Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की..
जैये..
प्रीय भगतों..
श्री शिव महा प्राण के रुद्र सहीता..
चतुर्थ कुमार खंड की अगली कथा है..
शिवा का अपनी मेल से गनेश को उत्पन्य करके..
द्वारपाल पद पर नियुक्त करना..
गनेश द्वारा शिव जी के रोके जाने पर
उनका शिव गणों के साथ भयंकर संग्राम..
शिव जी द्वारा गनेश का शिर छेदन
कुपित हुई शिवा का शक्ती को उत्पन्य करना..
और उनके द्वारा परले मचाया जाना..
तो आईए भक्तों..
आरंब करते हैं..
इस कथा के साथ
13 से लेकर 18 अध्याय तक की कथा..
सूच जी कहते हैं..
तारकारी कुमार के एक उत्तम एवंत अद्भुत वृतान्त को सुनकर..
नारत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई..
उन्होंने
पुनहे प्रेम पूर्वक ब्रह्मा जी से पूछा..
नारत जी बोले..
देव..
हे देव..
आप तो शिव संबंदी ज्यान के अथा सागर हैं..
हे प्रजानात..
मैंने स्वामी कार्टिके के सद वृतान्त को जो अमृत से भी उत्तम है..
सुन लिया..
अब गनेश का उत्तम चरित्त सुनना चाहता हूँ..
आप उनका जन्म वृतान्त तथा दिव्य चरित्त..
जो सम्पून मंगलों के लिए भी मंगल सरूप है..
वर्णन कीजिये..
सूच जी कहते है..
महामुने नारद का ऐसा वचन सुनकर..
ब्रह्मा जी का मन..
हर्ष से गध-गध हो गया..
वे शिव जी का एसमार्ण करके बोले..
ब्रह्मा जी ने कहा..
हे नारद..
पहले जो मैंने विधी पूर्व गनेश जी की..
वे ख़ाल
गधी जी का पूर्व गधी..
वे शिव जी का पूर्व गधी..
वे खाल गधी जी
का पूर्व गधी..
पाप रहिते
आपको भी हमारे लिए एक गण की रचना करनी चाहिए..
ब्रह्मा जी कहते हैं..
हे मुने..
जब सक्षियों ने पार्वती जी से ऐसा सुन्दर वचन कहा..
तब उन्हें उसे हित कारग माना और वैसा करने का विचार भी किया..
तद अंतर किसी समय जब पार्वती जी इसनान कर रही थी..
तब सदाशिव नंधी को डरा धंका कर घर के भीतर चले आये..
शंकर जी को आते देख कर
इसनान करती हुई जगध जन्नी पार्वती उठ कर खड़ी हो गई..
उस समय उनको बड़ी लज्या आई..
विहाश्चे चकित हो गई..
उस अवसर पर उन्होंने सक्षियों के वचन को हित कारग तथा सुह परदमाना..
उस समय ऐसी घटना घटित होने पर परमाया परमेश्वरी
शिव पत्नी पार्वती ने
मन में ऐसा विचार किया कि मेरा कोई एक ऐसा सेवक होना चाहिए जो
परम शुब कारिय कुशल और मेरी ही आज्या में तत्पर रहने वाला हो..
उससे तनिक भी विचलित होने वाला ना ह
उसके सबी यंग सुन्दर और दोष रहित थे..
उसकावै शरीर वीशाल परम rempl पराकरम के संपन्य,
रिसंद्SARehau
देवी ने उसे अनेक प्रकार के वस्त्र,
नाना प्रकार के आभूशन और भहुत सा उठ्तम आशिर्वात देकर कहा,
तुम मेरे पुत्र हो,
मेरे अपने ही हो,
तुम्हारे समान प्यारा,
मेराया कोई दूसरा नहीं है.
पार्वती के ऐसा कहने पर
वह पुरुष उन्हें नमस्कार करके बोला,
गनेश जी ने कहा,
हे मा,
आज आपको कौनसा कारिया पड़ा है,
जो मैं आपके कतना अनुसार उसे पूर्ण करूंगा.
गनेश जी के यों पूँचने पर
पार्वती जी अपने पुत्र को उत्धर देती हुई बोली,
शिवा ने कहा,
हे तात,
तुम मेरे पुत्र हो,
मेरे अपने हो,
अतह,
तुम मेरी बात सुनो,
आज से तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ.
सत्पुत्र,
मेरी आज्या के बिना कोई भी हट फूरुअक
मेरे महल के भीतर प्रवेश्ट न करने पाए,
चाहे वै कहीं से भी आया हो, कोई भी हो.
बेटा,
यह मैंने तुमसे बिल्कुल सत्य बात कही है,
ब्रह्मा जी कहते हैं,
हेमुने,
यों कहकर पारवती ने गनेज जी के हाथ में एक सुद्रड चड़ी दे दी,
उस समय उनके सुन्दर रूप को निहार कर पारवती हर्ष मगन हो गई,
उन्होंने परम प्रेम पूर्वक अपने पुत्र का मुख चूम कर
और कृपा पर वश हो च्छाती से लगा लिया,
फिर दंडधारी गनराज को
अपने द्वार पर स्थापित कर दिया,
बेटा नारद,
तद अंतर पारवती नंदन महावीर गनेश,
पारवती की हित कावना से हात में चड़ी लेकर
ग्रिह द्वार पर पह़रा देने लगे,
उदर शिवा अपने पुत्र गनेश को अपने दर्वाजे पर
नियूक्त करके स्वेम सक्यों के साथ इसनान करने लगी,
हे मुनी श्रेष्ट,
इसी समय भगवान शिव जो परम कोतुकी तथा नाना
प्रकार की लीलाएं रचने में निपून हैं,
द्वार परा पहुँचे,
गनेश उन पार्वती पती को पहचानते तो थे नहीं,
अतहबोल उठे,
हे देव
माता की आज्या के बिना तुम अभी भीतर न जाओ,
यों कहकर गनेश ने उने रोकने के लिए चड़ी हात में लेली,
उने ऐसा करते देक शिवजी पोले,
हे मूर्ख
तु किसे रोक रहा हैं
हे दुर्बुद्धे क्या तु मुझे नहीं जानता
मैं शिव के अतिरिक्त
और कोई नहीं हूँ
फिर महिश्वर के गण उसे समझाकर
हटाने के लिए वहाँ आये और गनिश से बोले
सुनो
हम मुख शिव गन ही द्वारपाल हैं और सर्ववापी भगवान शंकर की आज्या से
तुम्हें हटाने के लिए यहां आये हैं
तुम्हें भी गन समझकर हम लोगों ने मारा
नहीं है अन्यथा तुम कब के मारे गई होते
अब कुशल इसी में है कि तुम स्वतय ही दूर हट जाओ
क्यों व्यर्थ अपनी मृत्यू बुला रहे हो
ब्रह्मा जी कहते हैं
हे मुने यो कहे जाने पर भी गिर्जानन्दन गनेश निर्वह ही बने रहे
उन्होंने शिवगणों को फटकारा और धर्वाजी को नहीं छोडा
तब उन सभी शिवगणों ने शिवजी के पास जाकर सारा वृतान्त उन्हें सुनाया
हे मुने
उनसे सब बातें सुनकर संसार के गती स्वरूप अदभुद लीला अभिहारी महिश्वर
अपने उन गणों को डाट कर कहने लगे
महिश्वर ने कहा
गणों यह कौन है जो इतना उच्छिंखल होकर शत्रू की भाती बख रहा है
इस नवीन द्वारपाल को दूर भगा दो
तुम लोग नपुनसक की तरहें खड़े होकर उसका वृतान्त मुझे क्यों सुना रहे हो
विचित्र लीला रचने वाले अपने स्वामी शंकर
के यों कहने पर वे गण पुनहें वहीं लोटाए
अन्तर गणेश द्वारा पुनहें रोके जाने पर शिव जी ने गणो को
आज्या दी कि तुम पता लगाओ यह कौन है और यह क्यों ऐसा कर रहा है
गणो ने पता लगाकर बताया
कि यह श्री गिर्जा के पुत्र है तता द्वारपाल की रूप में बैठे है
तब लीला रूप शंकर ने विचित्र लीला करनी चाही तता अपने गणो
का गर्व भी गलित करना चाहा
इसलिए गणो को तथा देवताओं को बलाकर
गणेश जी से भीशन युद्ध करवाया
पर वे कोई भी गणेश को पराजित न कर सके
तब स्वायं शूलपाणी महिश्वर आये
गणेश जी ने माता के चरणों का इसपर्श किया
तब शक्ती ने उन्हें बल प्रदान कर दिया
सभी देवता शिवजी के पक्ष में आ गए घोर युद्ध हुआ अंत तो गत्वा
स्वयं शूलपाणी महिश्वर ने आकर तिरशूल से गणेश जी का सिर काट दिया
जब यह समाचार पार्वती जी को मिला
तब वे कुद्ध हो गई और बहुत सी शक्तियों को उत्पन करके
उन्होंने बिना विचारे उन्हें प्रले करने की आग्या दे दी
फिर तो शक्तियों के द्वारा
प्रले मचाई जाने लगी
उन शक्तियों का वहे जा जल्यमान तेज सभी दिशाओं को दगदसा किये डालने लगा
उसे देखकर वे सभी शिवगन भैभीत हो गई और भागकर दूर जा खड़े हुए
हे मुने इसी समय तुम दिव्वधर्शन नारद वहाँ पहुँचे
तुम्हारा वहाँ आने का अभिपराय देवगणों को सुख पहुँचाना था
तब तुमने मुझ देवताओं सहिद शंकर को प्रणाम करके कहा
कि इस विशे में सब को मिलकर विचार करना चाहिए
तव �
अपने विशे में आपको प्रणाम करके तुम्हारे
सहिद सभी देवता और रिशी भगवती शिवा के निकट गए
और क्रोध की शान्ती के लिए
उन्हें प्रसंद करने लगे
उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें प्रसंद करते हुए अनेको स्त्रोतों
द्वारा उनकी स्तुती करके बारं बार उनके चर्णों में अभिवादन किया
उन्हें प्रसन्न करते हुए अनेको श्ट्रोतों द्वारा उनकी सुती करके
बारंबार उनके चर्णों में अभिवादन किया।
फिर देवगण की आज्या से रिशी बोले,
देव रिशीयों ने कहा,
हे जग्डंबे,
तुम्हे नमस्कार है,
हे शिव पत्नी,
तुम्हे प्रणाम है,
हे चंडिके,
तुम्हे हमारा अभिवादन प्राप्त हो,
हे कल्याणी,
तुम्हे बारंबार प्रणाम है,
हे अंबे,
तुम्ही आदी शक्ती हो,
तुम्ही सदा सारी शक्ती की निर्मान कत्रिण,
पालिका शक्ती और संगहार करने वाली हो,
परादेवी हम लोग तुम्हारे चर्णों में मस्तक चुकाते हैं,
ब्रह्मा जी कहते हैं,
हे नारद,
यों तुम सभी रिश्यों द्वारा इस्तुती किये जाने पर भी
परादेवी पारवती ने उनकी योर क्रोध भरी द्रिश्टी से ही देखा,
उनकी बाद कुछ कहा नहीं,
तब उन रिश्योंने पुने उनके चर्ण कमलों में सिर चुकाया
और भकती पूरवक हाथ जोड़कर
पारवती जी से निवेदन किया,
जोने कहा
हे देवी
अभी संगार होना चाहता है
अते क्षमा करो,
क्षमा करो अंबिके,
तुम्हारे स्वामी शिव भी तो यहीं इस्थित हैं,
तनिक उनकी और तो दृश्ठी पात करो,
हम लोग ये ब्रह्मा, विश्णू आधी देवता
तथा सारी प्रजा,
सब तुम्हारे
स्वाम्मे खड़े हैं,
हे परमिश्वरी
इन सब का प्राद क्षमा करो,
हे शिवे अभी ने शान्ती प्रदान करो,
ब्रह्मा जी कहते हैं,
हे मुने,
सभी देव रिशी ऐसा कहकर अत्यंत दीन भाव से व्याकुल हो,
हाथ जोड़कर चंडिका के सम्मुख खड़े हो गए।
उनका ऐसा कतन सुनकर चंडिका प्रसन हो गई,
उनके हिरदे में करुणा का संचार हो आया,
तब वे रिशीयों से बोली,
देवी ने कहा,
रिशीयों,
यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाय,
ब्रह्मा जी कहते हैं,
भेमुने,
पारवती के यों कहने पर
तुम सभी रिशीयों ने उन देवताओं के पास आकर सारा व्रतान्त के सुनाया,
उसे सुनकर इंद्रादी सभी देवताओं के चहरे पर उदासी चा गई,
वे शंकर जी के पास गए और हाथ जोड़ कर उनके चड़नों
में नमसकार करके सारा समचार निविदन कर दिया.
देवताओं का कथन सुनकर
शिव जी ने कहा,
ठीक है,
जिस परकार सारी त्रिलोकी को सुख मिल सके वही करना चाहिए,
अतः
अब उत्तर दिशा की ओर जाना चाहिए और जो जीव पहले मिले उसका सिर काट कर
उस बालक के शरीर पर जोड देना चाहिए.
ब्रह्मा जी कहते हैं,
हे मुने तद अंतर शिव जी की आग्या का पालन करने वाले
उन देवताओं ने वे सारा कारिय संपन्य किया,
उन्होंने उस शिशू शरीर को धो पोचकर विधिवत उसकी पूजा की,
फिर वे उत्तर दिशा की ओर गए,
वहां उन्हें पहले पहल एक दात वाला एक हाथी मिला,
उन्होंने उसका सिर लाकर उस शरीर पर जोड दिया.
हाथी के उस सिर को संयूक्त कर देने के पश्चाद,
सभी देवताओं ने भगवान, शिव आधी को परणाम करके कहा,
कि हम लोगों ने अपना काम पूरा कर दिया,
अब जो करना शेष है,
उसे आप लोग पूर्ण करें.
ब्रह्मा जी कहते हैं,
तब शिवाज्या पालन सम्मंधनी देवताओं की बात सुनकर,
सभी देवों और पार्शदों को महान आनन्द हुआ.
तद पशात ब्रह्मा विश्णू आधी सभी देवता अपने स्वामी
निर्गुन स्वरूप भगवान शंकर को परणाम करके बोले,
हे स्वामिन,
आप महात्मा के जिस तेज से हम सभी उत्पन्य हुए हैं,
आपका वही तेज वेद मंतर के अभियोग से
इस बालक में प्रवेश करें.
इस प्रकार सभी देवताओं ने मिलकर वेद मंतर द्वारा जल को अभिमंत्रित किया,
तरेर शिवजी का इसमर्न करके
उस उत्तम जल को बालक के शरीर पर च्ढड़ग दिया,
उस जल का इसपर्श होते ही,
वह बालक श्विच्छा से शिगर ही चेतना युक्त
होकर जीवित हो गया और सोय हुए की तरह उठ बैठा,
वह बालक अच्छान बालक चेहरे पर प्रसंदन खेल रही थी,
उसकी आकरती कमनिय थी और उसकी सुन्दर प्रभाब फैल रही थी,
ये मुनिश्वर,
पारवती नंदन उस बालक को जीवित देखकर,
वहां उपस्थित सभी लोग आनन्द मगन हो गये और सारा दुख विलीन हो गया,
अपने पुत्र को जीवित देखकर
पारवती जी परम प्रसंदन हुई,
बोलिये शिवशंकर भगवान की जये.
ये भगतों,
इस प्रकार यहां पर
श्रीशिव महापुरान के रुद्र सहीता,
चतुर्थ कुमार खंड की ये कथा
और 13 से 18 अध्याय तक
यहां समाप्त होते हैं.
तो बोलिये शिवशंकर भगवान की जये.
ओम्नमहः शिवाय। ओम्नमहः शिवाय।
ओम्नमहः शिवाय।