Nhạc sĩ: Traditional
Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650
बोलिये शिवशंकर भगवान की जए!
प्रिये भक्तों,
शिशिव महा पुरान के रुद्र सहीता
द्वितिय सती खंड की अगली कता है
सती और शिव के द्वारा अगनी की परिक्रमा
श्री हरी द्वारा शिव तत्व का वर्णन
प्रिये भक्तों,
आईये आरंब करते हैं
उननीस्मा और बीस्मा अध्याय
ब्रह्मा जी कहते है
हे नारद,
कन्या दान करके दक्षने भगवान शंकर को नाना परकार की वस्तुएं दहेज में दी
यह सब करके वे बड़े प्रसन हुए
फिर उननोंने ब्राह्मणों को भी नाना परकार के धन बाते
तद पश्यात लक्षमी जी सहित भगवान विश्नु
शंभू के पास आ हाथ जोड कर खड़े हुए और यों बोले
हे देव,
देव महादेव,
हे दया सागर,
हे प्रभो,
हे तात,
आप संपून जगत के पिता हैं
और सती देवी सब की माता हैं
यह सनातन शुती का कथन है
हे नारद,
मैं देवी सती के पास आकर
ग्रिह सुत्रोक्त विधी से विस्तार पूर्वग सारा अगनी कारिय कराने लगा हूं
मुझाचारिय तथा ब्रह्मनों की आज्या से शिवा और शिवने
बड़े हर्ष के साथ विधी पूर्वक अगनी की परिक्रमा की.
उस समय वहाँ बड़ा अध्भुत उत्सव मनाया गया,
गाजे बाजे और नत्य के साथ होने वाला भै उत्सव,
सबको बड़ा सुखत जान पड़ा.
तद अंतर भगवान विश्णू बोले,
सदाशिव,
मैं आपकी आज्या से यहां शिव तत्व का वर्णन करता हूं.
समस्त देवता तथा दूसरे दूसरे मुनी
अपने मन को एकागर करके इस विशे को सुने.
हे भगवन,
आप प्रधान
और एप्रधान अर्थात
प्रकृति और उससे अतीत हैं.
जोतिर में स्वरूप वाले आप,
परमिश्वर के ही हम तीनों देवता अंश हैं.
आप कौन,
मैं कौन
और ब्रह्मा कौन हैं?
आप परमात्मा के ही यह तीन अंश हैं.
जो सिश्टी पालन और संगार करने के कारण
एक दूसरे से भिन्य प्रतीत होते हैं.
आप अपने स्वरूप का चिंतन कीजिए,
आपने स्वेम ही लीला पूर्वक शरीर धारन किया है.
आप निर्गुन ब्रह्म रूप से एक हैं,
आप ही सगुन ब्रह्म हैं,
और हम ब्रह्मा,
विश्णू और रुद्र तीनों आपके यंश हैं.
जैसे एक ही शरीर के भिन्य भिन्य अवयव,
मस्तक,
ग्रीवा आधी नाम धारन करते हैं,
तत्थापी
उस शरीर से वे भिन्य नहीं हैं,
उसी परकार हम तीनों अंश आप परमिश्वर के ही अंग हैं,
जो जोतिर में आकाश के समान सर्वव्यापी एवं निरलेप
स्वेम ही अपना धाम, पुरान,
कूठस्त,
अव्यक्त,
अनन्त,
नित्य तथा दीर्घ आधी विशेशनों से रहित
निरविशेश ब्रह्म हैं.
ब्रह्मा जी कहते हैं, मुनिश्वर,
भगवान विश्णों की है बात सुनकर महादेव जी बड़े प्रसन हुए,
तद अंतर उस विभा यग्य के स्वामी यजमान परमिश्वर शिव प्रसन हो,
लोकी की गती का आश्रेले हाथ जोड कर खड़े हुए,
मुझ ब्रह्मा से प्रेम पूर्वक बोले.
शिव ने कहा,
ब्रह्मान,
आपने सारा व्यवहाई कारिय अच्छी तरहें संपन्य करा दिया,
मैं अब बहुत प्रसन हुँ,
आप मेरे आचारिये हैं,
बताईए,
आपको क्या दक्षणा दूँ?
सुर्जेश्ठ,
आप उस दक्षणा को मांगिये,
हे महाभाग,
यदी वह अत्यंत दुरलब हो,
तो भी उसे शिगर कहिये,
मुझे आपके लिए कुछ भी अदेय नहीं है,
हे मुने,
भगवान शंकर का यह वचन सुनकर,
मैं हात जोड विनीत चित से उने बारंबार पणाम करके बोला,
हे धेवेश,
यदी आप प्रसन हो,
और महेश्वर, यदी मैं वर पाने के योग्य हूँ,
तो प्रसनता पूर्वक जो बात कहता हूँ,
उसे आप पून कीजिये,
हे महादेव,
आप इसी रूप में, इसी वेदी पर सदा विराजबान रहें,
जिससे आपके दर्शन से मनुष्यों के पाप धूल जाएं,
चंदरशेकर,
आपका सानिध्य होने से,
मैं इस वेदी के समीप आश्य बना कर तपस्या करूँ,
यह मेरी अभिलाशा है,
चेहत्र के शुकल पक्ष की त्रियोधशी को,
पूर्वा भालुगनी नकशत्र में रविवार के दिन,
इस भूतल पर जो मनुष्य भक्ती भाव से आपका धर्शन करे,
उसके सारे पाप ततकाल नश्ठ हो जाएं,
विपुल पुन्य की व्रद्धी हो और समस्त रोगों का सर्वता नाश हो जाएं,
जो नारी दुर्भगा, वंध्या,
कानी अथ्वा रूप ही ना हो,
वेह भी आपके धर्शन मात्र से ही अवश्य निर्दोश हो जाएं,
हे विधात है,
ऐसा ही होगा,
मैं तुम्हारे कहने से संपोन जगत के हित के लिए,
अपनी पत्नी सती के साथ इस वेदी पर सुईस्थिर भाव से स्थिर रहुंगा।
ऐसा कहकर पत्नी सहीद भगवान शिव अपनी अंच रूपिनी मूर्ती को प्रगट करके
वेदी के मद्धि भाग में विराज्मान हो गए।
तत्पस्चात स्वय जनों पर स्नहे रखने वाले परमिश्वर शंकर दक्ष से विदाले,
अपनी पत्नी सती के साथ कैलाज जाने को उध्धत हुए।
उस समय उत्तम बुद्धी वाले दक्ष ने विने से मस्तक जुका कर
दोनों हात जोड भगवान विशब्धज की प्रेम पूर्वक स्तुती की।
फिर श्री विश्णू आदी समस्त देवताओं,
मुनियों और शिवगणों ने नमसकार पूर्वक नाना प्रकार
की स्तुती करके बड़े आनन्द से जैजैकार किया।
तदंतर
दक्ष की आज्या से भगवान शिव ने परसंता पूर्वक स्तुती को विशब्धज की पीठ
पर बिठाया और स्वेम भी उसपर आरुढ हो वे प्रभु हिमाले परवत की ओर चले।
भगवान शंकर के समीप व्रुषप पर बैठी हुई सुन्दर दानत
और मनोहर हास वाली स्तुती अपने नील शाम वर्ण के
कारण चंद्रमा में नीली रेखा के समान शोभा पा रही थी।
उससमे उन नव दंपत्ती की शोभा देख श्री विश्णू आदी समस्त देवता,
मरीची आदी महरशी तथा दूसरे लोग ठगी से रह गए।
हिल डूल भी न सके तथा दक्ष भी मोहित हो गए।
भगवान शंकर ने बीच रास्ते में दक्ष को परसनता पूरवक लोटा दिया और
स्वेम प्रेमा कुल हो प्रमत्खणों के साथ अपने धाम को जा पहुँचे।
यद्धपी भगवान शिव ने विश्णू आदी देवताओं को भी विदा कर दिया था
तो भी वे बड़ी परसनता और भक्ती के साथ पुने उनके साथ हो लिये।
उन सब देवताओं प्रमत्खणों तथा पनी पत्नी सती के साथ हर्ष भरे
शम्भु हिमाले परवथ से सुशोबित अपने केलाज धाम में जा पहुँचे।
वहाँ जाकर उन्होंने देवताओं,
मुनीओं तथा दूसरे लोगों का बहुत आधर सब्मान
करके उन्हें परसनता पूर्वक विदा किया।
शम्भु की आज्या ले विविश्णु आधी
सब देवता तथा मुनी नमसकार और इस्तुती करके मुख पर परसनता की चाप लिये
अपने अपने धाम को चले गए।
सदाशिव का चिंतन करने वाले भगवान शिव भी अन्तते आनन्दित हो
हिमाले के शिखर पर रहे कर अपनी पत्नी दक्ष कन्या सती के साथ
विहार करने लगे।
सूत जी कहते हैं
हे मुनीयो
पूर्व काल में स्वेंभू मन्वंतर में भगवान
शंकर और सती का जिस प्रकार विभा हुआ
वह सारा प्रसंग मैंने तुम से कह दिया।
इस शुब उपाख्यान को प्रेम पूर्वक सुनकर
विभाहित होने वाली कन्या भी सुख,
सोभाग्य,
सुशीलता और सदाचार आदी सद गुणों से समपन्य
साधवी इस्तरी तथा पुत्रवती होती है।
बोल ये शिवशंकर भगवान की जैये।
प्रिये भगतों,
इस प्रकार यहां पर सिशिव महा पुरान के
रुद्र सहीता द्वितिय सती खंड की ये कथा
तथा उन्निस्मा और बीस्मा अध्याय हाँ पर समाप्त होता है।
बोल ये शिवशंकर भगवान की जैये।