Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवान की जए!
प्रीय भक्तों,
शिष्यु महा पुरान के कोटी रुद्ध सहिता की अगली कता है
शिव,
विश्णु,
रुद्ध्र और ब्रह्मा के स्वरूप का विवेचन
बहुत आनन्द आने वाला है भक्तों
द्यान से शद्धा के साथ सुनिये
तो आईये आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ 42 मा अध्याय
रिश्यों ने पूछा
शिव कौन है,
विश्णु कौन है,
रुद्ध्र कौन है,
और ब्रह्मा कौन है
हे महरश्यों,
वेद और वेदान्त के विद्ध्वान ऐसा मानते हैं कि निर्गुन
परमात्मा से सरवपृथम जो सगुन रूप प्रगट हुआ उसी का नाम शिव है
शिव से पुरुष सहित प्रकर्ति उत्पन्य हुई,
उन दोनों ने मूल इस्थान में इस्थित जल के भीतर तप किया
वैस्थान
पंच क्रोशी काशी के नाम से विख्यात है,
जो भगवान शिव को अठ्यंत प्रिय है,
यह जल संपून विश्व में व्याप्त था
उस जल का आश्रेले योग माया से युक्त श्री हरी वहां सोए
नार
अर्थात जल को अयन निवास इस्थान बनाने के कारण फिर
नारायन नाम से प्रिशिद्धुए और प्रिकृति नारायनी कहलाई
प्रिशिद्धुए नारायन के नावी कमल से जिनकी
उत्पत्ति हुई वे ब्रह्मा कहलाते हैं
ब्रह्मा ने तपस्या करके जिनका साक्शात कार किया,
उन्हें विश्णू कहा गया है
ब्रह्मा और विश्णू के विवाद को शांत करने के लिए
निर्गुन शिव ने जो रूप प्रगत किया उसका नाम महादेव है
उन्होंने कहा मैं शंभू ब्रह्मा जी के ललाट से प्रकत हुँगा
इस कथन के अनुसार समस्त लोकों का अनुग्रह करने के लिए
जो ब्रह्मा जी के ललाट से प्रकत हुए उनका नाम रुद्र हुआ
इसप्रकार रूप रहित परमात्मा सब के चंतन का
विशय बनने के लिए साकार रूप में प्रकत हुए
आक्षात भक्तवच्छल शिव हैं तीनों गुणों से भिन शिव
में तथा गुणों के धाम रुद्र में उसी तरहें वास्तविक
भेद नहीं है जैसे सुवर्ण और उसके आबुशन में नहीं हैं
वह गवनाय aussi अपने हाविक्षान तctar पειछ रति धरतर ख्यालीक्यारूरुत्र
अण्य जोजो देवता जिस करम से पिगट हुए होअ
उसी करम से लय को प्राप्त मद होते हैं
परन्तू रुद्र देव उसत्रहें लीन नहीं होते उनका
साकषात शिवं में ही साग में ही लय होता है
परन्तु रुद्र इन में मिलकर लेको नहीं प्राप्त होते।
यह भगवती शुती का उपदेश है
सब लोग रुद्र का भजन करते हैं
किन्तु रुद्र किसी का भजन नहीं करते
वे भक्त वच्छल होने के कारण कभी कभी अपने आप
जो कोई रुद्र के भगत हैं वे ततकाल शिव हो जाते हैं
हते उनके लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती। यह सनातन्शुति का संदेश है।
हे द्विजोग,
अग्यान अनेक प्रकार का होता है,
पर अंतु विज्ञान का एक ही स्वरूप है। वे अनेक प्रकार
का नहीं होता। उसको समझने का प्रकार मैं बताऊंगा।
तुम लोग आधर पूर्वक सुनो। ब्रह्मा से लेकर
तृन पर्यंत जो कुछ भी यहां देखा जाता है,
वे है सब शिव रूप ही है।
उसमें नानत्व की कलपना मिठ्या है। सिश्टी
के पूर्व ही शिव की सत्ता बताई गई है।
सिश्टी के मध्य में भी शिव विराजबान रही हैं,
सिश्टी के अंत में भी शिव रहते हैं,
और जब सब कुछ शून्निता में परेनत् हो जाता है,
उस समय भी शिव की सत्ता रहती ही है।
अतय है मुनिश्वरो,
शिव को ही चतुरुगुण कहा गया है,
वे ही शिव शक्तिमान होने के कारण सगुण
जानने योग्य हैं। इस प्रकार वे सगुण,
निर्गुण के भेद से दो प्रकार के हैं।
जिन शिव ने ही भगवान विश्णु को संपून सनातन वेद अनेक वर्ण,
अनेक मात्रा तथा अपना ध्यान एवं पूजन दिये हैं,
वे ही संपून विधहों के ईश्वर हैं।
एसी सनातन शुती हैं। अतेव शम्भू को वेदों
का प्राकट्य करता तथा वेदपती कहा गया है।
वे ही सब पर अनुग्रह करने वाले साक्षात शंकर हैं। करता,
भरता,
हरता,
साक्षी तथा निर्गुण भी वे ही हैं।
दूसरों के लिए काल का मान है,
परन्तु काल सरूप रुद्र के लिए काल की कोई गण्रा नहीं है। क्योंकि
ये साक्षात स्वेम महाकाल हैं और महाकाली उनके आश्रित हैं।
ब्राह्मन रुद्र और काली को एक ही बताते हैं। उन दोनों ने
सत्यलीरा करने वाली अपनी इच्छा से ही सब कुछ प्राप्त किया हैं।
शिव का कोई उत्पादक नहीं है। उनका कोई पालक और
संगहारक भी नहीं है। ये स्वेम सबके हेतु हैं।
इसी प्रकार स्वेम एक से अनेक होने में हेतु हैं।
चानता है दूसरा नहीं।
मुनी बोले,
हे सूत जी,
आप लक्षन सहीद ज्यान का वर्णन कीजिये,
जिसको जानकर मनुष्य शिव भाव को प्राप्त हो जाता है।
सारा जगत शिव कैसे है?
अत्वा शिव ही संपून जगत कैसे है?
रिश्यों का है प्रश्न सुनकर,
पौरानिक शिरोमनी सूत जी ने बगवान शिव के
चरणार विंदों का चिंतन करके उनसे कहा,
हर्यों, हर्यों,
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैं।
प्रिय भगतों,
इस प्रकार यहाँ पर
शिशिव महा पुरान के कोटी रुद्र सहीता की
यह कथा और 42 मा अध्याय समाप्त होता है।
तो स्नेह से बोलेंगे,
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैं।
और आधर के साथ,
ओम नमः शिवाय,
ओम नमः शिवाय,
ओम नमः शिवाय।