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Shiv Mahapuran Vighneshwar Sanhita Adhyay-17

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran vighneshwar sanhita adhyay-17 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran vighneshwar sanhita adhyay-17 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Vighneshwar Sanhita Adhyay-17 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Vighneshwar Sanhita Adhyay-17

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोले शिवशंकर भगवान एकी
जेव
प्रिये भक्तों
शिष्यिव महा पुरान के विद्ध्रिश्वर सहीता की अगली कथा है
शडलिंग स्वरूप पणव का महात्म
उसके सूक्ष्म रूप ओमकार
और इस थूल रूप पंचाक्षर मंत्र का विवेचन
करके पंचावरन विशिष्ट शिवलोक के अनिवर्चनी वैभव
का निरूपन तथा शिवभक्तों के सतकार के महत्तता
रिशी बोले
हे प्रहु
हे महामुने
आप हमारे लिए क्रमश है शडलिंग स्वरूप पणव का
महात्म तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताईए
सूच जी ने कहा
हे महरशियो आप लोग तपस्या के धनी है
आप ने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्तित किया है
किन्टो इसका ठीक ठीक उत्तर महादेव जी ही जानते हैं दूसरा कोई
नहीं तथापी भगवान शिव की करपा से ही मैं इस विशय का वर्णन करूँगा
वे भगवान शिव हमारी और आप लोगों की रक्षा का भारी भार
बारंबार स्वेम ही ग्रहन करें प्रे नाम है प
इससे पार करने के लिए दूसरी नाव है इसलिए इस ओमकार को
परनव की संग्या देते हैं ओमकार अपने जब करने वाले साधकों से कहता है
प्रे प्रपंच न नहीं है वह
तुम लोगों के लिए अतः इस भाव को लेकर भी ज्यानी पुरुश
ओम को परनव नाम से जानते हैं
इसका दूसरा भाव यों है
प्रे प्रकर्षनेन
न नएत व युश्मान मोक्षम इतीवा परनवः
अर्थात यह तुम सब उपासकों को बल पूर्वक मोक्ष तक पहुचा देगा
इस अविप्राय से भी इसे रिशी मुनी प्रणव कहते हैं
अपना जब करने वाले योगियों के
तथा अपने मंत्र की पूजा करने वाले
उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके
यह दिव नूतन ज्यान देता है
इसलिए भी इसका नाम प्रणव है
उन माया रहित महिश्वर को ही
नव अर्थात नूतन कहते हैं
वे परमात्मा
प्रकृष्ट रूप से नव अर्थात शुद्ध स्वरूप हैं इसलिए प्रणव कहलाते हैं
प्रणव साधक को नव अर्थात नवीन शिव स्वरूप कर देता है
इसलिए भी विद्धुआन पुरुष उसे प्रणव के नाम से जानते हैं
अथवा
प्रकृष्ट रूप से नव दिव्य परमात्म
ज्यान प्रगट करता है इसलिए वह प्रणव है
प्रणव के दो भीद बताये गए हैं
इस थूल और सूक्ष्म एक अक्शर रूप जो ओम है
उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिए और नमः शिवाय
इस पाच अकशर वाले मंत्र को इस थूल प्रणव समझना चाहिए
इसमें पाच अकशर व्यक्ट नहीं है
वे सूक्ष्म है और जसमें पाचों अकशर सूई
सपश्ट रूप से व्यक्ट है वे स्थूल है
जीवन मुक्त पुरुष के लिए सूख्ष्म प्रणव के जप का
विधान है वही उसके लिए समस्त साधनों का सार है
यद्वी जीवन मुक्त के लिए किसी साधन की आउशक्ता नहीं है
क्योंकि वे सिद्ध रूप है तत्हापी दूसरों की द्रिश्टी में
जब तो
उसका शरीर रहता है
तब तक उसके द्वारा प्रणाव जप की सहज साधना स्वते होती रहती है
वे अपनी देह का विलेर होने तक सूख्षम प्रणाव मंत्र का जप
और उसके अर्थ भूत परमात्म
तत्व का अनसंधान करता रहता है
जब शरीर नश्ठ हो जाता है
तो वे पूर्ण ब्रह्म स्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है
यह सुनिश्चित बात है
जो अर्थ का अनुसंधान नहीं करके किवल मंत्र का जप करता है
उसे निश्चे ही योग की प्राप्ती होती है
जिसने 26 करोड मंत्र का जप कर लिया हो
उसे अवश्चे ही योग प्राप्त हो जाता है
सूख्षम प्रणव के भी हरश्व और दीर्ग के भेध से दो रूप जानने चाहिए
अकार,
उकार,
मकार,
बिंद,
नाद,
शब्द,
काल,
और कला
इनसे युक्त जो प्रणव है उसे दीर्ग प्रणव कहते हैं
वह योगियों के ही हिर्दे में इस्थित होता है
मकार परियंत जो ओम है
वह ए, उ,
म इन तीम तत्वों से युक्त है
इसी को हरश्व प्रणव कहते हैं
अ शिव है उ शक्ती है और मकार इन दोनों
की एकता है वह त्रितत्व रूप है ऐसा समझकर
हरश्व प्रणव का जब करना चाहिए
जो अपने समस्त पापों का ख्शे करना चाहते हैं
उनके लिए इस हरश्व प्रणव का जब अत्यंत अवश्यक है
प्रत्वी जल तेज वायू और आकाश ये पांच भूत तथा शब्द
इसपर्श आदी इनके पांच विशेय ये सब मिलकर
दस वस्तवे मनुश्य की कामना के विशेय हैं
इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के उनुष्ठान
में सन्लगन होते है are around ten types of men
तथा जो निष्कामभाव से शाज्ट्रवेहीन कर्मों का अनुष्ठान करते है
वे निरव्रेत्त्य अथ्वा निर्वत्ति desar्गी कहें ज सते हैं
प्रवथ्त्य पुर्षों को रश्व प्रनव का हई जप करना चाहिए
और निर्वत्त्य पुर्षों को दीर्ग प्रनव का
तदपश्यात पुनेह नौ करोड का जब करके वェ जल तटव को जीत लेता है
पुनेह नौ करोड जब से
अगनी तटव पर वज़य पाता है
तदनतर फिर नौ करोड का जब करके वे ह वायू तटव पर विज़य हूता है
फिर 9 करोड का जब से आकाश को अपने अदिकार में करले ता है
इसी परकार 9-9 करोड का जब करके वे क्रमश है
गंद, रस, रूप, सपर्श, اور शब्द पर वิजय पाता है
इसके बाद फिर 9 करोड का जब करके अहंकार को भी जीत लेता है
इस तरह 108 करोड परनव का जप करके
उत्किरिष्ट बोध को प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग का लाब करता है
शुद्ध योग से युक्त होने पर वे जीवन मुक्त हो जाता है
इसमें संचे नहीं है भक्तों
सदा प्रणव का जप और प्रणव रूपी शिव का ध्यान करते करते
समाधी में इस्तिध हुआ महा योगी पुरुष साक्षात शिव ही है
इसमें संचे नहीं है
पहले अपने शरीर में प्रणव के रिशी छंद और देवता
आधी का न्यास करके फिर जप आरंब करना चाहिए
अकार आधी मात्रिका वर्णों से युक्त प्रणव का अपने
अंगों में न्यास करके वनुश्य रिशी हो जाता है
मनुश्यों के दशविद अरथात मंत्रों के दश संसकार हैं जो इस प्रकार से
हैं जनन दीपन बोधन ताडन अवीशेचन विमली करण जीवन तरपन गोपन और आप्यायन
तो ये जो मंत्रों के दशविद संसकार मात्रिका न्यास तथा
शडधजशोधन आदी के साथ सम्पून न्यास फल उसे प्राप्त हो जाता है
प्रवत्ती तथा प्रवत्ती निर्वत्ती से मिश्रित भाव वाले
पुर्शों के लिए इस थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधक होता है
क्रिया, तप और
जब के योग से शिव योगी तीन प्रकार की होते हैं
जो क्रमश है क्रिया योगी,
तपो योगी और जब योगी कहलाते हैं
जो धन आदी वैभुवों से पूजा सामगरी का संचे करके,
हाथ आदी अंगों से नमस्कार आदी क्रिया करते हुए इष्ट
देव की पूजा में लगा रहता है वह क्रिया योगी कहलाता है
पूजा में संलग्न रहकर जो परमित भोजन करता है,
बाही अंद्रियों को जीत कर वश्मे किया रहता है और मन को भी
वश्मे करके पर द्रोह आदी से दूर रहता है वह तपो योगी कहलाता है
इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्ध भाव से रहता
तथा समस्त काम आदी दोशों से रहित हो शांत चित से निरंतर
जप किया करता है उसे महात्मा पुरुष जप योगी मानते हैं
जो मनुष्य सोलहे परकार के उपचारों से शिव योगी महात्माओं
की पूजा करता है वह शुद्ध होकर सालोक के आदी के क्रम
से उत्र-उत्र उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता है
हे द्विजो अब मैं जप योग का वर्णन करता हूँ
तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो
तबस्या करने वालों के लिए जप का उपदेश किया गया है
क्योंकि वे जप करते करते अपने आपको
सर्वता शुद्ध अर्थात निश्पाप कर लेता है
ए ब्राह्मणो पहले नमः
पध हो उसके बाद चतुर्थी विभक्ती में शिव शब्द
हो तो पंच तत्वात्मक नमः शिवाय मंत्र हुता है
यह इस थूल प्रणव रूप है इस पंचाक्षर के जब से ही
मनिश्य संपूर्ण सिध्यों को प्राप्त कर लेता है
पंचाक्षर मंत्र के आदी में ओमकार लगा कर ही सदा उसका जब करना चाहिए
जो गुरू के मुक से पंचाक्षर मंत्र का उपदेश
पाकर जहां सुख पूर्वक निवास किया जा सके
उत्तम भूमी पर महीने के पूर्वपक्ष अरथात शुक्लपक्ष में प्रतिपदा
से आरंभ करके कृष्णपक्ष की चतुरदशी तक निरंतर जब करते रहें
माग और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं
यह समय सब समयों से उत्तम उत्तम माना गया है
साद्गों को चाहिए कि वे प्रति दिन एक बार परिमित भोजन करें
मौन रहें
इंद्रियों को वश्मे रखें
अपने स्वामी और माता पिता के नित्य सेवा करें
इस नियम से रहकर जप करने वाला पुरुष
एक सहस्तर जप से ही शुद्ध हो जाता है
अन्यथा वे रिणी होता है
भगवान शिव का निरंतर चिंतन करते हुए पंचाक्षर मंत्र का पांच लाख जप करें
जप काल में इस प्रकार ध्यान करें
कल्यान दाता भगवान शिव कमल के आसन पर विराजमान है उनका मस्तक
श्री गंगा जी तथा चंद्रमा की कला से सुशोभित है उनकी बाई जांग पर
आधिशक्ती भगवती ऊमा बैठी हैं
वहाँ खड़े हुए बड़े बड़े गन भगवान शिव की शोभा भडा रहे हैं
महादेव जी अपने चार हाथों में म्रग मुद्रा,
तंक तथा वर एवं अभय की मुद्रा धारन किये हुए हैं
इस प्रकार सबा सब पर अनुग्रह करने वाले भगवान सदाशिव का बारंबार स्मर्ण
करते हुए हिर्दय अथ्वा सूर्य मंडल में पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर
पूर्वा भिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्ष्री विध्या का जब करें उन दिनों साधक स�
प्रातेह काल निथ्य करम करके शुद्ध एवं सुन्दर इस्थान
में शोच संतोष आधी नियों से युक्त हुए शुद्ध
हिर्दय से पंचाक्षर मंत्र का बाहरे सहस्तर जब करें
ततपशाद
पांच सेपतनीक ब्राहमनों को जो शेष्ट एवं शिवभक्त हो वरन करे
तब पूजन सामगरी को एकत्र करके भगवान शिव का पूजन आरंब करें
विधी पूर्वक शिव की पूजा संपन्य करके होम आरंब करें
पूजन सामगरी स्थापित करके
कुष्कंडिका के अनंतर प्रज्वलित अगनी में आज्यभाग
आंत आहुती देकर तस्तद होम का कारिये आरंब करें
कपिला गाय के घी से 11,
101 अथ्वा 1000 एक आहुतियां स्वैम ही दें
अथ्वा विद्वान पुरुष शिव भक्त ब्राह्मनों से 108 आहुतियां दिलाएं
होम कर्म समाप्त होने पर गुरू को दक्षणा के रूप में एक गाय
और बैल देने चाहीं
इशान आदी के प्रतीक स्वरूप जिन पाँच ब्राह्मनों का
वरन किया गया हो उनको इशान आदी का स्वरूप ही समझें
तथा आचार्ये को सामऽ सदाशिव का स्वरूप मानें
इसी भावना के साथ उन सबके चरन धोएं
और उनके चरणों दक्षे अपने मस्तक को सी�
उन ब्राह्मनों को भक्ति पूर्वक दशान्स अन्य देना चाहिए
गुरुपत्नी को पराशक्ति मान कर उनका भी पूजन करें
इशान आदी क्रम्स से उन सभी ब्राह्मनों का उत्तम अन्य से पूजन करके
अपने वैभव विस्तार के अनुसार रुद्धाक्ष, वस्त्र,
बड़ा और पूआ आदी अरपित करें
तद अंतर
दिक्पाल आदिकों को बली देकर ब्राह्मनों को भर्पूर भूजन कराएं
इसके बाद देविश्वर शिव्से प्रार्थ्णा करके अपना झप स� MIKE his fame
इस प्रकार,
पुरशचरं करके मनुश्य उस मंत्र को सिद्ध कर लेता है,
फिर पांच लाग जप करणे से समस्त पापों का नाश हो जाता है।
तद Zasmine children request to all spiritual children.
यदि अनुस्थान पूर्ण होने से पहले
बीच में ही साधक की मृति हो जाये
तो वे परलोक में उत्तम भोग भोगने के पश्चात
पुनहें पृत्थी पर जन्म लेकर
पंचाक्षर मंत्र के जब का अनुस्थान करता है
समझत लोकों का एश्वरिय पाने के पश्चात वे मंतर को
सिध्ध करने वाला पुरुष यदि पुनहें । पाँच हुआऽ जब
करे तो उसे ब्रह्मा जी का सामिप्पि प्राप्त हुता है
पुने पाच लोग जब करने से सारुप्य नामक एश्वरयव प्राप्त होता है
सो कारी जब करने से वै शाक्शात भ्रम्मा के समाअन हो जाता है
इस तरहैं कार Coryel ब्रहम हिरनगर्ध
की सायुज्जय प्रापत करके
कर्कि वै उस ब्रह्मी का प्रले होने तक उस लोग में यधिश्ट भोग भोगता है,
फिर दूसरे कल्प का आरम्ब भोगने पर वै ब्रह्मा जी का पुत्र होता है��를
द्शलुर तFather after taking NXT he loves to leave brothers with' scrubs,
bкуюt,
वे ब्रह्मा जी का पुत्र होता है। उस समय फिर तपस्या करके
दिव्य तेज से प्रकाशित हो वे क्रमश है यूख्ड हो जाता है।
पिर्थ्वी आधी कारे स्वरूप
भूतों द्वारा पाताल से लेकर सत्यलोक परियंत्र
ब्रह्मा जी के चोहदै लोक क्रम से निर्मित हुए हैं
सत्यलोक से उपर ख्षमालोक तक
जो चोहदै भूवन हैं वे भगवान विश्नू के लोक हैं
भूतों...
आइन्सा लोक के अंत में काल चक्र की स्थिती है
यहां तक महेश्वर के विराज स्वरूप का वर्णन कीआ गया
वहीं तक
लोकों का तिरोधान अत्वा ले होता है
उससे नीचे कर्मों का भोग है और उससे उपर ज्ञान का भोग है
ोर कर्म भोग हैं
उसके नीचे कर्माया हैं और उपर ज्ञानमाया हैां
में कर्माया और ज्ञानमाया का तात््परिय बता रहा हूं
एह विपरो,
ध्यान पूर्वक सुनो
मा .
मा का अरथ है लकष्मी
उस سے कर्मभोग यात
प्राप्त होता है।
इसलिए वे माया अरथा्थ
कर्म-माया कहलाती है।
इसी तरहें मा अरथाथ लक्षमी से ज्ञानभोग यात अरथाथ प्राप्त होता है।
इसलिए उसे माया या ज्ञान-माया कहा गया है।
आया कहा गया है
उपरिक्त शीमा से नीचे नश्वर भोग है
और उपर नित्य भोग उससे
नीचे ही तिरोधान अथ्वा ले है उपर नहीं वहां से नीचे ही कर्म में पाशों
अपने लोकों में चक्कर काटे रहते हैं उससे उपर के
लोकों में निशकाम कर्म का ही भोग बताया गया है
बिंदु पूजा में तथपर रहने वाले उपासक
वहां से नीचे की लोकों में ही घुमते हैं
उसके उपर तो निशकाम भाव से शिवलिंग की पूजा करने वाले उपासक थी जाते हैं
जो एक मातर शिव की ही उपासना में तत्पर हैं,
वे उससे उपर के लोकों में जाते हैं.
वहाँ से नीचे जीवन कोटी है और उपर इश्वर कोटी.
नीचे संसारी जीव रहते हैं और उपर मुक्त पुरुष.
नीचे कर्म लोक है और उपर
ग्यान लोक.
जो आध्यात्मिक उपासना करने वाले हैं,
वे ही उस से उपर को जाते हैं,
जो सत्य, अहिन्सा आधी धर्मों से युक्ते हों,
भगवान शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं,
वे काल चक्र को पार कर जाते हैं।
काल चक्रिश्वर की सीमा तक
जो विराट महिश्वर लोग बताया गया है,
उस से उपर विशब के आकार में धर्म की स्थती है,
वे ब्रह्मचरिय का मूर्ति महान रूप है।
उसके सत्य,
शोच,
अहिन्सा और दया
ये चार पाद हैं।
वे साक्षात शिवलोक के द्वार पर खड़ा है।
शमा उसके सींग है,
शमकान है,
वह वेदध वेनिरूपी शब्द से विभूशित है।
आस्तिक्ता उसके दोनों नेत्र है,
विश्वास ही उसकी शेष्ट बुद्धी एवं मन है।
क्रिया आदी धर्म रूपी जो विशब हैं,
वे कारण आदी में स्थित हैं।
उसक्रिया रूप विशबाकार धर्म पर कालातीत शिव आरुढ होते हैं। ब्रह्मा,
विश्णू और महेश्वर की जो अपनी अपनी आयू है,
उसी को दिन कहते हैं।
जहां धर्म रूपी विशब की स्थिती है,
उससे ऊपर न दिन है न रात्री। वहां जन्म,
मरन आदी भी नहीं है।
वहां फिर से कारण स्वरूप ब्रह्म के कारण सत्य लोक परियंत चोहदे लोक
इस्थित हैं, जो पांच भोतिक गंद आदी से परे हैं।
उनकी सानातन इस्ठती हैं,
सuxhma गंद ही उनका स्वरूप है। उन्से ऊपर फिर कारण रूप विश्णु
के चोऽधे लोक इस्थित हैं। उन्से भी ऊपर फिर कारण रूपी रुद्र
के 28 लोकों की इस्தती मांयि ग mathematically गेवला ओवियों
वही पाच आवर्णों से युक्त ज्यान में केलास है,
जहां पाच मंडलों,
पाच ब्रह्मकलाओं और आधी शक्ती से संजुक्त आधी लिंग प्रतिष्ठित है।
उसे परमात्मा शिव का शिवाले कहा गया है,
वही पराशक्ती से युक्त परमिश्वर शिव निमास करते हैं।
वे सुष्टी,
पालन, संघार,
तिरोभास और अनुग्रह
इन पाचो क्रत्यों में प्रवीन हैं।
उनका श्रीव ग्रह सच्चिदानन्द सवरूप है।
वे सदा ध्यान रूपी धर्म में ही स्थित रहते हैं।
वे सदा सब पर अनुग्रह किया करते हैं।
वे सुआत्माराम हैं।
और समाधी रूपी आसन पर आसीन हो नित्य वराजमान होते हैं।
प्रम एवं ध्यान आदी का अनुष्ठान करने से
क्रमसहे साधन पत में आगे बढ़ने पर
उनका दर्शन साध्य होता है।
नित्य,
नैमित्तिक आदी कर्मों द्वारा
देवुताओं का यजन करने से
भगवान शिव के समाराधन कर्म में मन लगता है।
अदि जो शिव संबंदी कर्म हैं
उनके द्वारा शिव ज्ञान सिद्ध करें। जिन्होंने शिव तत्व का साक्षात
कार कर लिया है अथ्वा जिन पर शिव की कृपा द्रिश्टी पढ़ चुकी है
वे सब मुक्ती ही हैं। इसमें संशे नहीं है। आत्म सवरूप से जो इस
परुष क्रिया
तप जप ज्ञान और ध्यान रूपी धर्मों में भली भात इस्थित है वही शिव का
साक्षात कार करके स्वात्माराम सवरूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।
जैसे सूर्य देव अपनी किरनों से अशुद्धी को दूर कर देते हैं उसी परकार कृ
विश्यद स्वरूपत्मारामत्म प्राप्त होता है और आत्मारामत्म
की सम्यक सिध्धी हो जाने पर मनुश्य कित्कृत्य हो जाता है।
इस प्रकार यहां जो कुछ बताया गया है
वे पहले मुझे गुरू परंपरा से प्राप्त हुआ था
तत पश्यात मैंने पुने नन्दिश्वर के मुक से
इस विशय को सुना था
नन्दिश्वर से परे जो स्वेम वेद शिव वैभव
है उसका अनुभव केवल भगवान शिव को ही है
साक्षात शिवलोक के उस वैभव का ज्यान सबको शिव की करपा से
ही हो सकता है अन्यता नहीं ऐसा आस्तिक पुरुषों का कतन है
साधक को चाहिए कि वे पांच लाख जब करने के पश्चात भगवान शिव की प्रसनता
के लिए महाविशेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिव वगतों का पूजन करे
शिव भगत का शरीव शिव रूप ही है अते उसकी सेवा में तट पर रहना चाहिए
क्योंने जो सिव के भक्त हैं वइलोक और
वेड की सारी क्रियेयों को जाहाते हैं
वे क्रम श है है जतना जतनाशि्वमंत्र का जब कर लेता है
उसके शरीर को उतना ही उतना स्व सामिप पराप्त औजाता है
शिव भक्त को रूप तक h देवीपरवदी कौ अन्शे
नहीं रो है- शिव भकत शुरि काोरूप ता
देवीपरवदी का हामा रूम देपुलg की जो है- whack तक वो कँमा है- विक
जेतना मंतर मुअल जपतने है है धेवीतना ही व confuse गते सिंखर है।
उसे उतना ही देवी का सानिध्य प्राप्त होता जाता है
सादक स्वहम शिव स्वरूप होकर
पराशक्ति का पूजन करे
शक्ती वेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा
मिट्टी आदी से उसकी आक्रती का निर्मान करकी
प्राणप्रतिस्ठा पूसियो rendered the awakening of the human heart
पासमत्ा चप्यलो बिंड्ली मोंप evil
गुद न तांद्य खुवन रूप से भावना करने के कारण
शिव रूप ही है
शिव भकत,
कुछ शिव मन्त्रूप होणे के कारण
शिव के ही स्वरूप है
जो 16 उपचारों शे उनकी पूजा करता है
वस्तु की प्राप्ती होती है,
जो शिव लिंगो पासक, शिव भक्त की सेवा आदी करके
उसे आनन्द प्रदान करता है,
उस विद्वान पर भगवान शिव बड़े प्रसन्य होते हैं.
पांच, दस या सो सेपतनीक शिव भक्तों को उबलाकर
भोजन आदी के द्वारा पत्नी सहित उनका सदेव समाधर करे,
धन में,
देह में और मंत्र में शिव भावना रखते हुए,
उन्हें शिव और शक्ती का सरूप जानकर निषकफट भाव से उनकी पूजा करे.
प्रिये भक्तों,
इस प्रकार यहां पर शी शिव महा पुरान के विद्धिश्वर
सहिता की ये कथा और सत्रवा अध्याय समाप्त होता है.
सिनही के साथ बोलीए,
बोलीए शिव शंकर भगवान की जेव.
बोली ओम नमः शिवाय.
ओम नमः शिवाय.
ओम नमः शिवाय.

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