Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जए!
प्रीय भक्तों,
शिश्यु महा पुरान के शत रुद्ध सहीता की अगली कथा है
अर्जुन और शिवदूत का वार्तालाब
किरात वेश धारी शिवजी के साथ अर्जुन का युद्ध
पहचानने पर अर्जुन द्वारा शिव इस्तुती
शिवजी का अर्जुन को वर्दान देकर अंतर ध्यान हुना
अर्जुन का आश्षम पर लोटकर भाईयों से मिलना
शिक्रिष्ण का अर्जुन से मिलने के लिए वहां पधारना
तो आईए भक्तों आरंब करते हैं इस कथा के साथ 40 और 41 अध्याय की कथा
नन्दीश्वर जी कहते हैं
हे महा घ्यानी हे सनत कुमार जी
अब परमात्मा शिव की उस लीला को शवन करो
जो भक्त वच्चलता से युक्त तथा उनकी द्रडता से भरी हुई है
तद अंतर शिव ने उस बान को लाने के लिए तुरंद्ध ही अपने अनुचर को भेजा
उधर अर्जुन भी उसी निमित वहां आए
इस परकार एक ही समय में रुद्रानुचर तथा
अर्जुन दोनों बान उठाने के लिए वहां आ पहुंचे
तब अर्जुन ने उसे डरा धंका कर अपना बान उठा लिया
यह देख कर उस अनुचर ने कहा
रिशी सम्मत आप क्यों इस बान को ले जा रहे हैं
यह हमारा सायक है
इसे छोड़ दीजिये
भिल्ले राज के उस अनुचर द्वारा
यों कहे जाने पर मुनिश्रेष्ट अर्जुन ने
शंकर जी का इसम्मन किया और इसप्रकार कहा
अर्जुन बोले हे वनेचर
तू बड़ा मूर्ख है
तो बिना समझे बूजे क्या बक रहा है
इस बान को तो मैंने अभी अभी छुड
नाम अंकित है
फिर ये तेरा कैसे हो गया
ठीक है
तेरा कुटिल स्वभाव छूटना कठिन है
नन्दिश्वर जी कहते हैं हे मुने अर्जुन का ये
क्यतन सुनकर भिल्ल रूपी गनेश्वर को हसी आ गई
तव वह रिशी रूप में वर्तमान अर्जुन को यों उत्तर देत
केवल तेरा वेश ही तपस्वी का है क्योंकि सच्चा तपस्वी छल कपट नहीं करता
बहला जो मनुष्य तपस्या में निरत होगा वैं कैसे मिठ्या भाशन करेगा
एवं कैसे छल करेगा
अरे तु मुझे अकेला मत समज तुझे ग्यात
होना चाहिए कि मैं एक सेना का अधिपती हूँ
हमारे स्वामी बहुत से वनचरी भीलों के साथ वहां बैठे
हैं वे विग्रह तथा अनुग्रह करने में सर्वता समर्थ हैं
यह बांड जिसे तुने अभी उठा लिया है उनहीं
का है यह बांड कभी तेरे पास ठिक नहीं सकेगा
हे तापस तु तो अपनी तपस्या का फल नश्ट करना चाहता है
मैंने तो ऐसा सुन रखा है कि चोरी करने
से छल पूर्व किसी को कश्ट पहुचाने से
विश्मे करने से
तथा सत्य का त्याग करने से प्राणी का
तप ख्षीन हो जाता है यह बिल्कुल सत्य है
ऐसी दशा में तुझे अब तप का फल कैसे प्राप्त होगा
उस बान को ले लेने से तु तप से चुत तथा कृतिगन हो जाएगा
क्योंकि निश्चहियत मेरे स्वामी का बान है और
तेरी रखशा के लिए ही उन्होंने इसे छोडा था
इस बान से तो उन्होंने शत्रू को मार
ही डाला और फिर बान को भी सुरक्षित रखा
तु तो महान कृतिगन तथा तपस्या में अमंगल करने भाला है
जब तु सत्य नहीं बोल रहा है
तब फिर इस तप से सिध्धी की अभिलाशा कैसे करता है
अथ्वा यदि तुझे बान से ही प्रयोजन है तो मेरे स्वामी से मांग ले
वे स्वेम इस परकार के बहुत से बान तुझे दे सकते हैं।
मेरे स्वामी आज यहां वर्तमान है,
तु उनसे क्यों नहीं आच्णा करता?
तु तो उपकार का परित्याग करके अपकार करना चाहता है
तथा अभी अभी कर रहा है।
यह तेरे लिए उच्चित नहीं है,
तु चपलता छोड़ दे।
इस पर कुपित होकर अर्जुन ने उससे कई बाते कहीं,
दोनों में बड़ा विवाद हुआ,
अंत में अर्जुन ने कहा,
वंचारी भील,
तु मेरी सार बात सुन ले,
जिस समय तेरा स्वामी आएगा,
उस समय मैं उसे उसका फल चखाऊंगा।
तेरे साथ युद्ध करना तो मुझे शोभा नहीं देता,
अतहें मैं तेरे स्वामी के साथ ही लुआ लूँगा,
क्योंकि सिंग और गीदर का युद्ध उपहासास पध ही माना चाता है।
भील,
तूने मेरी बात तो सुन ही ली,
अब तू मेरे महान बल को भी देखना,
जा अपने स्वामी के पास लोड जा
अथवा जैसी तेरी च्छा हो वैसा कर।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने अर्जुन के यो कहने पर वै भील जहाँ
शिवावतार सेनापती किरात विराजमान थे वहां गया
और उन भिल राज से अर्जुन का सारा वचन विस्तार पूर्व के
सुनाया। उसकी बात सुनकर उन किरातिश्वर को महान हर्ष वा,
�
अधर पांडू पुत्र अर्जुन ने भी जब किरात की उस सेना को देखा,
तब वे भी धनुश्वान ले सामने आकर दट गई।
तदन्तर किरात ने पुनहें उस तूत को भेजा और उसके
दौरा भरतवंशी महात्मा अर्जुन से यो कहल वाया।
किरात ने कहा,
हे तपस्रिन,
तनिक सेना की ओर तो दृश्टी पात करो,
अरे अब तुम बान छोड़कर जल्दी भाग जाओ,
क्योंकि तुम इस समय एक सामान्य काम के लिए प्रान गवाना चाहते हूँ।
तुमारे भाई दुख से पीडित हैं,
इस्त्री तो उन से भी बढ़कर दुखी है,
मेरा तो ऐसा विचार है कि ऐसा करने से
पिर्थ्वी भी तुमारे हाथ से चली जाएगी।
नन्दिश्वा जी कहते हैं, हे मुने,
जब अर्जुन की सब तरहें से रक्षा करने के लिए किरात रूप धारी परमिश्वर
शम्भु ने उनकी भक्ती की दुर्धता की परिक्षा के निमित ऐसी बात कही,
तव वे शिवदूत उसी समय अर्जुन की पास पहुँचा और उसने
वे सारा वरतान तुन से विस्तार पुर्वक्य सुनाया।
उसकी बात सुनकर अर्जुन ने उस महागत दूत से पुनह कहा,
हे दूत,
तुम जाकर अपने सेनापती से कहो,
कि तुम्हारे कतना अनुसार करने से सारी बातें विपरीत हो जाएंगी।
यदी मैं तुम्हें अपना बान दे देता हूँ,
तो निसंदेह मैं अपने कुल को दुशित करने वाला सिद्ध होंगा।
इसलिए भले ही
मेरे भाई दुखार्थ हो जाएं तथा मेरी सारी विध्याएं निश्वल हो जाएं,
परंतु तुम आओ तो सही,
मैंने ऐसा कभी नहीं सुना है कि कहीं सिंग कीदर से डर गया हो।
इसी प्रकार राजा शत्रिय कभी भी वनेचर से भैभीत नहीं हो सकता।
नन्दिश्व जी कहते हैं कि एए मुने
अर्जुन के यों कहने पर वै दूद पुनहें अपने स्वामी के पास लोटाया और उसने
अर्जुन की कही हुई सारी बाते उनके सामने विशेश रूप से निवेदन कर दी।
उन्हें सुनकर किरात वेश्थारी सेना नायक महादेव जी अपनी सेना के साथ
अर्जुन के सम्मुख आये।
उन्हें आयावः देखकर अर्जुन ने शिव जी का ध्यान किया।
फिर निकट चाकर उनके साथ अत्यंत भीशन संग्राम चेड़ दिया।
इसलिए उन्होंने ऐसी लीला रची थी। अन्यथा ऐसा होना सर्व था संभव था।
तत्पश्चार शंकर जी ने भगत परवश्था के कारण मुस्करा कर
वहीं अपना सोम में एवं अद्भुत रूप सहसा प्रकट कर दिया।
भेफुर्शुत्तम् शिवजी का जो सरूप वेदो,
शास्त्रों तथा पुराणों में वर्णित हैं,
तथा व्यास जी ने अर्जुन को ध्यान करने के लिए
जिस सर्व सिधी राता रूप का उपदेश दिया था,
शिवजी ने वही रूप दिखाया।
अब ध्यान द्वारा प्राप्त होने वाले शिवजी के उस संदर सरूप को देखकर,
अर्जुन को महान विस्मे हुआ,
फिर वे लजजित होकर स्वहें पस्चताप करने लगे।
अहो!
जिनको मैंने प्रमुक रूप से वरन किया है,
वे तिरलोकी के अधिश्वर
कल्यान करता,
साखशाथ स्वहें शिव तो यही है।
सपता टप्पर means that
वे
बड़े बड़े मायावीयों को भी मोह में डाल देती हैं,
फिर मेरी तो भी सात ही क्या है।
उन ही प्रभू ने अपने रूप को छृपा कर,
यह कौन सी लीला रची हैं?
मैं तो उनके द्वारा छला गया।
इसपरकार अपनी बुद्धी से भली भात ही विचार करके अर्जुन ने प्रेम
पूर्वक हाथ जोडे वो मस्तक जुका कर बगवान शिव को परणाम किया
फिर किन्य मन से यो कहा
अर्जुन बोले
हे देवादी देव महादेव
आप तो बड़े कृपालू तथा भगतों के कल्यान करता हैं
हे सर्वेश आपको मेरा अपराज्ञ क्षमा कर देना चाहीं
इस समय आपने अपने रूप को छिपाकर
ये कौन सा खेल किया हैं
आपने तो मुझे चल लिया है बगवन
एव प्रभु
आप स्वामी के साथ युद्ध करने वाले मुझको धिकार है धिकार है
नन्दिश्वा जी कहते हैं
भेह मुने इस प्रकार पांडू पुत्र अर्जुन को
महान पश्चताप हुआ
तत पश्चात वे शिगर ही महाप्रभु शंकर जी के चर्णों में लोट गई
यह देखकर भगत वच्चल महिश्वर का चित प्रसन हो गया
तव वे अर्जुन को अनेको प्रकार से आश्वासन देकर यूँ बोले
शंकर जी ने कहा
हे पार्थ तुम तो मेरे परम भगत हुँ अतय कहीद न करू
यह तो मैंने आज तुमारी परिक्षा लेने के लिए
ऐसी लीरा रची थी इसलिए तुम शोक त्याग दो
नन्दिश्वर जी कहते हैं
हे मुने यों कहकर भगवान शिव ने अपने
दोनों हातों से पकड़कर अर्जुन को उठा लिया
और अपने तथा गणों के समक्ष उनकी लाज का निवारण किया
फिर भक्तवच्छल भगवान शंकर
वीरों में मानने पांड़ो पुत्र अर्जुन को सब
तरह से हर्ष परदान करते हुए प्रेम पूर्वक पोले
शुव जी ने कहा
पांड़ो में शेष्ट अर्जुन
मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ
अतेह
अब तुम वर मांगो
इस समय तुमने जो मुझ पर प्रहार एवं आग हात किया है
उसे मैंने अपनी पूजा मान लिया है
साथ ये सब तो मैंने अपनी इच्छा से किया है
इसमें तुमारा अपराध ही क्या है
अतेह तुमारी जो लालसा हो वह मांग लो
क्योंकि मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो तुमारे लिया दे हो
यह जो कुछ हुआ है वह शत्रों में तुमारे यश्र
और राज्ज की स्थापना के लिए अच्छा ही हुआ है
तुमें इसका दुख नहीं मानना चाहिए
अब तुम अपनी सारी घवराहट छोड़ दो
नन्दिश्वर जी कहते हैं
हे मुने
भगवान शंकर के यों कहने पर अर्जुन भक्ती
पूरवक सावधानी से खड़े होकर शंकर जी से पोले
अर्जुन ने कहा
एई शम्भो आप तो बड़े उत्तम स्वामी हैं आपको भक्त बहुत प्रिय हैं
एदेव बला मैं आपकी करुणा का क्या वर्णन कर सकता हूँ
एई सदाशिव आप तो बड़े करपालू हैं यों कहकर अर्जुन ने महा प्रभू शंकर की
अर्जुन बोले
आप देवादी देव को नमसकार हैं
कैलास वासिन आपको पणाम हैं
एई सदाशिव आपको अभीबादन हैं
एई पंचमुक परविश्वर
आपको मैं सिर जुकाता हूं
आप जटा धारी
तता तीन नित्रों से विभूशित हैं
आपको बारंबार नमसकार हैं
आप प्रसन्न रूप वाले तता सहस्त्रो मुखों से युक्त हैं आपको प्रणाम हैं
एई नील कंठ आपको मेरा नमसकार प्राप्त हो
मैं सदो जात को अभीबादन करता हूं
वामांक में गिरजा को धारन करने वाले वृश्च धज़
आपको प्रणाम हैं
दस भुजा धारी आप परमात्मा को पुने पुने अभीबादन हैं
आपके हाथों में डमरू और कपाल शोभा पाते हैं तथा
आप मुंडो की माला धारन करते हैं आपको नमसकार हैं
आपका श्रीविक्र है शुद्ध स्वठिक तथा निरमल करपूर के समान गोरवर्ण का हैं
हाथ में पिनाक्ष शोबित हैं तथा आप उत्तम
तृशूल धारन की हुए हैं आपको प्रणाम हैं
हे गंगाधर
आप व्याग्र चर्म का उत्रिये तथा गज चर्म का वस्त लपेटने वाले हैं
आपके अंगों में नाग लिप्टे रहते हैं आपको बारंबार अभिवादन हैं
सुन्दर लाल लाल चर्णों वाले आपको नमसकार हैं
नंधी आदी गणों द्वारा सेवित आप गण नायक को प्रणाम हैं
जो गनेश्वरूप हैं कार्तिके जिनके अनुगामी हैं जो भक्तों को भक्ति
और मुक्ति परदान करने वाले हैं उन आपको पुने पुने नमसकार हैं
हाफ निर्गुन,
सगुन,
रूप रहित,
रूप वाहन,
कला युक्त तता निशकल हैं
हाफ को मैं बारंबार सिर जुकाता हूं
जिनोंने मुझपर अनुग्रह करने के लिए किरात वेश धारन किया है
जो वीरों के साथ युद करने के प्रेमी तथा नाना परकार
की लीलाएं करने वाले हैं उन वहिश्वर को प्रणाम है
जगत में जो कुछ भी रूप दृश्टी गोचर हो
रहा है वे सब आपका ही तेज कहा जाता है
आप चिद्रुप हैं
और अन्व्य भेद से तिरलोकी में रमन कर रहे हैं
जैसे धूली कणों की आकाश में उदेह होए तारकाओं की तथा
बरस्ते होए जल की बूनों की गण्ना नहीं की जा सकती
उसी प्रकार आपके गुणों की भी संक्या नहीं है नात
आपके गुणों की गण्ना करने में तो भेद भी समर्थ नहीं है
मैं तो एक मंद बुद्धी व्यक्ति हूँ
फिर मैं उनका वरन कैसे कर सकता हूँ
हे महिशान आप जो कोई भी हूँ आपको मेरा नमसकार है
महिश्वर
आप मेरे स्वामी है और मैं आपका दास हूँ
अथे आपको मुझ पर करपा करने ही चाहिए
नन्दिश्वर जी कहते हैं
हे मुने अर्जुन द्वारा किये गए इस इस्तमन
को सुनकर भगवान शंकर का मन परमपरसन्न हो गया
तव वे हस्ते हुए पुने अर्जुन से बोले
शंकर जी ने कहा हे वच अब अधिक कहने से क्या लाव तुम मेरी
बात सुनो और अपना अभिष्ठ वर मांग लो इस समय तुम जो कुछ कहोगे
वे है सब मैं तुम्हे परदान करूँगा
तो after that.
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गंदिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने इतना कहकर अर्जुन ने भक्तवत सल भगवान शंकर को नमसकार किया
और फिर वे हाथ जोड़कर मस्तक जुकाय हुए उनके निकट खड़े हो गये।
जब स्वामेशिवशंकर को यह घ्यात हो गया
कि यह पांडू पुत्र अर्जुन मेरा अनन्य भक्त है,
तव वे भी परमप्रसन हुए। फिर उन महिश्वर ने अपने पाशुपत नामक अस्तर को,
जो सर्वत हा समस्त प्राणियों के लिए दुर्ज्य है,
अर्जुन को दे दिया। और इसप्रकार कहा। शिव जी बोले,
हे वच्छ
मैंने तुम्हे अपना महान अस्तर दे दिया,
इसे धारण करने से अब तुम समस्त शत्तुं के लिए अजई हो जाओगे। जाओ,
विजै लाफ करो। साथ ही मैं शिरी कृष्ण से भी कहूंगा,
वे तुम्हारी सहइता करेंगे। क्योंकि शिरी कृष्ण मेरे �
प्रभाव से तुम निशकंटक राज्य भोगो और अपने भाई
युधिश्ठिर से सरवदा नाना परकार के धर्म कारिय कराते रहो।
नन्धिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने। यों कहकर शंकर जी ने अर्जुन के मस्तक पर अपना करकमल रख दिया
और अर्जुन द्वारा पूजित हो वे शीगर ही अंतरध्यान हो गए।
अर्जुन का प्रसन्य हो गया
तव वे अपने मुख्य गुरु शिव का भक्ती पूर्व
के स्मार्ण करते हुए अपने आश्रम को लोट गए।
महा अर्जुन से मिलकर
सभी भाईयों को ऐसा अनंद प्राप्त हुआ,
मानो मृतक शरीर में प्राण का संचार हो गया हो।
पांड़ों को यग्यात हुआ कि शिव जी परम संतुष्ट हो गये हैं,
तव उनके हर्ष का पार नहीं रहा। उन्हें उस संपून
व्रतांत के सुनने से त्रत्ती ही नहीं होती थी।
उस समय उस आश्रम में महा मनस्वी
पांड़ों का भला करने के लिए चंदन युप्त पुश्पों की विश्टी होने लगी।
तब उन्होंने हर्ष पूर्वक
संपत्ती दाता तथा कल्यान करता शिव को नमस्कार किया।
और तेहरे वर्ष की अवधी को समाप्त हुई जानकर
यह निश्चे किया कि अवश्च ही हमारी विजे होगी।
इसी अउसर पर जब श्री कृष्ण को बता चला कि अर्जुन लोट
कर आ गए हैं तब यह समाचार सुनकर उन्हें बड़ा सुख मिला।
और वे अर्जुन से मिलने के लिए वहां पधारे तथा कहने लगे
कि इसी लिए मैंने कहा था कि शंकर जी संपूर्ण कश्टों का विनाश
करने वाले हैं। मैं नित्य उनकी सेवा करता हूं। अते आप लोग
आप लोग भी उनकी सेवा करें।
हे मुने,
इसप्रकार मैंने शंकर जी के किरात नामक अवतार का वढडन किया।
जो इसे सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है,
उसकी सारी कामनाएं पून हो जाती है।
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैये।
प्रिय भगतों,
शेषिव महापुरान के शत्रुद्ध सहिता की यह कता
और 40 तथा 41 वा ध्याय हाँपर समाप्त होता है।
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैये।
ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय।