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Shiv Mahapuran Koti Rudra Sanhita Adhyay-29, 30

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran koti rudra sanhita adhyay-29, 30 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran koti rudra sanhita adhyay-29, 30 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Koti Rudra Sanhita Adhyay-29, 30 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Koti Rudra Sanhita Adhyay-29, 30

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै!
प्रिय भक्तों,
श्री शिव महा पुरान के
कोटी रुद्र सहीता की अगली कता है
नागिश्वर नामक जोतर लिंग का
प्रादुरभाव और इसकी महिमा.
तो आईये भक्तों,
आरम्ब करते हैं इस कता के साथ
उन्तीस उर्तीसम अध्याय.
सूज्जी कहते हैं,
हे ब्राह्मणों,
अब मैं परमात्मा शिव के नागिश् नामक परम उत्तम
जोतर लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाऊंगा.
दारुक का नाम से प्रसिद्ध कोई राक्षसी थी,
जो पारवती के वरदान से सदा घमन्ड में भरी रहती थी.
अत्यंत बल्वान राक्षस दारुक
उसका पती था.
उसने बहुत से राक्षसों को साथ लेकर
वहां सत्पुर्शों का संघार मचा रखा था.
यह लोगों के यग्य और धर्म का नाश करता फिरता था.
पश्यम समंद्र के तथ पर उसका एक वन था,
जो संपून समर्द्धियों से भरा रहता था.
उस वन का विस्तार सब और से सोहले योजन था.
दारुका अपने विलास के लिए जहां जाती थी,
वही भूमी,
व्रख्ष तथा अन्य सब उपकर्णों से युक्त वहे वन भी चला जाता था.
देवि पार्वती ने उस वन की देख रेक का भार दारुका को सोंप दिया था.
दारुका अपने पती के साथ,
इच्छानुसार उसमेन मान करती थी.
राक्षस, दारुक अपनी पत्मी दारुका के साथ,
वहां रहकर सब को भै देता था.
परजाने महरसी ओर्व की शरण में आकर उनको अपना दुख सुनाया।
ओर्वने शर्णागतों की रख्षा के लिए राक्षसों को यह शाप दे दिया
कि यह राक्षस यदी पृत्वी पर प्राणियों
की हिंसा या यग्वियों का विद्धश करेंगी
अपने प्राणों से हद्धो बैठेंगे।
देवताओंने जब यह बात सुनी तो उन्होंने
दुराचारी राक्षसों पर चड़ाई कर दी।
राक्षस घबराए।
यदी वे लड़ाई में देवताओं को मारते तो मुनी के शाप से स्वेम मर जाते।
और यदी नहीं मारते तो पराजित होकर भूखो मर जाते हैं।
उस अवस्था में राक्षसी दारुका ने कहा
कि भवानी के वर्दान से मैं सारे वन को जहां चाहूं ले जा सकती हूं।
यों कहकर वह समस्त वन को जोंकात्यों ले जाकर समुंदर में जा बसी।
राक्षस लोग पृत्यू पर न रहे कर जल में निर्भै
रहने लगे और वहां प्राणियों को पीड़ा देने लगे।
एक बार बहुत सी नावें उधर आ निकली जो मनुष्यों से भरी थी।
राक्षसोंने उनमें बैठे हुए सब लोगों को पकड़ लिया
और बेडियों में पांध कर कारगार में डाल दिया।
वे उनमें बारंबार धम्कियां देने लगे। उनमें
सुप्रिय नाम से प्रिशिद्ध एक वैश्य था
जो उस दल का सरदार था।
वे बड़ा सदाचारी,
भस्म रुद्राक्ष धारी
तता बगवान शिव का परम भक्त था।
सुप्रिय शिव की पूजा किये बिना भोजन नहीं करता था।
वे स्वेम तो शंकर का पूजन करता ही था।
बहुत से अपने साथियों को भी
उसने शिव की पूजा सिखा दी थी। फिर सब लोग नमेश,
शिवाय,
मंत्र का जप और शंकर जी का ध्यान करने लगे।
सुप्रिय को भगवान शिव का धर्शन भी होता
था। दारुग राक्षस को जब इस बात का पता लगा,
तो उसने आकर सुप्रिय को धंकाया। उसके साथ ही राक्षस
सुप्रिय को मारने दोडए। उन राक्षसों को आया देख,
सुप्रिय के नेत्र भैसे कातिर हो गए�
सुच जी कहते हैं,
सुप्रिय के इस प्रकार प्रार्थना करने पर
भगवान शंकर एक विवर से निकल पड़े।
उनके साथ ही चार दरवाजों का एक उठम मंदिर भी प्रकट हो गया।
उसके मद्दे भाग में अद्भुत जोतिर में शिवलिंग प्रकाशित हो रहा था।
उसके साथ शिव परिवार के सब लोग विदमान थे।
सुप्रिय ने उनका दर्शन करके पूजन किया।
पूजित होने पर भगवान शंबुः ने प्रसन हो।
स्वेहम पाशु पतास्त्र लेकर वधान परधान राक्षसों,
उनके सारे उपकर्णों तथा सेवकों को भी ततकाल ही नष्ट कर दिया।
और उन दुष्ट हंता
शंकर ने अपने भगद सुप्रिय की रक्षा की।
सत्पश्यात अदवुद लीला करने वाले और लीला से
ही शरीर धरन करने वाले शंबुः ने उस वन को
यह वर दिया कि आज से इस वन में सदा ब्रह्मान,
शत्रिय,
वैश्य और शुद्र इन चारों वर्णों के धर्मों का पारण हो।
यहां स्वेश्ट मुनी निवास करें और तमो गुणी राक्षस इसमें कभी ना रहें।
शिव धर्म के उपदेशक,
पचारक और प्रवर्तक लोग इसमें निवास करें।
सुज जी कहते हैं,
इसी समय राक्षसी दारूका ने
दीन चित से देवी पारवती की स्तुती की,
देवी पारवती प्रसन हो गई और बोली,
बताओ तेरा क्या कारिय करूं। उसने कहा,
मेरे वंश की रक्षा कीजिये। देवी बोली,
मैं सच कहती हूं,
तेरे कुल की रक्ष
ने सची होगी,
तब तक तामसी सिश्टी भी रहे,
ऐसा मेरा विचार है। मैं भी आपकी ही हूं
और आपके ही आश्रे में रहती हूं,
अतयह मेरी बात को भी प्रमानित,
अर्थाथ सत्य कीजिये। यह राक्षसी दारूका देवी हैं,
मेरी ही शक्ती हैं और राक्षसीयों म
करेंगा दर्शन करते ही वैं चक्रवर्ति संपराठ हो जाएगा।
जोतिर्लिंग स्वरूप महादेव जी वहाँ नागिश्वर कहलाये
और शिवा देवी नागिश्वरी के नाम से विख्यात हुई।
वे दोनों ही सत्पुर्शों को प्रिय हैं।
इस प्रकार जोतियों के स्वामी नागिश्वर नामक महादेव जी
जोतिर्लिंग के रूप में प्रगट हुए। वे तीनों लोकों
की संपूर्ण कामणाओं को सदा पूर्ण करने वाले हैं।
जो प्रति दिन आदर पूर्वक नागिश्वर के
प्राधूर भाव का यह प्रसंग सुनता है।
वे बुद्धिमान मानव महापातकों का नाश करने
वाले संपूर्ण मनौर्थों को प्राफ्त कर लेता है।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
प्रिये भक्तों,
इस प्रकारी हाँपर
शिशिव महापुरान के कोटी रुद्ध सहीता की ये कथा
और उन तीसम तता तीसम अध्याय समाप्त होता है।
तो सनही के साथ बोलिये। बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये। और आदर के साथ।
ओम नमः शिवाय।

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