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Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Dwitiya Sati Khand Adhyay-21, 22, 23

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Kailash Pandit

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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Dwitiya Sati Khand Adhyay-21, 22, 23

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोल ये शिवशंकर भगवान की ज़ै!
प्रिये भक्तों,
शिशिव महा पुरान के रुद्र सहीता
द्वतिय सिश्टी खंड की अगली कथा है
सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान शिव द्वारा
ज्ञान एवं नवधा भकती के स्वरूप का विवेचन
तो आईए भक्तों,
आरंब करते हैं कथा सहित
इकिस, बाईस और तेइस्मा अध्याय
कैलास तथा हिमाले परवत पर श्रीशिव और सती के विविद
विहारों का विस्तार पूर्वक वर्णन करने के पस्चात
दम्मा जी ने कहा,
हे मुने एक दिन की बात है देवी सती एकांत में भगवान शंकर से मिली
और उन्हें भकती पूर्वक परणाम करके दोनों हाथ जोड कड़ी हो गई,
प्रभू शंकर को पूर्ण प्रसन जान नमस्कार
करके विनीद भाव से कड़ी हुई दक्ष कुमारी
प्रणाम करके दोनों हाथ जोड करके दोनों हाथ जोड
करके विनीद भाव से कड़ी हुई
दक्ष कुमारी
प्रणाम करके दोनों हाथ जोड
करके दोनों हाथ जोड करके दोनों हाथ
जोड करके दोनों हाथ जोड करके दोनों हाथ
देविश्वर हर
अब तो मैं उस परम तत्व का ज्यान प्राप्त करना चाहती हूँ
जो निर्तिश्य सुख प्रदान करने वाला है
तथा जिसके द्वारा जीव संसार दुख से अनायासी उध्धार पासकता है
हे नात
जिस कर्म का अनुष्थान करके विशयी जीव भी परम पद को प्राप्त करलें
और संसार बंधन में न बंधें उसे आप बतलाईए
मुझपर करपा कीजिये भगवन
ब्रह्मा जी कहते हैं हे मुने इस प्रकार आधि शक्ती महेश्वरी
सती ने केवल जीवों के उध्धार के लिए जब उत्तम
भक्ती भाव के साथ भगवान शंकर से प्रश्न किया
तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्विच्छा
से शरीर धार्म करने वाले तथा योग के द
अध्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा
शिव बोले
देवी दक्षनन्दनी हे महेश्वरी सुनो मैं उसी परम तत्व का वर्णन करता हूं
जिस से वासना वद्ध जीव ततकाल मुक्त हो सकता है
हे परमिश्वरी
विज्ञान वहेविज्ञान दुरलब है
इस त्रिलोकी में उसका ग्याता कोई विरला ही हुता है
वह जो और जैसा भी है सदा मेरा स्वरूप ही है
साक्षात परात पर ब्रम है
उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ती
जो यो भोग और मोक्ष रूप फल प्रदान करने वाली है
आमने god
जाति हीन नीच मनुश्यों के घरों में भी चला जाता हूँ
इसमें संशे नहीं है
भगतो ज्याने नभेदो ही
तत् करतूह सर्वदा सुखम
विज्ञानम्ने भवत्ति एव
सती भगति विरोधिनह
भगताधिनह सदाहंव
तत् प्रभावाद ग्रहेश्वपी
नीचानाम जाति हीनानाम
हे
शती यह भगति दो प्रकार की है
सगुना और निर्गुना
जो वैधी शास्त विदी से प्रेरित
और स्वाभावी की
हिर्दय के सहज अनुराग से प्रेरित
भगती होती है
वैधी शिष्ट है तब इससे भिन जो कामना मूलक
भगती होती है वैधी निम्न कोटी की मानी गई है
पूर्वोक्त सगुना और निर्गुना
ये दोनों प्रकार की भगतिया
नैश्ठिकी और अनैश्ठिकी के भेद से दो भेद वाली हो जाती है
अनैश्ठिकी की भगती एक भेद होगा
मुणियों ने सगुना और निर्गुना दोनों भक्तियों के नो अंग बताये हैं।
दक्ष नन्दनी,
मैं उन नो अंगों का वड़न करता हूं,
तुम प्रेम से सुनो।
हे देवी,
शवन,
कीर्तन,
इस्मरन,
सेवन,
दास्य,
अर्चन,
सदा मिरा वन्दन,
सक्य और आत्म समर्पन ये विद्वानों ने भक्ति के नो अंग माने हैं।
शवनं
कीर्तनं चेव इस्मरनं सेवनं तथा दास्यां तथा अर्चनं देवी,
हे श्वे,
भक्ति के उपांग भी बहुत से बताए गए हैं।
देवी,
अब तुम मन लगा कर मेरी भक्ति के पुर्वोक्त
नवो अंगों के पृठिक पृठिक लक्षन सुनो।
वे लक्षन भोग तथा मोक्ष परदान करने वाले हैं,
जो इस्थिर आसन से बैठकर तन,
मन आदी से मेरी कथा,
कीर्तन आदी का निठ्य सम्मान करता हुआ,
प्रसन्यता पूर्वक
अपने शवन पुटों से उसके अम्रतोपं ब्रस का पान करता है,
उसके इस साधन को शवन कहते हैं,
जो हिर्देकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म कर्मों का चिंतन करता हुआ,
प्रेम से,
वानी द्वारा उनका उच्छ स्वर से उचारन करता है,
उसके इस भजन साधन को कीर्तन कहते हैं.
देवी,
मुझ नित्यमहिश्वर को सदा और सरवत्र व्यापक जानकर,
जो संसार में निरंतर निर्भए रहता है,
उसी को स्मन कहा गया है.
अरुनोदै से लेकर हर समय सेव्य की
अनुकूलता का ध्यान रखते हुए,
हिरदै और इंद्रियों से जो निरंतर सेवा की जाती है,
वही सेवन नामक भकती है.
अपने को प्रभू का किंकर समझकर,
हिरद्यामृत के भोग से स्वामी का सदा
प्रिय संपाधन करना दास्य कहा गया है.
अपने धन वैभाव के अनुसार शास्त्रिय विदी से मुझ परमात्मा
को सदा पाध आदी सोले उपचारों का जो समर्पन करता है,
उसे अर्चन कहते हैं.
मन से ध्यान और वानी से वन्दनात्मक मंत्रों के उच्छारन पूर्वक
आठो अंगों से भूतल का इस्पर्श करते हुए,
जो ईश्ट देव को नमस्कार किया जाता है,
उसे वन्दन कहते हैं.
ईश्वर मंगल या अमंगल,
जो कुछ भी करता है,
वह सब मेरे मंगल के लिए ही है.
ऐसा दृध विश्वास रखना सक्य भक्ती का लक्षन है.
मंगला मंगलं यत यत कोरो तितिश्वरोहिमे,
सर्वतन्मंगलायेति विश्वासः सक्य लक्षनं,
देह आदि,
जो कुछ भी अपनी कही जाने वाली वस्तु है,
वह सब भगवान की प्रसन्नता के लिए,
उनहीं को समर्पित करके,
अपने निर्वाह के लिए भी कुछ बचा कर न रखना,
अथवा निर्वाह की चिन्ता से भी रहित हो जाना आत्मसमर्पन कहलाता है.
ये मेरी भक्ती के नो अंग हैं,
जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं,
इनसे घ्यान का प्राकट्य होता है,
तत्हा ये सब साधन मुझे अध्यंत प्रिय हैं.
मेरी भक्ती के बहुत से उपांग भी कहे गए हैं,
जैसे बिल्ब आदी का सेवन आदी,
इनको वो विचार से समझ लेना चाहिए.
हे प्रिये,
इस प्रकार मेरी सांगो पांग भक्ती सबसे उत्तम है,
ये है घ्यान,
वैराज्ञ की जननी है और मुक्ती इसकी दासी है.
ये भक्ती मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिये है,
जिसके चित में नित्य निरंतर ये भक्ती निवास करती है,
वै साधक मुझे अत्यंत प्यारा है.
ये विश्वरी तीनों लोकों और चारों युगों में
भक्ती के समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है,
कल युग में तो ये विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है.
त्रेलोक के भक्ती सद्रश्य है,
पन्था नास्ती सुखावह,
हे देवी,
कल युग में प्राय ज्ञान और वैराज्य के कोई ग्राहक नहीं है,
इसलिए वे दोनों व्रद्ध उत्साह शोन्य और जरजर हो गए हैं,
पन्तु भक्ती कल युग में तथा अन्य सब
युगों में भी तत्यक्ष फल देने वाली है,
भक्ती के प्रभाव से मैं सदा उसके वश्च में रहता हूं,
इस में संचे नहीं है,
संसार में जो भक्ती मान पुरुष हैं,
उनकी मैं सदा सहायता करता हूं,
उसके सारे विगनों को दूर हटाता हूं,
उस भक्त का जो शत्रु होता है,
वे मेरे लिए दंडनीय है,
इस में संचे नहीं है,
यो भक्ती मान पुमानल लोके सदाहं तत् सहायकतः,
विगन हर तारि पुस्तस्य,
दंडयो नात्रचे संशय,
ए देवी मैं अपने भक्तों का रखशक हूं,
भक्त की रखशा के लिए ही मैंने कुपित हू अपने
नित्र जनित अगनी से काल को भी दगद कर डाला था,
ए प्रिये भक्त के लिए मैं पूर्व काल में सूर्ये पर भी
अत्यंत कुद्ध हो उठा था और शूर लेकर मैंने उसे मार भगाया था,
देवी भक्त के लिए मैंने सैन्य सहित रावन को भी क्रोध पूर्वक त्याग दिया
और उसके प्रती कोई पक्षपात नहीं किया,
पर ये शती,
देविश्वरी,
बहुत कहने से क्या लाब,
मैं सदाही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ती
करने वाले पुरुष के अत्यंत वश्मे हो जाता हूँ.
वह कहते हैं,
हे नारद,
इसप्रकार भक्त का महत्त सुनकर दक्ष कन्यासती को बड़ा हर्ष हुआ,
उनोंने अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक भगवान शिव को मन ही मन परणाम किया.
उनोंने सती देवी ने पुनहे भक्ती कान्ड़
विश्यक शास्त्र के विशेमे भक्ती पूर्वक पूचा.
उनोंने जिग्ञासा की कि जो लोक में सुखदायक
तथा जीवों के उद्धार के साधन का प्रतिपादक है,
वह शास्त्र कौन सा है?
उनोंने यंत्र, मंत्र,
शास्त्र,
उसके महात्म तथा अन्य जीवों धारक धारम पे साधनों
के विशेमे विशेष रूप से जानने की च्छा प्रकट की.
सती के इन प्रश्नों को सुनकर शंकर जी के मन में बड़ी परसन्यता हुई.
यद सदाधी, जपनी माथThanks
all constantants,
बवात लेवताओं के भख्तों की महिमा का वर्णाश्रम
धर्मोँ का तथा राजधर्मोँ का भग यरूपण किया
पुत्र और कड़ के धर्म की महिमा का
कभी नष्ट न होने वले वर्णाश्रम धर्म का
जीवों को सुख देने वाले वैधक शास्त तथा जोतिष शास्तर का भी वर्णन किया
महिश्वर ने कृपा करके उत्तम सामुद्रिक शास्तर का
तथा और भी बहुत से शास्तरों का ततत्व वर्णन किया
इसप्रकार लोकोपकार करने के लिए सद्गुन संपन्य
शरीव धारन करने वाले त्रिलोक सुखदायक और सर्वग्य
सत्ती शिव हिमाले के केलाश शिखर पर तथा अन्यान्य
स्थानों में जाकर नाना प्रकार की लीलाएं करते थे
वे दोनों दंपति साक्षात पर ब्रह्म स्रूप हैं
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैए
प्रिया भक्तों
इसप्रकार यहाँ पर
रुद्र सहीता
द्वित्यस सती खंड का
इकिसमा,
बाईसमा और तेइसमा अध्याय यहाँ पर समाप्त होता है
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैए

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