Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै!
प्रिये भक्तों,
शिष्युव महापुरान के शत्रुद्र सहिता की अगली कता है,
भगवान शिव के अवधूतेश्वर अवतार की कता
और उसके महिमा का वार्णन.
तो आईये भक्तों,
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ पीस्मा अध्याय.
नन्दिश्वर कहते हैं,
हे सनत कुमार,
अब तुम परमिश्वर शिव के अवधूतेश्वर नामक अवतार का वार्णन सुनो.
जिसने इंद्र के घमंण को चूर चूर कर दिया था.
पहले की बात है,
इंद्र सम्पून देवताओं तथा ब्रस्पती जी को साथ लेकर
भगवान शिव का दर्शन करने के लिए कैलास परवत पर गए.
उस समय ब्रस्पती और इंद्र के शुभागमन की बात जानकर,
भगवान शंकर उन दोनों की परिक्षा लेने के लिए अवधूत बन गए.
उनके शरीर पर कोई वस्तर नहीं था.
वे परज्वलित अगनी के समान तेज़स्वी होने के कारण महा भहंकर जान परते थे.
उनक
एक अद्भुत शरीर धारी पुरुष रास्ते के बीच में खड़ा है.
इंद्र को अपने अधिकार पर बड़ा गर्व था.
इसलिए वे ये न जान सके
कि ये साक्षात भगवान शंकर है.
उनोंने मार्ग में कड़े होए पुरुष से पूचा,
तुम कौन हो?
इस नगन
शिव अपने इस्थान पर है या इस समय कहीं अन्यत्र गए हैं?
मैं देवता हूं तथा गुरुजी के साथ
उनी के दर्शन के लिए जा रहा हूं.
इंद्र के बारंबार पूचने पर भी महान कोतुक करने वाले
एहंकार हारी महा योगी तिरलोकी नाथ शिव कुछ नहीं बोले,
चुप ही रहे.
तब अपने एश्वर्य का घमंड रखने वाले देवराज इंद्र ने रोष
में आकर उस चटाधारे पुरुष को भटकारा और इस प्रकार कहा.
इंद्र बोले,
अरे मूड,
हे दुर्मते,
तु बार बार पूचने पर भी उत्तर नहीं देता,
अतेह तुझे वज्र से मारता हूं,
देखू कौन तेरी रक्षा करता है.
ऐसा कहे उस दिकंबर पुरुष की ओर,
क्रोध पूरवक देखते हुए इंद्र ने उसे मार डालने के लिए वज्र उठाया.
यह देख वगवान शंकर ने शिगर ही उस वज्र का इस्तंभन कर दिया.
उनकी बाहां अकड़ गई,
इसलिए वे वज्र का आपरहार न कर सके.
तद अंतर वे पुरुष ततकाल ही क्रोध के कारण तेज से प्रजुलित हो उठा,
मानों इंद्र को जलाये देता हो.
बुजाओं के इस्तंभित हो जाने के कारण,
शचीवल्लव इंद्र क्रोध से उस सर्व की भाती चलने लगे,
जिसका पराक्रम मंत्र के बल से अवरुद्ध हो गया हो.
ब्रहस्पती ने उस पुरुष को अपने तेज से प्रजुलित होता देक,
ततकाल ही ये समझ गए कि ये साक्षात भगवान हर हैं.
फिर तो वे हाथ जोड परनाम करके उनकी स्तुधी करने लगे.
स्तुधी के पश्चात उन्होंने इंद्र को
उनके चर्णों में गिरा दिया और कहा,
धीननात महादेव,
यह इंद्र आपके चर्णों में पढ़ा है,
आप इसका और मेरा उध्धार करें.
हम दोनों पर क्रोध नहीं,
प्रेम करें महादेव.
शर्णागतिंद्र की रक्षा क
उध्धारी करणासिंद शिवने
हस्तेवे का,
अपने नित्र से रोषवस बाहर निकली हुई
अगनी को मैं पुने कैसे धारन कर सकता हूँ?
क्या सर्प अपनी छोड़ी हुई केंचली को फिर ग्रहन करता है?
ब्रस्पति बोले,
हे देव,
हे भगवन,
भगत सदाही करपा के पात्र होते हैं,
आप अपने भगतवच्छल नाम को चरितार्थ कीजिए,
और इस भहंकर तेज को कहीं अन्यत्र डाल दीजीए.
रुद्र ने कहा,
देव गुरो,
मैं तुम पर प्रसन हूँ,
इसलिए उत्तमबर देता हूँ.
इंद्र को जीवनदान देने के कारण,
आज से तुमारा एक नाम जीव भी होगा.
मेरे ललाटवर्ती नित्र से जो याग प्रगट हुई है,
इसे देवता नहीं सह सकते.
अते इसको मैं बहुत दूर छोडूंगा,
जिससे याग इंद्र को पीड़ा ना दिसके.
ऐसा कहकर अपने तेज स्वरूप उस अद्भूत अगनी को हात में लेकर भगवान शिव ने
शार समुद्र में फैंक दिया.
वहां फैंक जाते ही भगवान शिव का वै तेज
तदकाल एक बालक की रूप में परिणित हो गया,
जो सिंधु पुत्र जरंधर नाम से विख्यात हुआ.
फिर देवताओं की प्रार्टना से भगवान शिव ने
ही असुरों के स्वामी जरंधर का वद किया था.
अधूत रूप से ऐसी सुन्दर लिला करके लोग कल्यान
कारी शंकर वहां से अंतरद्ध्यान हो गये.
फिर सब देवता अत्यंत निर्भय,
एउं सुखी हुए.
इंद्रोर ब्रहस्पती भी उस भय से मुक्त हो उठम सुख के भागी हुए.
जिसके लिए उनका आना हुआ था,
वह बगवान शिव का दर्शन पाकर करतार्थ हुए.
इंद्रोर ब्रहस्पती प्रसंदता पूर्�
नामक अवतार का वर्णन किया है,
जो दुष्चों को धन्ड वों भक्तों को परमानन्द प्रदान करने वाला है.
यह है दिव्याक्यान,
पाप का निवारन करके यश्व,
स्वर्ग,
भोग,
मोक्ष तथा संपून मनुवाञ्चित फल की प्राप्ती कराने वाला है.
जो प्रति दिन एकागर्चित हो इसे सुनता या सुनाता है,
वह ईह लोक में संपून सुखों का उभोग करके
अंत में शिव की गती प्राप्त कर लेता है.
भोलि शिवशंकर भगवाने की जैये!
अर्थिये भक्तो,
इस प्रकार यहाँ पर शिश्यिव महाप्राण के शतरुद्र
सहीता की यह कथा और तीसमा अध्याय समाफ्त होता है.
तो स्नही से बोलिये,
भोलिए शिवशंकर भगवाने की जैये!
ओम् नमः शिवाय।
ओम् नमः शिवाय।
Om Namah Shivay