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Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Tritiya Parvati Khand Adhyay-20, 21

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Kailash Pandit

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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Tritiya Parvati Khand Adhyay-20, 21

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोली शिवशंकर भगवान की
ज़ेव
प्रिया भक्तों
श्री शिव महा पुरान के
रुद्ध सहीता
तृत्ये पारवती खंड की
अगली कथा है
ब्रह्मा जी का शिव की क्रोधागनी को
बडवानल की संग्या दे
समुद्र में इस्थापित करके
संसार के भय को दूर करना
शिव के विरह से पारवती का शोक तथा ब्रह्मा जी के द्वारा
उन्हें तपस्चा के लिए उपदेश पूर्वक पंचाक्षर मंत की प्राप्ती
तो आईये भक्तों आरंब करते हैं ये कथा
और इसके साथ 20 मा तथा 21 मा अध्याय
ब्रह्मा जी कहते हैं
तुलन्त मेरी शर्ण में आये उन सबने अथ्यन्त व्याकुल होकर मस्तक जुका
दोनों हात जोड मुझे प्रनाम किया और मेरी स्तुती करके वहे दुख निवेदन किया
वहे सुनकर मैं भगवान शिव का इसमर्ण करके उसके हेतु का भली भात
विचार कर तीनों लोकों की रखशा के लिए विनीद भाव से वहां पहुँचा
वहे अगनी जुआला मालाओं से अथ्यन्त अधिप्त
हो जगत को जला देने के लिए उध्धत थी
परन्तु भगवान शिव की किरपा से प्राप्त होई उठ्तम
तेज के द्वारा मैंने उसे ततकाल इस्तंबित कर दिया
हे मुने तिरलोकी को दगद करने की इच्छा रखने वाली उस क्रोध
में अगनी को मैंने एक ऐसे घोड़े के रूप में परिणत कर दिया
जिसके मुक से सोम में जुआला प्रकट हो रही थी
भगवान शिव की इच्छा से उस वाडव शरीर घोड़े वाली
अगनी को लेकर मैं लोक हित के लिए समुद्र तथ पर गया
हे मुने मुझे आया देख समुद्र एक दिव्य पुरुष
का रूप धारन करके हाथ जोड़े हुए मेरे पास आया
मुझे सम्पूर्ण लोकों के पिता महे की भरी
भाती विदिवत इस्तुती वन्दना करके सिन्धु ने
मुझे से प्रसन्नता पूर्वक कहा
सागर बोला
हे सर्वेश्र ब्रहमन आप यहां किसलिये पधारे हैं
मुझे अपना सेवक समझ इस बात को प्रिति पूर्वक कहिए
सागर की बात सुनकर भगवान शंकर का एस्मन करके लोग हित
का ध्यान रखते हुए मैंने उससे प्रसन्नता पूर्वक कहा
हे तात समुद्र तुम बड़े बुद्धीमान और संपून लोकों के हितकारी हो मैं
शिव की इच्छा से प्रेरित हो हारदिक प्रीति पूर्वक तुम से कह रहा हूं
यह भगवान शंकर का
क्रोध है जो महान शक्तिशाली अश्व के रूप में यहां उपस्तित है
यह कामदेव को दग्द करके तुनत्ही सम्पून
जगत को भस्म करने के लिए उधधत हो गया था
यहे देख पीडित हुए देवताओं की प्रार्थना से मैं
शंकर इच्छा वश वहां गया और इस अगनी को इस्थमबित किया
फिर इसने घोड़े का रूप धारन किया और इसे लेकर मैं यहां आया
जलाधार
मैं जगत पर दया करके तुम्हे एक आदेश दे रहा हूँ
इस महिश्वर के क्रोध को जो वाडव का रूप धारन करके मुक से जौला
प्रगट करता हुआ खड़ा है तुम प्रलेकाल परियंत धारन किये रहो
सरिपते जम मैं यहां आकर वास करूँगा
तब तुम भगवान शंकर के इस अदबुत क्रोध को छोड़ देना
तुम्हारा जल ही प्रति दिन इसका भोजन होगा
तुम यतन पूर्वा किसे उपर ही धारन किये रहना
जिससे यह तुमारी अनंत जल दाशी के भीतर न चला ज
जो दूसरे के लिए असभाव था तरन तर वह बड़वाग्नी समद्र में प्रविश्ट
होई और जौला मालायों से प्रदिप्त हो सागर की जल राशी का देहन करने लगी
हे मुने इस से सन्तुष्ट चित होकर मैं अपने लोक को चलाया और
वै दिव्यरूप धारी समुद्र मुझे प्रनाम करके अद्रिश्य हो गया।
महा मुने रुद्र की उस क्रोधागनी के भय से चुट कर संपून जगत
स्वस्थता का अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनी सुखी हो गये।
नारत जी बोले नारायन नारायन हे दया निधे
मदन देहन के पश्यात गिरी राज ननदनी पारवती देवी ने क्या किया
वे अपनी दोनों सक्यों के साथ कहां गई ये सब मुझे बताईए।
ब्रह्मा जी ने कहा भगवान शंकर के नेतर से उतपन्य हुई आग ने जब कामदेव को
दग्द किया तब वहां महान अदवुत शब्द प्रगट हुआ इस से सारा आकाश गूँज उठा।
उस महान शब्द के साथ ही कामदेव को दग्द हुआ देख भैभीत और
व्याकूल हुई पारवती दोनों सक्यों के साथ अपने घर चली गई।
उस शब्द से परिवार सहित हिमवान भी बड़े विश्मे में पड़ गए
और वहां गई हुई अपनी पुत्री का इसमन करके उसे बड़ा कलेश हुआ।
इतने में ही परवती दूर से आती वी दिखाई
दी वे शम्बू के विरह से रो रही थी
अपनी पुत्री को अत्यंत विहवल हुए देख शैलराज हिमवान
को बड़ा शोक हुआ और वे शिगर ही उसके पास जा पहुँचे।
वे फिर हाथ से उसकी दोनों आँखें पोचकर बोले,
हे शिवे डरो मत,
रो मत
ऐसा कहकर असलेश्वर हिमवान ने अत्यंत विहवल हुई परवती को शिगर
ही गोद में उठा लिया और उसे सांतुना देते हुए वे अपने घर ले आए।
काम देव का दाह करके महादेव जी अध्रिश्य हो गए थे
अत्याए उनके विरह से परवती अत्यंत व्याकुल हो उठी
थी। उन्हें कहीं भी सुख या शान्ती नहीं मिल रही थी।
पिता के घर जाकर जब वे अपनी माता से मिली उस
समय परवती शिवा ने अपना नया जन्म हुआ माना।
वे अपने रूप की निन्दा करने लगी और बोली हाई मैं मारी गई।
सक्हियों के समझाने पर भी वे गिरीराज कुमारी कुछ समझ नहीं पाती थी।
वे सोते जागते, खाते पीते, नहाते धोते,
चलते फिरते और सक्हियों के बीच में खड़े होते समय
भी कभी किंचिन मात्र भी सुख का अनूभव नहीं करती थी।
मेरे स्वरूप को तथा जन्म कर्म को भी धिक्कार है।
ऐसा कहते हुए वे सदा महादेव जी के प्रतेक चेष्टा का चंतन करती थी।
एय तात शिवा शोक मगन हो बारम बार मूळचछित हो जाती थी,
शैल राज हिमवान,
उनकी पत्नी मेनका तथा उनके मैनाक आदी सभी पुत्र जो बड़े उदार चेता
थे वे सदा सांत्वना देते रहते थे तथापी वे भगवान शंकर को भूल ने सकी
बुद्धीमान देवरशे,
तदन्तर एक दिन इंद्र की पिरिणा से
इच्छानुसार घूमते हुए तुम हिमाले परवत पर आये
उस समय महात्मा हिमवान ने तुम्हारा स्वागत सतकार किया और कुशल मंगल पूछा
फिर तुम उनके दिये हुए उत्तम आसन पर बैठे,
तदन्तर शैलराज ने अपनी कन्या के चरित का आरंब से ही वढन किया
किस तरहें उसने महादेव जी की सेवा आरंब की और किस
तरहें उनके द्वारा कामदेव का देहन हुआ यह सब कुछ बताया
नारायन, नारायन, नारायन
अताशिव के प्रिय भक्त हुं
समस्त ग्यानवानों के शिरोमनी हू
अतेह काली के पास आ उसे संभौधित करके
उसी के हित में इस्थित हू
उससे सादर यह सत्य वचन बोले
नारद ने कहा
नारायन नारायन
हे काली के तुम मेरी बात सुनो
मैं दयावस सची बात कह रहा हूं मेरा वचन तुम्हारे लिए सर्वता
हितकर है निर्दोश तथा उत्तम काम में वस्तवों को देने वाला होगा
तुमने यहां महादेव जी की सेवा अवश्च की थी
परन्तू है बिना तपस्या के गर्व युक्त होकर की थी
दीनों पर अनुग्रह करने वाले शिवने तुम्हारे उसी गर्व को नष्ट किया है
शिवे तुम्हारे स्वामी महिश्वर विरक्तोर महायोगी हैं
उन्होंने केवल काम देव को जलाकर जो तुम्हें सकुशल छोड़ दिया है
उसमें यही कारण है कि वे भगवान भक्त वच्चल हैं
अतेह तुम उत्तम तपस्या में सल्लगन हो चिरकाल तक महिश्वर की आराधना करो
तपस्या से तुम्हारा संसकार हो जाने पर रुद्रदेव तुम्हें अपनी सह धर्मनी
बनाएंगे और तुम भी कभी उन कल्यान कारी शंबु का परित्याग नहीं करोगी
नारायन नारायन ए देवी तुम हट पूर्वक शिव को अपनाने का यतन
करो शिव के सिवा दूसरे किसी को अपना पती स्विकार न करना
ब्रह्मा जी कहते हैं
हे मुने
तुम्हारी यह बात सुनकर
गिरिराज कुमारी
काली
कुछ उल्लासित हो तुमसे हाथ जोड प्रसनता पूर्वक बोली
शिवा ने कहा
प्रभू
आप सरवग्य
तथा जगत का उपकार करने वाले हैं
हे मुने
मुझे रुद्र देव की आराधना के लिए कोई मंतर दीजिये
ब्रह्मा जी कहते हैं हे नारद पारवती का
यह वचन सुनकर तुमने पंचाक्षर शिव मंतर नमः
शिवाय
का उन्हे विधी पूर्वक उपदेश किया साथ ही
उस मंतराज में शद्धा उतपन्न करने के लि
नारायन नारायन नारायन
तुम्हारे द्वारा आराधित हुए भगवान शिव अवश्य और
शिग्र तुम्हारी आखों के सामने प्रगट हो जाएंगे
हे शिवे शोच संतोष आधी नियमों में तत्पर रहे
कर भगवान शिव के स्वरूप का चिंतन करती हुई
तुम पंचाक्षर मंत्र का जब करो इस से
आराध्यदेव शिव शिग्र ही संतुष्ट होगे
हे साधवी इस तरहें तपस्या करो तपस्या से परमिष्चर वश्मे हो सकते हैं
तपस्या से ही सब को मनोवान चित फल की
प्राप्ती होती है अन्यथा नहीं नारायन नारायन
ब्रह्मा जी कहते हैं
हे नारद
तुम भगवान शिव के प्रिय भक्त और इच्छा अनुसार विचरने वाले हो
तुमने कालीग से उपर्युक्त बात कहकर देवताओं के
हितमे तत्पर हो स्वर्ग लोक को प्रस्थान किया
तुभारी बात सुनकर उस समय पार्वती बहुत प्रसन्न
हुई उने परम उत्तम पंचाक्षर मंत्र ताप्त हो गया था
बोलिये शिवशंकर भगवान की जए तो प्रिय भक्तो इस
प्रकार यहाँ पर श्रीशिव महा पुरान के रुद्र सहीता
तुरितिय पार्वती खंड की ये कथा और 20 तथा 21 अध्या
यहाँ पर समाप्त होता है बोलिये शिवशंकर भगवान की जए
होम
नमहः शिवाय
होम
नमहः शिवाय
होम
नमहः शिवाय

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