Nhạc sĩ: Traditional
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बोले शिवशंकर भगवान की जए!
प्रीय भक्तों,
सिशिव महा पुरान के रुद्र सहीता
दुवित्य सती खंड की अगली कता और
अगले अध्याय आरमब करते हैं.
साथ आठ,
नौं और दस्मे अध्याय की कता है
संध्या की आत्म हुती उसका अरुंधती के रूप में अवतीर्ण होकर
मुनी वरवसिष्ठ के साथ विवहा करना,
ब्रह्मा जी का रुद्र के विवहा के लिए प्रयत्न और चिंता
करना
तथा भगवान विश्णू का
उन्हें शिवा की आराधना के लिए उपदेश देकर चिंता मुक्त करना.
पहाई ये भक्तो आरमब करते हैं.
ब्रह्मा जी कहते हैं,
हे नारध,
जब वर देकर भगवान शंकर अंतरध्यान हो गए,
तब संध्या भी उसी स्थान पर गई,
जहां मुनी मेधातिथी यग्य कर रहे थे.
भगवान शंकर की कृपा से उसे किसी ने वहाँ नहीं देखा,
उसने उस तेज़स्वी ब्रह्मचारी का इस्वन्ड किया,
जिसने उसके लिए तपस्चा की विधी का उपदेश दिया था.
अगर महामुने,
पूर्वकालम में महरशी वसिष्ट ने मुझ परमेश्टी की आग्या
से एक तेज़स्वी ब्रह्मचारी का वेश धारन करके उसे तपस्चा
करने के लिए उपयोगे नियमों का उपदेश दिया था.
संध्या अपने को तपस्चा का उपदेश देने वाले उनही
ब्रह्मचारी ब्रह्मण वसिष्ट को पती रूप से मन में रखकर
उस महा यग्य में परजवलित अगनी के समीप गई.
उस समय भगवान शंकर की करपा से
मुनियों ने उसे नहीं देखा.
ब्रह्मा जी की वे पुत्री बड़े हर्ष के साथ उस अगनी में प्रविष्ट हो गई.
उसका
पुरोडाशयम यग्य भाग
शरीर ततकाल दग्ध हो गया.
उस पुरोडाश की
अलक्षित गंध
सब और फैल गई.
अगनी ने भगवान शंकर की आज्या से उसके स्वन जैसे शरीर
को जला कर शुद्ध करके पुनह सूर्य मंडल में पहुचा दिया.
तब सूर्यने पित्रों और देवताओं की त्रप्ती के लिए उसे
दो भागों में विभखत करके अपने रथ में स्थापित कर दिया.
मुनिश्वर,
उसके शरीर का ओपरी भाग प्रातेह संध्या हुआ,
जो दिन और रात के बीच में परने वाली आदी संध्या है.
तता उसके शरीर का शेष भाग साइं संध्या हुआ,
जो दिन और रात के मद्ध में होने वाली अन्तिम संध्या है.
उसी समंह सदा साइं संध्या का उदेह होता है,
प्राणों को आननद प्रदान करने वाली है
परम दयालू भगवान शिव ने
उसके मन सहीत प्राणों को जब
दिव्य शरीर से युक्त देह धारी बना दिया
जब मुनी के यग्य की समाप्ती का अवसर आया
तव वह अगनी की ज्वाला में
महरशी मेधातिति को तपाए हुए स्वर्ण किसी
कान्ति वाली पुत्री के रूप में प्राप्त हुई
मुनी ने बड़े अमोध के साथ उस समय उस पुत्री को ग्रहन किया
हे मुने उनोंने यग के लिए उसे नहला कर अपनी गोध में बिठा लिया
शिश्यों से घिरे हुए महा मुनी मेधातिति को वहां बढ़ा
आनन्द प्राप्त हुआ उनोंने उसका नाम अरुन्धती रखा
वै किसी भी कारण से धर्म का अवरोध नहीं करती थी
अतय उसी गुण के कारण उसने स्वयम यह तुरिभुवन विख्यात नाम प्राप्त कि
उसके साथ आश्रम में रहकर सदा उसी कारण पालन करते थे देवी
अरुन्धती चंद्रभागा नदी के तट पर ताप सारण्य के भीतर मुनी
वर मेधातिति के उस आश्रम में धीरे धीरे बड़ी होने लगी
जव वह विभा के योग्य हो गई तब मैंने विश्णू तथ
की पति वर्ताओं में शेष्ट थी
वैं मेहर्शी वशिष्ट को पति रूप में पाकर उनके साथ बड़ी शोभा
पानेवाली उससे शक्ती आदी शोब एवं शेष्ट पुत उतपन हुए मुनी
शेष्ट उस प्रियतम पति नदी के लिए जब देवी आश्रम देवी के दे
वशिष्ट को पाकर
विशेष शोभा पाने लगी मुनी शिरोमने इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष
संध्या के पवित्र चरित का वर्णन किया है जो समस्त कामनाओं के फलों को देने
वाला परम पावन और दिव्य है जो इस्त्री या शुब वरत का आच्रन करने वाल
प्रापति ब्रह्मा जी की है बात सुनकर नारत
जी का मन प्रसन हो गया और वे इस प्रकार बोले
नारत जी ने कहा नारायन नारायन नारायन
हे ब्रह्मण आपने अरुणधती की तथा पूर्व जनव में उसकी
स्वरूप भूता संध्या की बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनाई है
जो शिव भक्ती की ब्रध्धी करने वाली है धर्मग्य
अब आप भगवान शिव के उस परम पवित्र चरित का वर्णन कीजिये
जो दूसरों के पापों का विनाश करने वाला उत्तम एवं मंगल दायक है
जब काम देव रती से विभा करके हर्ष पूर्वक चला गया
दक्ष आदी अन्य मुनी भी जब अपने अपने स्थान को
पधारे और जब संध्या तपस्या करने के लिए चली गई
उसके बाद वहाँ क्या हुआ भगवान ब्रह्मा जी ने कहा
विप्रवर नारद तुम धन्य हो भगवान शिव के सेवक हो
अतेख
शिव की लिला से युक्त जो उनका शुब चरितर है
उसे भकती पूर्वक सुनो
हे तात पूर्व काल में मैं एक बार जब मोह में
पड़ गया और भगवान शंकर ने मेरा उपभूहास किया
तब मुझे बड़ा ख्शोब हुआ था
वस्तुत है शिव की माया ने मुझे मोह लिया था
इसलिए मैं भगवान शिव के परती ईवशा करने लगा
किस प्रकार सो बताता हूँ सुनो
मैं उस इस्थान पर गया जहां दक्ष राजमुनी उपस्तित थे
वहीं रती के साथ कामदेव भी था
हे नारध उस समय मैंने बड़ी प्रसन्नता के साथ दक्ष तथा
दूसरे पुत्रों को सम्भोधित करके वार्तालाप आरंब किया
उस वार्तालाप के समय में मैं शिव की माया से पूर्ण तया मोहित था
अतय मैंने कहा
पुत्रों तुम्हें ऐसा प्यत्न करना चाहिए जिससे महादेव
जी किसी कमनीय कांती वाली स्तीरी का पानी ग्रहन करें
इसके बाद मैंने भगवान शिव को मोहित करने का भार रती सह
शिव को मोहित करने के लिए किसी नारी की सिश्टी कीजिये
यह सुनकर मैं चिंता में पड़ गया
और लंभी सांस खीचने लगा
मैंने उस निह स्वास से राशी राशी पुष्पों
से विभुशित वसंत का प्रादुरभाव हुआ
वसंत और मलियानिल ये दोनों मदन के सह
वाम देव को मोहने की बारंबार चेष्टा की परन्तु उसे सफलता न मिली
जब वे निराश होकर लोट आया
तब उसकी बात सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ
उस समय मेरे मुक से जो निस्वास वायु चली उससे मारगणों की उतपत्य हुई
उन्हें मदन की सहेता के लिए आदेश देकर
मैंने पुनहें उन सब को शिवजी के पास भेजा
परन्तु महान प्यतन करने पर भी वे भगवान शिव को मोह में न डाल सके
काम से परिवार लोट आया
और मुझे परणाम करके अपने इस्थान को चला
उसके चले जाने पर मैं मन ही मन सोचने लगा कि निर्विकार
तथा मन को वश्ट में रखने वाले योग परायन भगवान शंकर
किसी स्ट्री को अपनी सहे धर्मनी बनाना कैसे सुखार करेंगे
यही सोचते सोचते मैने भकती भाव से उन भगवान श्री हरी का इसमन किया
जो साक्षात शिव स्वरूप तथा मेरे सडीर के जन्म दाता है
मैंने दीन वचनों से युक्त शुब इसतोत्रों द्वारा उनकी स्तुती की
उस स्तुती को सुनकर भगवान शिगर ही मेरे सामने प्रकट हो गए
उनकी चार भुजायं शोभा पाती थी
नेत्र प्रफुल कमल के समान सुन्दर थे
उनोंने हात में शंक, चकर, गदा और पदम ले रखे थे
उनके श्याम शरीर पर पीतांबर की बड़ी शोभा हो रही थी
वे भगवान श्री हरी भक्त प्रिये हैं
अपने भक्त उने बहुत प्यारे हैं
सब के उत्तम शर्नदाता उन श्री हरी को
उस रूप में देखकर मेरे नित्रों में प्रेमा श्रुनों की धारा वहे चली
और में गदगद कंच से बारंबार उनकी स्तुती करने लगा
मेरे उस इस त्रोत को सुनकर अपने भक्तों के दुख
दूर करने वाले भगवान विश्णू बहुत प्रसन हुए
और शरन में आये हुए मुझ ब्रह्मा से बोले
हे महा प्राज्य,
हे विधातः,
लोक इस त्रिष्टा ब्रह्मन
तुम धन्य हो
बताओ
तुमने किस लिए आज मेरा इसमन्य किया है और किस निमित से
यह स्तुती की जा रही है
तुम पर कौन सा महान दुख आ पडा है उसे मेरे सामने इस समय कहो
मैं मैं सारा दुख मिठा दूँगा
इस विशय में कोई संदेह
या अन्यता विचार नहीं करना चाहिए
तब ब्रह्मा जी ने सारा प्रसंग सुना कर कहा
हे केशव यदी भगवान शिव किसी तरहें पत्नी को ग्रहन कर लें
तो मैं सुखी हो जाऊँगा
मेरे अन्तैकरण का सारा दुख दूर हो जाएगा
इसी के लिए मैं आपकी शरण में आया हूँ
मेरी यह बात सुनकर भगवान मदुसूदन हस पड़े और मुझ लोग इस
तरष्टा ब्रह्मा का हर्ष बताते हुए मुझसे शिगर ही यों बोले
यह विधात तुम मेरा वचन सुनो
यह तुमारे ब्रह्म का निवारन करने वाला है
मेरा वचन ही वेद,
शास्त्र आदी का वास्तविक सिधान्त है
शिव ही सबके करता भरता पालक और हरता संघारक हैं
वे ही परात्पर हैं परब्रह्म परेश निर्गुन नित्य
अनिर्देश निर्विकार अदीत्य अच्छुत अनंत
सबका अन्त करने वाले स्वामी और सर्वव्यापी परमात्मा एवं परमिश्वर हैं
सुष्टी पालन और संगार के करता
तीनों गुणों को आश्चे देने वाले व्यापक
ब्रह्मा विश्णू और महेश नाम से प्रसिद्ध
रजोगुन सत्वगुन तथा तमोगुन से परे माया से ही भेद युक्त
प्रतीत हुने वाले
निरीह माया रहित
माया के स्वामी य
तुम अत्मानन्द सरूप
निर्विकल्प आत्माराम निर्द्वन्द भगत परवश सुन्दर विग्रह से सुशोबित योगी
नित्योग पारायन योग मार्ग दर्शक गर्वहारी
लोकिष्वर
और सदा दीन वच्चल हैं
तुम उने की शरण में जाओ सर्वात्मनाश्श
खैब ते का?
तो सारा कारिय सिद्ध कर देंगी
यदि शिवा
सगुन रूप से अवतार ग्रहन करके
लोक में किसी की पुत्री हो
मानव शरीर ग्रहन करें
तो वे निष्चय ही महादेव जी की पत्नी हो सकती है
बहमन,
तुम दक्ष को आज्या दो
हे तात,
शिवा और शिव दोनों को भगत के आधीन जानना चाहिए
वे निर्गुन परब्रम सवरूप होते हुए भी सुच्छा से सगुन हो जाते हैं
हे विधे,
भगवान शिव की इच्छा से प्रकट हुए हम दोनों ने
प्रार्थना की थी तब पूरु काल में भगवान
शंकर ने जो बात कही थी उसे याद करो
हे ब्रह्मन,
अपनी शक्ती से सुन्दर लीला विहार करने वाले निर्गुन शिव ने
सुच्छा से सगुन होकर मुझको और तुमको प्रकट करने के पश्चात
तुमें तो सर्ष्टी कार्य करने का आदेश दिया
और उमा सहित उन अविनाशी स्रिष्टी करता प्रभुने
मुझे उस स्रिष्टी के पालन का कारिय सुपा
फिर नाना लीला अविशारत
उन दयालू स्वामी ने हस कर आकाश की ओर देखते हुए बड़े प्रेम से कहा
हे विश्णो मेरा उत्किष्ट रूप
इन विधाता के अंग से इस लोक में प्रगत होगा
जिसका नाम रुद्र होगा
रुद्र का रूप ऐसा ही होगा जैसा मेरा है
यह मेरा पून रूप होगा
वै
तुम दोनों के सम्पूंड मनवर्थों की
सिद्धी करने वाला होगा वै ही जगत का
परले करने वाला होगा वै समस्त गुणों का द्रस्ठा
निर्विशेष एवं उठ्तम यूग का पालक होगा
वो मेरा पूर्ण रूप होगा
पुत्रों देवी उमा के भी तीन रूप होगे
एक रूप का नाम लख्ष्मी होगा
जो इन श्री हरी की पत्नी होगी
दूसरा रूप
ब्रह्मा पत्नी सर्स्वती का है
तीसरा रूप
सती के नाम से प्रसिद्ध होगा
वो का पूर्ण रूप होगी वे ही भावी रुद्र की पत्नी होगी
ऐसा कहकर
भगवान महेश्वर हम पर कृपा करने के पस्चात वहां से अंतरध्यान होगई
और हम दोनों सुख पूर्वक अपने अपने कारिये में लगगई
ये ब्रह्मन समय पाकर मैं और तुम दोनों से पत्नीख
होगई और साक्षाद भगवान शंकर रुद्र नाम से अवतीन हुए
वे इस समय केलाज् परवद पर निवास करते हैं
जिवजिश्वर अब सिवा भी सती नाम से अवतरित होने वाली हैं
अतहः तुम्हें उनकी उत्पादन के लिए ही यत्न करना चाहिए
बोलिये शिवशंकर भगवान की जए
और साथवा आथवा नुवा और दस्वा अध्याय यहाँ पर समाप्त होते हैं
बोलिये शिवशंकर भगवान की जए
ओम्
नमहाँ शिवाय
ओम्
नमहाँ शिवाय
ओम् नमहाँ शिवाय