Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै!
प्रियभगतों,
शिष्यु महा पुरान के कोटी रुद्र सहिता की अगली कता है
शिव सम्मन्धी तत्व ज्यान का वर्णन तथा उसकी महिमा
कोटी रुद्र सहिता का महात्म एवं उपसंगार
अर्थाद भगतों,
ये कोटी रुद्र सहिता की अंतिम कता है इसलिए ध्यान पूर्वक
और शद्धा के साथ सुनेंगे तो इश्वर आपका कल्यान करेंगे
तो आईये भगतों,
आरम्ब करते हैं इस कता के साथ 43 मा और अंतिम अध्याय
सूत जी ने कहा
हे रिशियो मैने शिव ज्यान जैसा सुना है उसे बता रहा हूं
तुम सब लोग सुनो
वे अत्यंत गुए हैं और परम मोक्ष स्वरूप हैं
ब्रह्मा, नारद, संकाधिक,
मुनी व्याज तथा कपिल
इनके समाज में इनही लोगों ने निश्य करके जियान का जियान स्वरूप बताया है
उसी को यथार्थ ज्यान समझना चाहीए
संपून जगत शिव में है यह ज्यान सदा अनुशीलन करने योग्य है
सर्वज्य विद्वान को यह निश्यत रूप से जानना चाहीए
कि शिव सर्व में है ब्रह्मा से लेकर
तृन पर्यंत जो कुछ जगत दिखाई देता है वे सब शिव ही हैं
क्यूंकि वे निर्लिप्त सच्चिदानन्द शरूप हैं
जैसे सूर्य आदी जोतियों का जल में पृति बिम्म पड़ता हैं,
वास्तम में जल के भीतर उनका प्रवेश नहीं होता।
उसी परकार साक्षात शिव के विशय में समझना चाहिए।
वस्तुते जो वे स्वेम ही सब कुछ हैं,
मत भेध ही अज्ञान हैं,
क्योंकि शिव से भिन किसी द्वेत वस्त्व की सत्ता नहीं है।
संपून दर्शनों में मत भेध ही दिखाया जाता है,
परंतु वेदान्ति नित्य अद्वेत तत्व का वर्णन करते हैं।
जीव पर्मात्मा शिव का ही अंश है,
परंतु अविध्या से मोहित होकर अवश हो रहा है और अपने को शिव से
भिन समस्ता है। अविध्या से मुक्त होने पर भेध शिव ही हो जाता है।
परंतु वेदान्ति नित्य अद्वेत तत्व का वर्णन करते हैं।
वही
संधिग्ध रूप से अगनी को प्रगट करके देखता है।
उसी तरहें,
जो बुद्धिमान यहां भक्ती आधी साधमों का अनुष्ठान करता है।
उसे अवश्य शिव का दर्शन प्राप्त होता है।
इसमें संच्य नहीं है। सर्वत्र केवल शिव हैं। शिव हैं शिव हैं। दूसरी कोई
वस्तु नहीं है। वे शिव भ्रम से ही सदा नाना रूपों में भासित होते हैं।
जैसे समुद्र, मिट्टी अत्वा स्वार्ण
ये उपाधी भेद से नानत्व को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार
भगवान शिव भी उपाधीयों से ही अनेक रूपों में भासते हैं।
कारि और कारण में वास्तिक भेद नहीं होता। केवल भ्रम से
भरी होई बुद्धी के द्वारा ही। उसमें भेद की प्रतीती होती
है। भ्रम दूर होते ही भेद बुद्धी का नाश हो जाता है।
इसमें अन्यता विचार नहीं करनाचाहीए।
शिव ही सब कुछ हैं। शिव तथा सम्पोन जगद में कोई भेद नहीं है।
फिर क्यों कोई अनेकता देखता है और क्यों एकता ढूंडता है?
जैसे आकाश सरवत्र व्यापक होकर भी स्पर्श आधी बंधन में नैं विह आता,
उसई प्रकार व्यापक शिव भी कहीं नहीं बंधते,
उस एहंकार से मुक्त होने पर
वह साक्षात शिव ही है।
कर्मों के भोग में लिप्त होने के कारण जीव तुछ है।
और निर्लिप्त होने के कारण शिव महान है।
जैसे एक ही स्वर्ण आदी चांदी आदी से मिल जाने पर कम कीमत का हो जाता है,
उसी परकार एहंकार युप्त जीव अपना महत्त को बैठता है।
जैसे क्षार आदी से शुद्ध किया हुआ उत्तम
स्वर्ण आदी पूर्वत बहु मुल्ले हो जाता है,
उसी परकार संसार विशेष्च से शुद्ध होकर जीव भी शुद्ध हो जाता है।
पहले सद्गुरु को पाकर भक्ती भाव से युप्त हो,
शिव बुद्धी से उनका पूजन और स्मर्ण आदी करें। गुरु में
शिव बुद्धी करने से सारे पाप आदी मल शरीर से निकल जाते हैं।
उस समय अज्ञान नश्ठ हो जाता है और मनुष्य ज्ञानवान हो
जाता है। जैसे दरपन में अपना रूप दिखाई देता है,
उसी तरहें उसे सरवत्र शंभु का साक्षातकार होने रखता है।
वही जीवन मुक्त केहलाता है। शरीर गिर जाने पर वह जीवन
मुक्त ज्यानि शिव में मिल जाता है। शरीर प्रारब्ध के �
अशुब को पाकर क्रोध या शोक नहीं करता,
तथा सुख,
दुख आदी सभी द्वन्दों में सम्भाव रखता है,
वह ज्यानवान कहलाता है।
शुभं लब्धवान हिरश्षेत। कुपेल बद्धवा शुभं नहीं।
आत्मचिन्तन से तथा तत्वों के विवेक से ऐसा प्रियत्न करें,
कि शरीर से अपनी पिर्ठक्ता का बोध हो जाए।
मुक्ति की च्छा रखनेवाला पुरुष्ष,
शरीर एवं उसके अभिमान को त्याग कर,
अहंकार शून्य एवं मुक्त हो सदा शिव में विलीन हो जाता है।
अध्यात्मचिन्तन एवं भगवान शिव की भक्ति,
ये ज्यान के मूल कारण है।
भक्ति से साधन विश्यक प्रेम की उपलब्धी बताई गई है।
आदल्यां
आदल्यां
आदल्यां
उसे अन्तमे अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
अतेह मुक्ति की प्राप्ती के लिए भगवान
शंकर से बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है।
उनकी शरन लेकर जीव संसार बंधन से छूट जाता है।
हे ब्राह्मणों,
इसप्रकार वहां पधारे हुए रिशीयोंने परस्पर
निश्चे करके जो है घ्यान की बात बताई है,
इसे अपनी बुद्धी के द्वारा प्रयत्न पूर्वक धारन करना चाहिए।
हे मुनिश्वरों,
तुमने जो कुछ पूचा था,
वह सब मैंने तुम्हें बता दिया है,
इसे तुम्हें प्यत्न पूर्वक गुप्त रखना चाहिए। बताओ,
अब और क्या सुनना चाहते हो?
रिशी बोले,
हे व्यासर शिष्य,
आपको नमस्कार है,
आप धन्य है,
शि�
जिन्दाविश्य, जो नास्तिक हो,
शद्धाहीन हो,
और शट्ध हो,
जो भगवान शिव का भक्त न हो,
तथा इस विशे को सुनने की रुची न रखता हो,
उसे इस तत्व ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाही।
व्यास जी ने इतिहास,
पुराणों,
वेदों और शास्त्रों का बारंबार विचार करके,
उनका सार निकाल कर मुझे उपदेश दिया है।
अतिना वीशे संपर्पुत निरभाब पर जितना करेंते,
czym कारणों की एने पुधबनकरम ने थे,
लोगों को इसका बारंबार शवन करना चाहिए।
उठ्तम भल को पाने के उद्देश से इस पुरान की पांच अवर्तियां करनी चाहिए।
ऐसा करने पर मनुष्य उसे अवश्च पाता है।
इसमें संदेह नहीं है क्योंकि यह व्यास जी का वचन है।
जिसने इस उठ्तम पुरान को सुना है,
उसे कुछ भी दुरलब नहीं है। यह शिव विज्ञान भगवान शंकर को अत्यंत प्रिय
है। यह भोग और मोक्ष देने वाला तथा शिव भक्तों को वढ़ाने वाला है।
इसपरकार मैंने शिव पुरान की यह चोथी आनन्दमयी
तथा परमपुण्यमयी सहिता कही है। जो कोटी रुद्र सहिता के नाम से विख्यात
है। जो पुरुष एकागरचित हो भक्ती भाव से इस सहिता को सुनेगा यह सुनाएगा,
वे समस्त भोगों का उपभोग करके
हरियोँ, हरियोँ प्रिये भक्तो,
इस परकार यहां पर श्रीशिव महापुरान के
कोटी रुद्र सहिता की यह कथा
तथा 43 स्वाध्याय समाप्त होता है
बोलीईं सिवशंकर भगवाने की जये।
और प्रीय भक्तों,
यहां पर शृव harsh Shiv Mahapuran.
कोटी रुद्र सहीता संपुर्ण होती है
तो ध्यान से ओर मंसे बोलिये
पोल इय शिवशनकर भगवान की जै tao chilya Shiv mahapurana kii jai
आनन्द के साहड बोली ओ Murhand koll Recogniz gaat qual
ओम नमःः शिवाइimoto anand Ke saahd bola
शिवाय!