Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जए!
प्रीये भगतों,
शिश्यु महापुरान की
कैलास सहिता की अगली कथा है
शैव्य दर्शन के अनुसार शिव तत्व
जगत प्रपंच और जीव तत्व के विशय में विशद विवेचन
तथा शिव से जीव और जगत की अभिन्यता का प्रतिपादन
तो आईए भगतों,
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ पंद्रुमा तथा सोल्मा अध्याय
तद अंतर उत्तम शेष्ट पद्रती का वढणन करके सृष्टी,
इस्थती और संघार
सबको शक्तिमान,
शिव की लीला पतलाते हुए वाम देव जी के पूछने पर स्कंदने कहा
हे मुने,
कर्मा इस्थित तत्व से लेकर जो इस्तित शास्त्रवाध है
अर्थात कर्म सत्ता के प्रतिभादख करमफलवाध से आरम्ब करके,
शास्त्रों में जो विविद विष्यों का विषद विवेचन है,
वह घ्यान परदान करने वाला है.
तो यह ग्यानवान पुरिश को विवेग पूरवक इसका शवन करना चाहिए।
तुमने जिन शिष्यों को उपदेश दिया है,
उनमें से कौन तुमारे समान है?
वे अधम शिष्य आज भी अञ्यान्य शास्त्रों में भटक रहे हैं,
अधम शिष्य दर्शनों के चक्कर में पड़कर
मोहित हो रहे हैं।
छे मुनियों ने उने शाप दे रखा हैं,
क्योंकि पहले वे शिव की निनदा किया करते थे,
अतेहे उनकी बाते नहीं सुननी चाहिए।
अतेहे उनकी वे अन्यथाव्यादी
शिव शास्त्र के विपरीत बात करने वाले हैं।
यहां पांच अव्यव्यों से युक्त अनुमान के प्रियोक के लिए भी अवकाश है ही।
यह उदारण,
उपने और निगमन
यह अनुमान के पांच अव्यव हैं।
परवतो वहिन्मान
परवत पर आग है। यह प्रितिग्या है।
धूम वत्वात्व। क्योंकि वहां धूम दिखाई देता है। यह हेतू है।
यतो यम् धूमवान।
यह परवत धूमवान है। यह उपने है। अतेह
अगनीमान। अतेह अगनी से युक्त है। यह निगमन है।
इसी तरहें ईश्वर के लिए भी अनुमान होता है।
किस प्रकार?
यत्हां।
छित्यंक्य कुरादिकम् कर्तिज्जन्यम्
पिर्थ्वी तथा अंकुरादि किसी कर्ता द्वारा उत्पन्य हुए हैं।
यह प्रतिज्ञा है।
कार्यत्वात्
यत्यत् कार्यम् ततत्तः
कर्तिजञ्न जथा घटः कुम्बकारजञ्न
त्रिजन्य,
जो जो कारिय है,
वै किसी न किसी कर्ता से उत्पन्य होता है,
जैसे गढडा,
कुम्बकार से उत्पन्य होता है।
यह उधारन हुआ।
यत इदम कारियम्,
चुंकि ये पृत्यु यादी कारिय हैं,
यह उपने हुआ।
कर्त्रिजन्यम्,
इसलिए कर्ता से उत्पन्य हुए हैं। यह निगमन हुआ। पृत्यु यादी
कारिय हम जैसे लोकों से उत्पन्य हुआ है। यह कहना संभाव नहीं।
अतय हिसका कोई विलक्षन करता है। वही सर्वशक्तिमान ईश्वर है।
उत्पम व्रत का पालन करने वाले वाम देव।
जैसे धूम का दर्शन होने से लोग अनुमान द्वारा
परवत पर अगनी की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं।
यह विश्व इस्तरी पुरुष रूप है। यह प्रत्यक्ष ही देखा जाता है।
च्येकोश रूप जो सडीर हैं। उसमें आदी के तीन माता के
अंश से उत्पम हुए हें। और अंतिम तीन पीता के अंश से।
ये श्वोती का कथन है।िस परकार सभी शरीर
को स्ट्री पुर्ष भाव को जानने वाले लोग।
हे मुने है
विद्वानोंने çokतर! परमातमा में भी श्वोती हाँ पुर्ष भाव को जाना है।
शुरृती कहती है परब्रह्म परमात्मा सत् चित और आनन्द रूप है।
असत परपंच को निवर्त्य करने वाला शब्द ही सत्रूप कहा जाता है।
चित शब्द से जर जगत की निवर्त्य हो जाती है।
यद भी सत् शब्द तीनो लिंगों में विध्वान है।
सनप्रकाश है।
चित्दूरूपता
उसके स्ट्रिभाव को सुचित करती हैं।
प्रकाश और चित्..
यह दोनों जगत के कारण भाव को प्राप्त हुए हैं।
इसी प्रकार सच्चेदातमा परमिश्वर भी जब
जगत के कारण भाव को प्राप्त होते हैं..
प्राप्त होते हैं तब उन्हें एक मात्र परमात्मा में ही शिवभाव
और शक्ति भाव का
भेद किया जाता है।
जब तेल और बत्ती में मलीनता होती है
तब उसके प्रकाश में भी मलीनता आ जाती है।
चिता की आग आधी में अशिवता
और मलीनता सपश्ट देखी जाती है। अतह मलीनता आधी आरोपित वस्तु हैं। उसका
निवर्तक होने की कारण परमात्मा के शिवत्व का
ही शुती के द्वारा प्रतिपादन किया गया है।
एह महा मुने वामदेव,
लोक और वेद में भी सदा ही परमात्मा की शिव रूपता
और शक्ती रूपता का साक्षातकार कराया गया है।
शिव और शक्ती के सईयोग से निरंतर आनन्द प्रगट रहता है। आतेह मुने
उस आनन्द को प्राप्त करने के उद्धिश्य से ही पाप रहित मुने शिव
में मन लगा कर निरामय शिव परम कल्यान एवं परमानन्द को प्राप्त हुए।
शंभु
नामक विग्रह में
व्रिहन्यत्व और व्रिहत्व,
व्यापक्ता और विशालता
नित्य विद्धमान है।
वामदेव
खंसह पद को उलड़ देने से सोहम पद बनता है।
उसमें प्रणाव का प्राकट्य कैसे हुता
है ये तुमारे स्नेवश में बता रहा हूँ।
सावधान होकर सुनो।
जो पर्मात्मा का वाचक है। तत्वदर्शी मुनी
कहते हैं कि उसे महा मंतरूप जाना चाही।
उसमें जो शुक्ष्म महा मंतर है,
उसका उध्धार मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
पदमें तीन अक्षर हैं ह,
अ,
स। इन तीनों में जो अ है,
वहें पंद्रवे अनुस्वार और सोलवे विसर्ग के साथ है।
सकार के साथ जो अ है,
वहें विसर्ग सहीत है।
इसमें जो सकार है,
वह शिव का वाचक है। अर्थात शिव ही सकार के अर्थ माने गए हैं।
शक्यतात्मक शिव ही इस महा मंतर के
वाच्यार्थ हैं। यह विद्वानों का निर्णय हैं।
जब शिश्यों को इस महामंत्र का उपदेश देते हैं,
तब सोहम पद से उसको शक्यात्मक शिव का ही बोध कराना अभीश्ठ होता है।
अर्थात वे ये अनुभव करें कि मैं शक्यात्मक शिव रूप हूँ।
इस परकार जब यह महामंत्र जीव परक होता है,
यह नहीं होता है। अर्थात जीव की शिव रूपता का बोध कराता है,
तब पशु जीव अपने को शक्यात्मक ये उन शिव का अंश जानकर शिव के
साथ अपनी एकता सिद्ध हो जाने से शिव की समता का भागी हो जाता है।
अब शुती के प्रज्यान ब्रम् इस वाक्य में जो प्रज्यानं पद आया है,
इसकी अर्थ को दिखाया जा रहा है.
प्रज्यान शब्द चेतन्य का परियाय है। इसमें संचे नहीं है।
मुने!
शिव सूत्र में यह कहा गया है कि चेतन्यम आत्मा।
आत्मा
अर्थात- आत्मा ब्रह्म या पर्मात्मा चइतन्य रूप है।
चेतन्य शब्ल से यह सूचित होता है कि जिस में विश्व का समपोण ज्ञान तथा
स्वतंतर्ता पूर्वक जगत के निर्मान के क्रिया
स्वभावते विध्धुमान है,
उसी को आत्मा या परमात्मा कहा गया है।
इस प्रकार मैंने यहां शिव सुत्रों की व्याक्या की है।
ज्यानम् बंध ये दूसरा शिव सूत्र है।
इसमें पशुवर्ग,
जीव समुदाय का लक्षन बताया गया है।
इस सुत्र में आधी पध ज्यानम के द्वारा
किंचिन मात्र ज्यान और क्रिया का होना ही जीव का लक्षन कहा गया है।
यह ज्यान और क्रिया
पराशक्ति का प्रतं मिश्पंदन है।
इसका पूरा पाथ इस प्रकार है भक्तों।
श्रूयते स्वभाविके ज्यान बल क्रियाचे।
देह और इंद्रिय से इसका है संबंद नहीं कोई।
अधिक कहा उनके सम भी तो दीख रहा न कहीं कोई।
ज्यान रूप बल रूप क्रिया में उनकी प्राशक्ति भारी।
विविद रूप में सुनी गई है स्वभाविक
उन में सारी।
इस शुती के द्वारा
इसी प्राशक्ति का प्रसन्यता पूर्वग स्तवन किया है।
बगवान शंकर की तीन दृश्टियां मानी गई हैं।
ज्यान, क्रिया और इच्छा रूप
ये तीनों दृश्टियां जीवों के मन में इस्थित हो।
इंद्रिय ज्ञान गोचर देह में प्रवेश
करके जीव रूप हो सदा जानती और करती हैं।
तैह ये दृश्टि त्रिय रूप
जीव आत्मा परमिश्वर का स्वरूप ही है।
ऐसा निश्चित सिध्धान्त है।
अब
मैं जगत प्रपंच के साथ प्रणाव की एकता का बोध करने वाले
प्रपंचार्थ का अर्ध करूँगा।
ओमितिदम्
सर्वम् अर्धात यह प्रत्यक्ष्य दिखाई देने वाला समस्त जगत
ओमकार है।
यह सनातन शुती का कथन है। इससे प्रणाव और जगत की एकता सुचित होती है।
तसमाद्वाग
इस वाक्य से आरम्ब करके तैत्रीय शुती ने
संसार की स्चिस्टी के क्रम का वर्णन किया है।
हे वामदेव,
उस शुती का जो विवेक पून्ट तात्परिय है,
उसे मैं तुम्हारे स्नहे वश्च बता रहा हूँ।
शिव शक्ती का संयोग ही परमात्मा है।
यह ज्यानी पुर्शों का निष्चित मत है। शिव की जो पराशक्ती है,
उससे
चिछक्ती प्रगट होती है। चिछक्ती से
आनन्द शक्ती का प्रादुरभाव होता है। आनन्द शक्ती से इच्छा शक्ती का
उद्भः हुआ है
आनन्द शक्ती का प्रादुरभाव होता है।
शिव से इशान उत्पन हुए हैं,
इशान से तत्पुरुष का प्रादुरभाव हुआ है। तत्पुरुष से अगोर का,
अगोर से वामदेव का और वामदेव से सदोजात का प्राकट्य हुआ है।
इस आदी अक्षर पणों से ही मूल भूद पांच स्वर और त्यांतीस �
समान हुं retrouve
कारणं से पंचक कहें समान षाथ धूंनॆ
इस्से appoint to these arrangements,
ये पांच तत्वदर्शी ज्यानी मुनियों ने कही हैं।
वाच्च वाच्चक के संबंध में उनमें मिथुनत्व की प्राप्ति हुई है।
पुर्थवी तक में भूत पंचक की गण्ना है।
हे मुनि श्रेष्ट,
आकाश आदी के करम से इन पांचो मिथुनों की उतपत्य हुई है।
इन में पहला मिथुन है आकाश,
दूसरा वायू, तीसरा अगनी,
चोथा जल और पांचवा
मिथुन प्रत्वी है।
इन आकाश से लेकर पृत्वी तक के भूतों का
जैसा स्वरूप पत्या गया है। उसे सुनो।
आकाश में एक मात शब्द ही गुन है। वायू में शब्द और सपर्श दो गुन है।
अगनी में शब्द,
सपर्श और रूप इन तीन गुनों की प्रधानता है।
जल में शब्द, सपर्श,
रूप और रस ये चार गुन माने गए हैं।
तता प्रथ्वी शब्द,
सपर्श,
रूप, रस और गंध इन पाच गुनों से समपन्य हैं।
यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है।
अर्थाथ शब्द अधी गुनों द्वारा आकाश अधी भूत,
वायु आधी परवर्ती भूतों में किस प्रकार व्यापक हैं।
यह दिखाया गया है।
इसके विपरीद गंध अधी गुनों के करम से
वे भूत पूर्वर्ती भूतों से व्यापत हैं।
अर्थाथ गंध गुन वाली प्रत्वी जल का रस गुन वाला जल अगनी का व्याप पहें।
इत्यादी रूप से इनकी व्यापकता को समझना चाहिए।
पांच भूतों का यह विस्तार ही
प्रपंच कहलाता है।
सार्वसमश्टी का जो आत्मा है उसी का नाम विराठ है।
और प्रत्वी तत्तु से लेकर क्रमशेः शिव तत्तु
तक जो तत्तुओं का समुधाय है वही ब्रह्मान्ड है।
यह क्रमशेः तत्तु समुह में लीन होता हुआ अन्त तोगत्वा सबके
जीवन भूत चितन्यमें परमिश्वर में ही लेको प्राप्त होता है।
और स्विश्टी काल में फिर शक्ती द्वारा शिव से निकल कर स्थूल
प्रपंच के रूप में परले काल परियंत सुख पूर्वक इस्तित रहता है।
अपनी इच्छा से संसार की स्रिश्टी के लिए उधधत हुए महिश्वर का जो प्रथम
परिष्पंध है
उसे शिव तत्व कहते हैं।
यही इच्छा शक्ती तत्व है क्योंकि संपूर्ण
क्रत्तों में इसी का अनुवर्तन होता है।
खापी उनमें जो भेद बुद्धी होती है
उसका नाम माया तत्व है।
जव शिव अपने परम एश्वर्यशाली रूप को माया से नीकरीहीत
करके संपूर्ण पढार्थों को ग्रहन करने लगता है।
तब उसका नाम पुरुष होता है।
इस शुती ने उसके स्वरूप का प्रतिपादन किया है
अथ्वा इसी तत्व का प्रतिपादन करने के
लिए उक्त शुती का प्रादुरभाव हुआ है।
यही पुरुष माया से मोहित होकर संसारी,
संसार बंधन में बंधा हुआ,
पशु कहलाता है।
शिव तत्र के ज्ञान से शुन्य होने के कारण
उसकी बुद्धी नाना कर्मों में आसक्त हो,
मूढ़ता को प्राब्द हो जाती है।
वह जगत को शिव से अभिन्य नहीं जानता
तथा अपने को भी शिव से भिन्य ही समसता है।
हे प्रभु,
यदि शिव से अपनी तथा जगत की अभिन्यता का बोध हो जाए,
तो इस पशु
जीव को मोह का बंधन नहीं प्राब्द हो।
जैसे इंद्रजाल विध्या के ग्याता बाजीगर
को अपनी रची हुई अद्बुत वस्त्वों के
विशे में मोह या ब्रहम नहीं होता है।
उसी प्रकार ज्यान योगी को भी नहीं होता है।
गुरु के उपदेश तुआरा अपने श्वर्य का बोध प्राब्द हो जाने पर,
वह चिदानन्दगन शिवरूप ही हो जाता है।
शिव की पांच शक्तियां हैं।
पहली सर्व कर्तव्य रूपा,
दूसरी
सर्व तत्व रूपा,
जिव की पांच कलाईं हैं।
पहली कला,
दूसरी विध्या,
तीसरी राग,
चोथी काल,
और पांचवी नियती,
इन्हें कला पंचक कहते हैं।
जो हाँ पांच तत्वों के रूप में प्रकट होती हैं,
उसका नाम कला है।
और मेरा कर्तव्य है और यह नहीं है।
इसप्रकार नियंत्रण करने वाली जो विभूति की शर्व नहीं है,
वही आपकाल है।
इस प्रकार नियंत्रन करने वाली जो विभूती की शक्ती है,
उसका नाम नियती है,
उसके आक्षेप से
जीव का पतन होता है.
ये पाँचो ही जीव के स्वरूप को अच्छादित करने वाले
आवरन हैं.
इसलिए पंचकंचुक कहे गए हैं.
इनके निवारन के लिए अंतरंग साधन की आवशक्ता है.
बोलिये भक्तों,
शिवशंकर भगवाने की जैए!
प्रिये भक्तों, इसप्रकार यहाँ पर
शिशिवमहपुरान के केला सहिता की यह कता और पंद्रमा
तता सोलमा अध्या यहाँ पर समाप्त होते हैं.
तो आईए सिनह और आदर के साथ पोलते हैं.
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए! आनन्भाव के साथ पोलिये मेरे साथ.
ओम नमः शिवाय!
ओम नमः शिवाय!
ओम नमः शिवाय!