Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवान की जए!
प्रिये भगतों,
श्रीशिव महापुरान के रुद्र सहीता
चतुर्त कुमार खंड की अगली कथा है
पारवती द्वारा गनेश जी को वरदान
देवों द्वारा उन्हें अग्र पुज्य माना जाना
शिवजी द्वारा गनेश को सर्वाधक्ष पद प्रदान और गनेश चतुर्ती व्रत का वरणन
तत्पश्यात सभी देवताओं का उनकी स्तुती करके
हर्ष पूरुअक अपने अपने स्थान को लोड जाना
बोलिये शिवशंकर भगवान की जए!
तो आईए भगतों,
आरंब करते हैं इस कथा के साथ उनीस्मा अध्याय
ब्रह्मा जी कहते हैं
हे मुने
जब विक्रत्त स्वरूप वाले किर्जा पुत्र
गजानन व्यग्रता रहित होकर जीवित हो गए
तब गणनायक देवोंने उनका अभिशेक किया
अपने पुत्र को देखकर पार्वती देवी आनन्मगन हो गई
और उनोंने
हरशातिरेक से उस पालक को दोनों हातों से पकड़कर
छाती से लगा लिया
फिरमभिकारने प्रसन्न होकर अपने पुत्र गणईश को
अनेक प्रकार के वस्त्रो और आभूषन प्रदान किये
तद अंतर सिद्धियोंने अनेको विधी विधान से उनका पूजन किया
और माताने अपने सर्व दुख हारी हाथ से
उनके अंगों का इसपर्ष किया।
इसपर्कार
शिव पत्नी पारवती देवी ने
अपने पुत्र का सतकार करके उसका मुख चूमा
और प्रेम पूर्वक उसे वरदान देते हुए कहा
हे बेटा इस समय तुझे बड़ा कश्ट जहेलना पड़ा है
किन्टु अब तु क्रित्क्रित्य हो गया है तु धन्य है
अब से सम्पून देवताओं में तेरी अग्र पूजा होती रहेगी
और तुझे कभी दुख का सामना नहीं करना पड़ेगा
जो मनुश्य पुश्प चंदन सुन्दर गंध नैविद्ध रमणीय आर्ती तांबूल और दान
से तथा परिकरमा और नमस्कार करके विधी पूर्वक तेरी पूजा करने लेगे
उसे सारी सिद्धियां हस्तगत हो जाएंगी
और उसके सभी परकार के विगन नश्ठ हो जाएंगे
इसमें लेश मात्र भी संशे नहीं है ब्रह्मा जी कहते हैं
हे मुने
महिश्री देवी ने अपने पुत्र गनेश से यों कहकर
उसे नाना परकार की वस्तवें प्रदान करके पुनें उसका विननजन किया
हे प्रिये तव घिर्जा की कृपा से उसी खशन देवताओं
और शिवगणों का मन विशीष रूप से शान्त हो गया
तद अंतर इंद्र आधी देवताओं ने
हर शातिरेक से शिवा की इस्तुती की और उन्हें प्रसन्न करके
विभक्ती भावित चित से गनेश देव को लेकर शिव जी के समीप चले
वहाँ पहुँचकर उन्होंने
तिरलोकी की कल्यान कामना से
भवानी के उस बालक को
शिव जी की गोद में बैठा दिया
तब शिव जी भी उस बालक के मस्तक पर अपना करकमल फेरते हुए देवताओं से बोले
यह मेरा दूसरा पुत्र है तक पश्चात गनेश ने भी उठकर
शिव जी के चर्णों में अभिवादन किया
फिर पार्वती को, मुझ को,
विश्णू को और नारद आदी सभी रिशीयों को
प्रनाम करके आगे खड़े होकर उन्होंने कहा
यों अभिमान करना मनुश्य का स्वभाव ही
है अते आप लोग मेरा प्राद ख्शमा करें
तब मैं शंकर और विश्णू इन तीनों देवताओं ने एक साथ
ही प्रेम पूर्वक उन्हे उत्तम्वर प्रदान करतेवे कहा
हे सुर्वरो जैसे तिरलोकी में हम तीनों देवों की पूजा होती है
उसी तरहें तुम सबको इन गणेश का भी पूजन करना चाहिए
मनुश्यों को चाहिए कि पहले इनकी पूजा
करके तत पष्चाथ हम लोगों का पूजन करें
पूजन करें
ऐसा करने से हम लोगों की पूजा संपन्य हो जाएगी
हे देवगणो यदि कहीं इनकी पूजा पहले न करके अन्य देव का पूजन किया गया
तो उस पूजन का फल नष्ट हो जाएगा
इसमें अन्यता विचार करने की आवशक्ता नहीं है
ब्रह्मा जी कहते हैं
हे मुने तद अंतर ब्रह्मा विश्णू और शंकर आदी सभी देवताओं ने
मिलकर पारवती को प्रसन करने के लिए वहीं
गनेश जी को सर्वाध्यक्ष गोशित कर दिया
हे घृजानन्दन,
निसंदेव में तुम परम्प्रसन हुं
मेरे प्रसन हो जाने पर अब तुम सारे जगत को ही प्रसन हुआ समझ
अब कोई भी तेरा विरोध नहीं कर सकता। तू
शक्ती का पुत्र है अतहे अत्यंत तेजस्री है।
बालक होने पर भी तूने महान पराकरम प्रकट
किया है। इसलिए तू सदा सुखी रहेगा।
इतना कहने के पश्चाद
महात्मा शंकर अत्यंत प्रसन्यता के कारण
गनेश को पुने वर्दान देते हुए बोले
हे गनिश्वर
तू भाद्र पदमास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथी
को चंद्रमा का शुभोदै होने पर उत्पन्य हुआ है।
जिस समय गिर्जा के सुन्दर चित से तेरा रूप प्रकट
हुआ उस समय रात्री का प्रतं प्रहर बीट रहा था।
उसी दिन से आरम्भ करके उसी तिथी में तेरा उत्तम वृत करना चाहिए।
यहे वृत
परम्शोभन तथा संपून सिद्धियों का प्रदाता है।
वर्ष के अंत में जब पुनें वही चतुर्थी आ जाये,
जब तक मेरे कतना अनुसार तेरे वृत का पालन करना चाहिए।
इनें संसार में अने को परकार के अनूपम सुखों की कामना हो,
उनें चतुर्थी के दिन भक्ती पूर्वक विधी सहीथ
तेरा पूजन करना चाहिए।
अगर वह वर्ष के लिए ब्राह्मनों से निवेदन करें,
पूर्वकत विधी से वुआस करें,
फिर धातू की,
मूंगे की,
श्वेत मदार की अत्वा मिट्टी की मूर्थी
बना कर उसकी प्रान प्रतिष्ठा करें,
और भक्ती भाव से नाना परकार के दिव्य गंधों,
चंदनों और पुश्पों से उसकी पूजा करें।
पुने रात्री का प्रतं प्रहेर बीच जाने पर इसनान करके
दुर्वा दलों से पूजन करना चाहिए।
बारे दुर्वा जड रहित,
बारे अंगल लंबी और तेन गाँठों वाली होनी चाहिए।
ऐसी 101 अथवा 21 दुर्वा से
उस इस्ठापित प्रतिमा की पूजा करें।
पिर
गनिश का इस्वर्ण करके
अपने सभी नीयमों का विसरजन करतें।
व्रत की पूर्ती के लिए व्रत तो ध्यापन का कारिय भी संपन्ने करें।
इसमें मेरी आज्या अनुसार बारे ब्रामणों को भूजन कराना चाहिए।
व्रती को चाहिए कि वे एक कलश स्थापित
करके उस पर तेरी मूर्ती की पूजा करें।
अधपश्चाद वेद विधी के अनुसार वेदी का निर्मान करके उस
पर अश्ट दल कमल वनाएं। फिर उसी पर धन की कंजुसी छोड़कर
हवन करें। पुनहे मूर्ती के सामने दो इस्त्रियों और दो
बालकों को बिठाकर विधी पूर्वक उनकी पूजा करें। और स
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जो श्रद्धा सहीत अपनी शक्ती के अनुसार नित्त तेरी पूजा करेगा,
उसके सभी मनूरत सभल हो जाएगी.
मनुष्यों को सिंदूर,
चंदन, चावल,
केत की पुष्प आदी अनेकों उपचारों द्वारा गनिश्वर का पूजन करना चाहिए.
यों जो लोग नाना प्रकार के उपचारों से भक्ती पूर्वक तेरी पूजा करेंगे,
उनके विघनों का सदा के लिए नाश हो जाएगा
और उनकी कार्य सिद्धी होती रहेगी.
सब वर्ण के लोगों को,
विशेशकर इस्त्रियों को
यह पूजा अवश्य करनी चाहिए.
तधा
अभ्युदय की कामना करने वाले राजाओं के लिए भी यह वरत
अवश्य कर्तव है.
वरती मनुष्य जस जस वस्तों की कामना करता है,
उसे निष्चे वह वस्तों प्राप्त हो जाती है.
अते जिसे किसी वस्तों की अभिलाशा हो,
उसे अवश्य तेरी सेवा करनी चाहिए.
ब्रह्मा जी कहते हैं,
नाना प्रकार की पूजन सामक्री से गनिश्वर की विशेश
रूप से अर्चना की और उनके चर्णों में प्रणाम किया.
हे मुनिश्वर,
उस समय गिर्जा देवी को
जो आनन्द प्राप्त हुआ,
उसका वर्णन मेरे चारों मुखों से भी नहीं हो सकता.
तब फिर मैं उसे कैसे बताओं?
उस अफसर पर देवताओं की दुंदवियां बजने लगी,
अफसराएं निर्ठे करने लगी,
गन्धार्वर श्रेष्ट गान करने लगे और पुश्पों की वर्षा होने लगी.
सारे जगत में
शान्ती स्थापित हो गई और सारा दुख जाता रहा.
हे नारद,
शिव और पारवती को तो विशेश आनन्द प्राप्त हुआ
और सर्वत्र अनेक प्रकार के सुख दायक मंगल होने लगे.
तद अंतर संपूम देवगण और रिशीगण जो वहाँ पधारे हुए थे,
वे सभी शिव की आज्या से अपने अपने इस्थान को चले.
उस समय वे शिव जी की स्तुती करके गनेश और पारवती की बारंबार
करते हुए चले जा रहे थे.
इधर जब घिर्जा देवी का क्रोध शांत हो गया,
तब शिव जी भी,
जो स्वात्मराम होते हुए भी सदा भक्तों का
कारिय सिद्ध करने के लिए उध्धत रहते हैं.
तब मैं,
ब्रह्मा
और विश्णू,
दोनों भक्ती पूर्वक शिव शिवा की सेवा करके,
शिव की आज्या ले,
अपने अपने धाम को लोट गई.
जो मनुश्य जितेंद्रिय होकर इस परमांगलिक आख्यान को शर्ण करता है,
वे सम्पून मंगलों का भागी होकर मंगल भवन हो जाता है.
इसके शवण से पुत्रहीन को पुत्र की,
निर्धन को धन की,
जो शोक सागर में डूबरहा हो,
वे इसके शवण से निसंदेषवक रहित हो जाता है.
यह गनेश चरित्र सम्मन्दी ग्रंत जिसके घर में सदा वर्तमान रहता है
वै मंगल संपन्य होता है इसमें तनिक भी संचे की गुञ्जाईश नहीं है
जो यात्रा के अउसर पर अथ्वा किसी भी पुन्य परवक पर
इसे मन लगा कर सुनता है
वै श्री गनेश जी की कृपा
बोलिये शिव शंकर भगवाने की जए
तो प्रिये भगतो इस प्रकार
यहाँ पर
शोरी शिव महापुरान के रुद्र सहीता
चतुर्थ कुमारखन्ड की यह कता
और 19 अध्रहय्य यहाँ पर समाप्त होते हैं
तो बोलिये शिवशंकर भगवाने की जए!