Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शुवशंकर भगवाने की जै!
प्रीय भक्तों,
शिश्यु महापुरान के शत रुद्र सहीता की अगली कथा है
भगवान शिव के भिक्षु वर्यावतार की कथा
राजकुमार और द्विज्ज कुमार पर कृपा
तो आईये भक्तों आरमब करते हैं इस कथा के साथ एकरतिस्मा अध्याय
नन्दीश्वर कहते हैं
मुनिशेष्ट,
अप्त भगवान शंभु के नारी संदेह वंजक भिक्षु अवतार का वर्णन सुनो
जिसे उन्होंने अपने भक्त पर दया करके ग्रहन किया था
विधर्व देश में सत्यरत्र नाम के प्रिसिद्ध एक राजा थे
जो धर्म में तत्पर,
सत्यशील और बड़े-बड़े शिव भक्तों से प्रेम करने वाले थे
धर्म पूर्वक पृत्वी का पालन करते हुए
उनका बहुत सा समय सुख पूर्वक बीद गया
तद अंतर किसी समय शाल्वदेश के राजाओंने उस राजा की
राजधानी पर आक्रमन करके उसे चारो और से घेर लिया
बलोनमत शाल्वदेश शत्रिय के साथ
जिनके पास बहुत बड़ी सेना थी
राजा सत्यरत्र का बढ़ा भैंकर युद्ध हुआ
शत्रों के साथ दारुन युद्ध करके उनकी बड़ी भारी सेना नष्ट हो गई
फिर देव योग से राजा भी शाल्वों के हातों से मारे गए
उन नरेश के मारे जाने पर मरने से बचे हुए सेनिक,
मंत्रियों सहिद भैसे वीहवल हो भाग खड़े हुए
हे मुने उस समय विधर्व राज सत्यरत की महराणी शत्रों से घिरी होने
पर भी कोई प्रयत्न करके रात के समय अपने नगर से बहार निकल गई
वे गर्वती थी अतयशोक से संतप्त हो भगवान शंकर के चरणार विन्दों
का चिंतन करती हुई वे धीरे धीरे पूर्व दिशा की ओर बहुत दूर चली गई
सबीरा होने पर राणी ने भगवान शंकर की दया से एक निर्मल सरोवर देखा
उस समय तक वे बहुत दूर का रास्ता तै कर चुकी थी
सरोवर के तट पर आकर वे सुगमारी राणी एक छायादार व्रक्ष के नीचे बैठ गई
भाग्यवश उसी ही निर्जन स्थान में व्रक्ष के नीचे ही राणी ने एक
उत्तम गुणों से युक्त शुब मूर्थ में एक दिव्य बालक को जन्म दिया
जो सभी शुब लक्षनों से संपन्य था
देववश उस बालक की जन्माराणी को बड़े जोर की प्यास लगी
तवे पानी पीने के लिए उस सरोर में उत्तरी इतने में एक बड़े भारी
ग्राह ने आकर राणी को अपना ग्रास बना लिया
वैबालक पैदा होते ही माता पिता से हीन हो गया
और भूग प्यास से पीडित हो उस तालाब के किनारे जोर जोर से रोने लगा।
इतने में ही उस पर कृपा करके भगवान महिश्वर वहां आ गए।
और उस शिश्व की रक्षा करने लगे।
उनहीं की पेड़ना से एक ब्राहमनी अकसमात वहां आ गई।
वह विद्वा थी,
घर घर भीक मांग कर जीवन निर्वाह करती थी और अपने एक वर्ष
के बालक को गोद में लिये हुए उस तालाब के तट पर पहुँची थी।
उसने एक अनाथ शिशु को वहां क्रंदन करते देखा। निर्जनवन में उस बालक
को देखकर ब्राहमनी को बढ़ा विश्णए हुआ और वे मन ही मन विचार करने लगी।
अहो!
यह मुझे इस समय बड़े आश्चरी की बात दिखाई देती है।
यह नवजाच शिशु,
जिसकी नाल भी अभी तक नहीं कटी है,
पृत्वी पर पड़े हुई है,
इसकी मा भी नहीं है।
पिता आदी,
दूसरा कोई साहयक भी यहां नहीं दिखाई देता।
ने जाने यह किसका पुत्र है?
इसे जानने वाला यह कोई भी नहीं है,
जिससे इसके जन्म के विशे में पूचूं।
इसे देखकर मेरे हिरदे में करुणा उत्पन्न हो गई है। मैं इस
बालक का अपने ओरस पुत्र की भाती पालन पोशन करना चाहती हूँ।
परन्तु इसके कुल और जन्म आदी का ज्यानने
होने के कारण इसे चूने का सहस नहीं होता।
ब्राह्मनी जब इसपरकार विचार कर रही थी,
उस समय भक्तवच्चल भगवान शंकर ने
बड़ी करपा की।
बड़ी बड़ी लिलाय करने वाले महिश्वर एक
सन्यासी का रूप धारन करके सहसा वहां पहुंचे,
जहां वे ब्राह्मनी संदेह में पड़ी हुई थी
और यर्थार्थ बात को जानना चाहती थी।
स्रेष्ठ विख्षुक का रूप धारन करके आये
हुए करणानिधान शिवने उससे हसकर कहा,
यह ब्राह्मनी अपने चित्त में संदेह और खेद को इस्थान न दो,
यह बालक परमपवित्र है,
तुम इसे अपना ही पुत्र समझो और प्रेम पूर्वक इसका पालन करो।
ब्राह्मनी बोली,
हे प्रभु,
आप मेरे भाग्य से यहां पढ़ारे हैं,
इसमें संदेह नहीं कि मैं आपकी आग्या से इस
बालक का अपने पुत्र की भाती पालन पोशन करूँगी।
तथापी मैं विशेश रूप से यह जानना चाहती हूँ,
कि वास्तव में यह कौन है,
किसका पुत्र है,
और आप कौन है,
जो इस समय यहां पढ़ारे हैं।
प्रप्शुवर,
मेरे मन में बार-बार यह बात आती है,
कि आप
करणा सिंदु शिव ही हैं,
और यह बालक पूर जन्में आपका भक्त रहा है।
किसी कर्म दोश से यह इस दुर-वस्था में पढ़ गया है।
इसे भोग कर
यह पुने आपकी कृपा से परम-कल्यान का भागी होगा।
मैं भी आपकी माया से ही मोहित हो,
मार्ग भूल कर यहां आ गई हूं।
आपने ही इसके पालन के लिए मुझे यहां भेजा है।
भिक्षु प्रवर्शिव ने कहा,
म्राह्मनी, सुनो,
यह बालक शिव भक्त विधर्वराज सत्यरत का पुत्र है।
सत्यरत को शाल्वदेशी एक शत्यों ने युधमे मार डाला है।
उनकी पत्नी अत्यंत व्यग्र हो रात में शिग्रता पुरुवक अपने
महल से बहार भागाई। उनोंने यहां आकर इस बालक को जर्म दिया।
सवेरा होने पर वे प्यास से पेडित हो सरोवर में उत्री,
उसी समय देव वश एक ग्राह ने आकर उने अपना आहार बना लिया।
ब्राह्मनी ने पूछा,
हे भिक्षु देव,
क्या कारण है कि इसके पिता राजा सत्यरत शिष्ठ भोगों के उपभोग
के समय बीच में ही शाल्व देश ये शत्रूं द्वारा मार डाले गए।
किस कारण से इस शिषु की माता को
ग्राह ने खालिया
और यह शिषु जो जन्म से ही अनात और
बंदु हीन हो गया। इसका क्या कारण है।
मेरा अपना पुत्र भी अध्यन्त दरिद्रेवं भिक्षु क्यों हुआ
तथा मेरे इन दोनों पुत्रों को भहिश्च में कैसे सुख प्राप्त होगा।
भिक्षु वरिय शिव ने कहा
इस राजकमार के पिता विधर्वराज पूर्व जन्म में पांड्य
देश के स्विष्ट राजा थे। वे सब धर्मों के ग्याता
थे और संपून पृत्वी का धर्म पूर्वक पालन करते थे।
एक दिन पुर्दोश काल में राजा बगवान शंकर का पूजन कर रहे थे और
बड़ी भकती से तिरलोकी नात महादेव जी की आरादना में सल्लगन थे।
उसी समय नगर में सब और बड़ा भारी कोला हल मचा,
उस उतकट शब्द को सुनकर राजा ने बीच में ही भगवान शंकर की पूजा छोड़
दी। और नगर में क्षोप फैलने की आशंका से राजभावं से बहार निकल गए।
उसी समय राजा का महावली मंत्री शत्रु को पकड़ कर
उनके समीप ले आया,
वै शत्रु पांडे राज का ही सामन्त था। उसे देख
कर राजा ने क्रोध पूर्वक उसका मस्तक खटवा दिया।
शिव पूजा छोड़ कर नियम को समाप्त किये बिना ही राजा ने
रात में भोजन भी कर लिया। इसी परकार राज कुमार भी प्रदोश
काल में शिव जी की पूजा किये बिना ही भोजन करके सो गया।
वही राजा दूसे जन्में विधर्वराज हुआ था। शिव जी की पूजा में विगन होने की
कारण शत्रों ने उसको सुख भोगने के बीच में ही मार डाला। पूर्व जन्में
जो उसका पुत्र था वही इस जन्में भी हुआ है। शिव जी की पूजा का उलंगन करने
वह इस जन्में ग्राह के द्वारा मारी गई।
हे ब्राह्मनी यह तुम्हारा पुत्र पूर्व जन्में उत्तम ब्राह्मन था।
इसने सारी आयु केवल दान लेने में बिटाई है।
यग्याती सत्कर्म नहीं किये है।
इसलिए है दरिद्धता को प्राप्त हुआ है। उस दोश का निवारन करने के लिए
अब तुम भगवान शंकर की शरण में जाओ। यह दोनों बालक यग्यो पवीत संसकार
के पश्याद भगवान शिव की आराधना करें। भगवान शिव इनका कल्यान करेंगे।
इसप्रकार ब्राह्मनी को उपदेश देकर भिक्षु,
स्रेष्ट सन्यासी का शरीब धरन करने वाले भकतवचसल
शिव ने उसे अपने उत्तम स्वरूप का दर्शन कराया।
उन्हें साक्षात शिव जान कर ब्राह्मन पत्नी ने पढाम
किया और प्रेम से गदगद वानी द्वारा उनकी इस सुधी की।
तथ पशाद भगवान शिव वही अंतरध्यान हो गए। उनके चले जाने पर
ब्राह्मनी उन पालक को लेकर अपने पुत्र के साथ घर को चली गई।
एक चक्रा नाम के सुन्दर गाउं में उसने घर बना रखा था।
वे उत्तम अन्य से अपने बेटि तथ राजकमार का भी पालन पोशन करने लगी।
यथा समय ब्राह्मनों ने उन दोनों का यज्ञो पवित संसकार कर दिया।
वे दोनों शिव की पूजा में तत्पर रहते हुए,
घर पर ही पड़े हुए।
शांदिल्या मुनी के उपतेश से नियम परायन हो वे दोनों
शुभ व्रत रखकर पुरदोष काल में शंकर जी की पूजा करते थे।
एक दिन द्विज़ कुमार राजकुमार को साथ लिये बिना ही नदी में
स्नान करने के लिए गया। वहाँ उसे निधी से भराव हुआ एक
सुन्दर करश मिल गया। इस परकार भगवान चंकर की पूजा करते हुए,
उन दोनों कुमारों का उसी घर में एक वर्ष वतीत हो
जिस ब्राह्मन पत्नी ने
पहले अपने पुत्र की भाथी उसका पारंद पोशन किया था,
वही उस समय राजमाता हुई और वे ब्राह्मन कुमार उसका भाई हुआ।
राजा का नाम धर्मगुप्त था,
इस परकार देविश्वर शिव की आराधना करके राजा धर्मगुप्त अपनी उस
राणी के साथ विधर्वतेश में राजो चित सुख का उपभोग करने लगा।
यह मैंने तुमसे शिव के भिक्षुवरी अवतार का वर्णन किया है,
जिन्होंने राजा धर्मगुप्त को बाले काल में सुख प्रदान किया था,
वैं पवित्र आख्यान पापहारी,
परमपावन,
चारो पुर्शार्थों का साधग तथा संपून अभिष्ठ को देने �
तो प्रिये भक्तों,
इस प्रकार यहां पर शिव शिवमहापुरान के शत्रुद्ध सहिता
की यह कथा और 31 मा अध्याय यहां पर समाप्त होता है,
तो वक्तों सने के साथ बोलिये,
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए,
और स्नेह से बोलिये, ओम नमः शिवाय,
ओम नमः शिवाय,
ओम नमः शिवाय.