन होने पर अपना मन प्रसन हो जाए,
वे निश्चय ही अपना हितेशी है। और जिसके दीखने पर मन ब्याकूल हो जाए,
वे शत्रु ही है।
आचार से कुल का,
शरीर से भोजन का,
वारतालाप से शास्त घ्यान का,
और नेत्र से स्नेह का परिच्य मिलता है।
आकार से, चालधाल से, चेष्टा से,
बोलने से तथा नेत्र और मुख के विकार से मन के भीतर का भाव जाना जाता है।
उज्ञल, सरस,
तिर्छे और लाल विद्ध्वानों ने इनका भाव भी प्रतक-प्रतक पतलाया है।
नेत्र, मित्र का सैयोग होने पर उज्ञल,
पुत्र दशन के समय सरस,
कामणीं के प्राप्त होने पर वक्र,
और शत्रु के दीख जाने पर लाल हो जाते हैं।
इस नियम के अनसार इसे देखते ही मेरी सारी इंद्रियां कलुशित हो उठी हैं।
अते है ये निसंदेह शत्रु ही है और मार डालने योग्य है।
इधर मेरे लिए गुरुजी की आज्या भी ऐसी ही है कि राजन,
जो तुम्हें कश्ट देने के लिए उधधत हो,
उसे तुम बिना किसी परकार का विचार किये अवश्य मार डालना।
तथा मैंने इसलिए आयुद्ध भी तो धारन कर खा है। यों
विचार कर अर्जुन बान का संधान करके वहीं डटकर खड़े हो गए।
इसी बीच भक्तवच्चल भगवान शंकर अर्जुन की रक्षा,
उनकी भकती की परिक्षा और इस दैत्य का
नाश करने के लिए शीगर ही वहां पोंचे।
उस समय उनके साथ गणों का यूथ भी था
और वे महान अद्भुत सुशिक्षित भील का रूप धारन किये हुए थे।
उनकी काच बंधी थी और उन्होंने वस्त्रखंडों से इशान ध्वज बान रखा था।
उनके शरीर पर श्वेत धारियां चमक रही थी।
पीट पर बानों से भरा हुआ तरकश बंधा था
और वे स्वेम धनुषबान धारन किये हुए थे।
उनका गण यूथ भी वैसी ही साज सज्जा से युक्त
था। जिस प्रकार शिव भिल राज बने हुए थे। वे सेना अ
वे सेना अवेचर की शब्द से घबरा कर अजन सूचने लगे।
अहू
ये भगवान शिव तो नहीं है
जो यहां शुब करने के लिए पढारे है। क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा सुन
रखा है। पुनहें श्री कर्षन और वैसी ने भी ऐसा सुन रखा है। पुनहें श्री
पुनहें श्री कर्षन और वैसी ने भी ऐसा सुन रखा है।
अथ्वा परशंसा
पंतु शिव भकती से दुखों का विनाश होता ही है।
शंकर अपने भक्तों को चाहे वे पापी हों या पुन्यातमा सदा सुख देते हैं।
यदि कभी वे परिक्षा के लिए भक्तों को कश्ट में डाल देते हैं,
तो अंत में दयालू स्वभाव होने के कारण वे ही उसके सुख दाता भी होते हैं।
फिर तो वे भक्त उसी परकार निर्मल हो जाता है,
जैसे आग में तपाया हुआ सोना शुद्ध हो जाता है।
तब तक बान का लक्ष भूत वै सूवर वहाँ पहुंचा,
उदर शिव जी भी उस सूवर के पीछे लगे होई दीख पड़े।
उस समय उन दोनों के मद्धे में वै शूकर अद्भुत शिकर
सा दीख रहा था। उसकी बड़ी महिमा भी कही गई है।
तब भक्तवच्छल भगवान शंकर अर्जुन की रक्षा के लिए बढ़े वेक से आगे वढ़े।
उसी समय उन दोनों ने उस शूकर पर बान चलाया।
शिवजी के बान का लक्ष उसका पुछ भाग था और
अर्जुन ने उसके मुख को अपना निशाना बनाया था।
शिवजी का बान उसके पुछ भाग से प्रेवेश करके मुख के
रास्ते निकल गया और शेगर ही भूमी में बिलीन हो गया।
तथा अर्जुन का बान उसके पिछले भाग से निकल कर बगल में ही गिर
पड़ा। तव वह शुकर रूप धारी दैत्य उसी खशन मर कर भूतल पर गिर पड़ा।
उस समय देवताओं को महान हर्ष प्राप्थ हुआ। उन्होंने पहले तो जहज़गार करते
हुए पुष्पों की व्रिष्टी की। फिर वे बारंबार नमस्कार करके इस्तुती करने
लगे। उस समय उन दोनोंने दैत्य के उस क्रूर रूप की ओर दश्टिपात किया। �
विशेश रूप से सुख का अनूभव करते हुए कहने लगे। अहो!
यह स्वेश्ट दैत्य परम अद्भुत रूप धारन करके मुझे मारने
के लिए ही आया था। परंतु शिव जी ने ही मेरी रक्षा की
है। निसंदेह उन परमिश्वर ने ही आज इसे मारने के लिए मे
परंतु शिव धारन के लिए मेरी रक्षा की है।
नमह शिवाय