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Shiv Mahapuran Kailash Sanhita Adhyay-20, 21

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran kailash sanhita adhyay-20, 21 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran kailash sanhita adhyay-20, 21 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Kailash Sanhita Adhyay-20, 21 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Kailash Sanhita Adhyay-20, 21

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोलिये शिवशंकर भगवाने की
जए!
प्रिये भगतों
शिशिव महा पुरान के कैलास सहिता की अगली कथा है
यती के अन्तेश्टी कर्म की तशाख परियंत्र विधी का वर्णन
तो आईये भगतों आरंब करते हैं
इस कथा के साथ 20 तथा 21 अध्याय
वामदेव जी बोले
जो मुक्त यती हैं उनके शरीर का दाह कर्म नहीं होता
मरने पर उनके शरीर को गार दिया जाता है
यह मैंने सुना है
मेरे गुरु कार्ती के आप प्रसनता पूर्वक यतीयों
के उस अन्तेश्टी कर्म का मुझसे वर्णन कीजिये
क्योंकि तीनों लोकों म
भगवन शंकरनन्दन जो पूर्ण परब्रह्म में एहम भाव काश्रेले देह पंजर
से मुक्त हो गये हैं तथा जो उपासना के मार्ग से शरीर बंधन से
मुक्त हो परमात्मा को प्राप्त हुए हैं उनकी गती में क्या अंतर है
यह बताईए
हे प्रभु
मैं आपका शिश्य हूँ इसलिए अच्छी तरहें विचार करके
प्रसन्नता पूर्वक मुझसे इस विशय का वर्णन कीजी
स्कंदने कहा
जो कोई यती समाधिस्त हो
शिव के चिंतन पूर्वक अपने शरीर का परित्याग करता है
वै यदी महान धीर हो
तो परिपूर्ण शिव रूप हो जाता है
सावधान होकर सुनो
चाहते हुए भली भाध शिव के ध्यान में तत्पर रहें
हे मुने उसे नित्य नियम पूर्वक प्रणव की तप
और अर्थ चिंतन में मन को लगाए रखना चाहिए
हे मुने
यदी देह की दुरब्रल्ता के कारण धीरता धारन करने में समर्थ यती
पुछ काम भाव से शिव का इसमन करके अपने जीन शरीर को त्याग दे तो भगवान
सदाशिव की अनुग्रह से नंधी के भेजेवे विख्यात पांच आतिवाहिक देवता आते हैं
हया नत्व इसमें के अगनी,
जोती,
पुज्ज स्वरूप, धिना भिमानी,
सुक्लपक्षा भिमानी,
ट्रायना भिमानी धीरता है ।
यह पुछ प्राणीयों से अनुग्रह करने की तत्पर हैं।
इसी तरहेंpapers.comanha.in
खेल्ता परिछाहिए
या त्यीक मेछ्छा लिए तादा नलते था
उरग में,
काण ही जन।
वाहा यए अलकाड़ा पीकी जाया दाएगा
देवता उनके पुन्यवश स्वर्ग लोक को जाते हैं
और वहां यतोक्त भोगों का अपभोक करके वे जीव पुन्यख्षीन होने
पर पुनह मनिश्य लोक में आते तताप पूरोवत जन्म ग्रहन करते हैं।
यती के सिवा जो उत्तर मार्ग के पांच देवता हैं,
वे भूतल से लेकर
ऊर्ध लोक तक के मार्ग को पांच भागों में विबक्त करके यती को साथ ले,
क्रमशह अगनी आधी के मार्ग में होते हुए,
उसे सदाशिव के धाम में पहुँचाते हैं।
देवाधि देव महादेव के चर्णों में परणाम करके,
लोक आनुग्रह के करम में ही लगाए गए,
वे अनुग्रहकार देवता उन सदाशिव के पीछे खड़े हो जाते हैं।
देवाधि देव सदाशिव यदि वे विरक्त हो तो
उसे महामंत्र के तात्प्रिय का उपदेश दे,
गणबती के
पद पर अभिशिक्त करके
अपने ही समान शरीर देते हैं।
इसप्रकार सर्विश्वर,
सर्वनियंता भगवान शंकर उसपर अनुग्रह करते हैं।
उसे अनुग्रहित करके निश्चल समाधी देते हैं।
अपने परती दासे भाव की फल,
सरूपा तथा सूरिय आदी के कार्य करने की
शक्ती रूपा ऐसी सिध्यां परदान करते हैं।
जो कहीं अवरुद्ध नहीं होती,
साथ ही वे जगतकुरू शंकर उस यती को वे परम मुक्ति देते हैं।
जो ब्रह्मा जी की आयू समाप्त होने पर भी
पुन्रावृत्ती के चक्कर से दूर रहती है।
अते,
यही समिष्टिमान सम्पून एश्वरिय से युक्त
पद है। और यही मोक्ष का राजमार्ग है।
ऐसा वेदानत शास्त्र का निश्चे है। जिस समय यती मरणा सन्ने
हो शरीर से शिथिल हो जाये। उस समय उस शेष्ट संपुरदाय वाले
दूसरे यती अनुकूलता की भावना ले उसकी चार और खड़े हो जाये।
वे सब वहाँ क्रमशे है प्रणवादी वाक्यों का उपदेश दे,
उनके तात्पुरिय का सावधानी और प्रसन्नता के साथ सुष्पश्ट
वर्णन करें। तत्था जब तक उसके प्राणों का लेने हो जाये,
तब तक
निर्गुन परम जोति स्वरूप सदाशिव का उस
बड़म यदियोंर से हुस्वहोता है
नम इरण्याय से लेकर नम अमीव के ब्यह
तक के मंत्र का विनीद चित्त होकर जप करें।
फिर अंत में ओमकार का जप करते हुए मिट्टी से देव जनय की पूर्थी करें।
अब सन्यासी के शव के संसार की विधी बताते हैं।
सावधान होकर सुनो। पहले यती के शरीर को शुद्ध जल से नहलाकर
पुष्प आधी से उसकी पूजा करें। पूजन के समय से रुद्ध
सम्मन्धी चमकाध्याय और नमकाध्याय का पाठ करके रुद्ध
सूक्त का उचारन करें। उसकी आगे शंख की इस्थापना करके �
पहले के कोपीन आधी को हटाकर दूसे नवीन कोपीन आधी धारन कराएं।
फिर विधी पूर्वक उसके सारे एंगों में भस्म लगाएं। विधीवत
त्रीपुंढ्र लगाकर चंदन द्वारा तिलक कनें। फिर
फूलों और मालाओं से उसके शरीर को अंकृत करें। छा
विधी पूर्वक धारन कराकर उन सब अंगों को शोभित करें। फिर धूप देकर
उन शरीर को उठाएं और विमान के उपर रककर ईशान आधी पंच ब्रम्ह में
रमणिय रत पर इस्थापित करें। आधी में ओमकार से युक्त पांच सधो जात आधी
ब्रम्ह मंत्रों को
पाद तथा ब्राह्मनों के वेद मंत्रों चारण की ध्वनी के साथ
ग्राम की प्रदिख्षिना करते हुए उस प्रेद को बाहर ले जाएं।
तद अंतर साथ गए हुए वे सब यती गाओं के
पूर्व या उत्तर दिशा में पवित्र इस्थान में
किसी पवित्र व्रक्ष की निकट देव यजन गडडा कुदें।
उसकी लंबाई सन्यासी के दंड के बराबर ही होनी चाहिए।
फिर प्रणव तथा
व्याह्यती मंत्रों से उस इस्थान का प्रोक्षन
करके तथा क्रमशेह शमी के मंत्र और फूल बिचाएं।
पर उसके ऊपर उत्राग्र कुष बिचाकर उसपर योग पीट रखें।
उसके ऊपर पहले कुष बिचाएं। कुशों के ऊपर म्रघचर्म
तथा उसके भी उपर वस्तर बिचाकर प्रणव सहित सधो जाता
अधि पंच ब्रम्म मंत्रों का पाठ करते हुए पंच गव्यों
उसका विशेक करके उसके मस्तक पर फूल चड़ाएं।
शिश्यादी संसकार करता पुरुष वहां गय
हुए मिर्त्यती के अनुकूल भाव रखते हुए
शिव का चिंतन करता रहें। तदन्तर ओमकार का
उच्छारन और स्वस्ती वाचन करके उस शव को उठाकर
पिद्धी के भीतर
योगासन पर इस तरह बिठाएं जिससे उसका मुख पूरु दिशा की ओर रहें।
फिर चंदन पुश्प से अलंक्रित करके उसे धूप और गुग्गुल की सुगंद दें।
इसके बाद वेश्णो हव्यमिदम रक्षव्य ऐसा
कहकर उसके दाहिने हात में दंड दें।
और पजापते नत्वदेतान्यन्यो इस मंतर को पढ़कर
बाए हात में जल सहित कमंडलू अरपित करें।
फिर ब्रह्म यज्ञानम प्रथमम् इस मंतर से उसके मस्ठक का इसपर्श
करके दोनों भोहों के इसपर्श पूर्वक रुद्र सुक्त का जब करें।
तद पशाद मानो महान्तमुतः इत्यादी चार मंतरों को पढ़कर
नारियल के द्वारा यती के शव के मस्ठक का भेदन करें। इसके
बाद उस गढ्धे को पाढ़तें। फिर उस इस्थान का इसपर्श करके
अनन्य चित से पांच ब्रह्म मंतरों का जब करें। तद अंत
महा नारायणो पनिशद के मंतरों का जब करके संसार रूपी
रोग के भेशज सरवग्य स्वतंत्र तथा सब पर अनुग्रह करने
वाले उमा सहित महादेव जी का चिंतन एवं पूजन करें।
पूजन की विधी यो हैं
इस प्रकार है।
एक हात उंचे और दो हात लंभे चोडे एक
पीठ का मिट्टी के द्वारा निर्मान करें।
फिर उसे गोबर से लीपें। वै पीठ चोकोर होना चाहिए।
उसके मद्यभाग में उमा महेश्वर को इस्थापित करके गंध,
अक्षत,
सुगंधित पुष्म,
बिल्वपत्र और तुलसी दलों से उनकी पूजा करें।
अग पश्याद प्रणव के धूप और दीप निवेदन करें। फिर दूध
और हविश्च का नएवध्य लगाकर पांच बार परिकरमा करके नमस्कार
करें। फिर बारे बार प्रणव का जब करके प्रणाम करें।
तद अंतर वही भूत यति की तब्ती के लिए नारायन पूजन,
बलीदान,
गृत दीप दान का संकल्ब करके गर्त के ऊपर म्रन्य में लिंग
बनाकर पुर्श सुक्त से पूजा करके गृत मिश्चित पायस की बली दें।
अब यतियों के एकादरिशा की विधी सुनो।
बोली शिवशंकर भगवाने की जैये।
पिरीय भगतों,
इस परकार शिवशिव महापुरान के केला सहिता की ये कथा
और 20 मा तथाई 21 मा ध्याय हाँपर समाप्त होता है।
तो सनियः से बोली शिवशंकर भगवाने की जैये। आदर से बोली।

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