Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की
जए!
प्रिये भगतों
शिश्यु महा पुरान के केला सहीता की अगली कता है
महावाक्यों के अर्थ पर विचार
तथा सन्यासियों के योगपट का प्रकार
तो आईए भगतों
आरंब करते हैं इस कता के साथ
सत्रे
अथारे और उनिस वी कता
इसकंदर जी कहते हैं
मुने अब महावाक्यों के प्रस्तुत किये जाते हैं
पहला
प्रज्ञानम ब्रह्मा
इन वाक्यों का साधारन अर्थ यों समझना चाहिए
अयमात्मा ब्रह्मा
वै आत्मा ब्रह्म है।
पाच्वा
ईशा वास्यमिदम् चरवं
यह सब ईश्वर से व्याप्त है।
छटा
प्राणोस्मि
मैं प्राण हूँ।
साथ्वा
प्रज्ञानात्मा
प्रज्ञान स्वरूप हूँ।
आथ्वा
कमोवकमान?
�wynanilk isuraalakmā ramano iza asu
कुछ इखानात्मा तबच्चकें क्या अंविसामा।
यह वैतिक है।
अवधित,
अज्ञात से भी उपर है
दस्मा
एश्टह आत्मन्तर्याम्यम्रतः
वहे तुमारा आत्मा अन्तर्यामी अम्रित है
क्यार्मा
सेयस्चायम्पुरशो यस्चासावादित्ये सेहे एकह
वहे जो यह पुर्ष में है
और वह है जो यह आदित्य में है एक ही है।
बार्वान।
एहेमस्मी परंब्रह्म परात्परं।
मैं परात्पर्श्वरूब परात्पर्परब्रम्हुं।
तेहर्वान।
वेद शास्त्र गुरुनाम् तो स्वयमानन्द लक्षणम्।
वेदों शास्त्रों और गुरुजनों के वचनों से स्वयम ही
हिरदे में आनन्द स्वरूप ब्रह्म का अनुभव होने लगता है।
चौधवान। सर्वभूत इस्थितं ब्रह्मत देवाहं न संशयः।
पंद्रवान। तत्वस्य प्राणो अमस्मी पित्वयाह प्राणो अहास्मी।
वायू का प्राणो आगाष प्राणो अहमस्मी।
आकाश का प्रानु हूँ
अथार्वा
त्रिगुनस्य प्रानो अहामस्मि
मैं त्रिगुन का प्रानु हूँ
उन्निस्वा
सर्वोहम सर्वात्मको संसारी यद भूतम्
यच्च
भव्यम् यद द्वर्तमानम्
सर्वात्मकत्वाद द्वित्यायोहम्
20. सर्वं खलविदं ब्रह्म यह सब निष्च ही ब्रह्म है
21. सर्वोहम दिमुक्तोहम् मैं सर्वरूप हूँ मुक्त हूँ
22. यो सो सोहम् हन्सह सोहमास्ति जो वह है वह मैं हूँ
मैं वह हूँ और वह है मैं हूँ
इसप्रकार सर्वत्र चिंतन करें
अब इन महावाक्यों का भावार्थ कहते हैं
प्रज्यानम ब्रह्मा का वाक्यार्थ पहले ही सम्जाया जा चुका है
अब एहम् ब्रह्मास्मी का अर्थ बठया जाता है
शक्ति स्वरूप अत्वा शक्ति युक्त परमिश्वर ही एहम पद के अर्थ भूत हैं।
अकार सब वर्णों का अगरगन्य परम्प्रकाश शिवरूप है।
हकार व्यौम स्वरूप होने के कारण उसका शक्ती रूप से वर्णन किया गया है।
शिव और शक्ति के सईञ्योग से सदा आनन्द
उधित होता है। मकार उसी आनन्द का बोधक है।
ब्रह्म शब्द से शिव शक्ति की सर्वूपता इसपश्ट ही सूचित होती है।
पहले ही इस पात का उपदेश किया गया है कि वै शक्तिमान परमिश्वर मैं हूँ।
एसी भावना करनी चाहिए अब तत्तोमसी का अर्थ कहते हैं। तत्तोमसी इस
वाक्य में तत्तो पद का वही अर्थ है जो सोहमस्मी में सह पद का अर्थ
बताया गया है। अर्थात तत्पद शक्यात्मक परमिश्वर का ही वाचक है। अन्यता
सोहम
इस वाक्य में विपरीत
सेह सेह के साथ उसका अन्वय हो जायेगा परन्तु तद पद नपुण्सक है और त्वं
पुरलिंग। अतः परस्पर विरोधी लिंग होने के कारण उन दोनों में अन्वय नहीं हो
सकता। जब दोनों का अर्थ शक्तीबान परमिश्वर होगा तब अर्थ में समान लिंग
भक्तो अभ ऐमात्मा ब्रह्म का अर्थ पताया जाता है
ऐमात्मा ब्रह्म इस वाक्य में आयम और आत्मा ये दोनों पद पुरलिंग रूप हैं
अतया यहां अन्वय में बाधा नहीं है
आयम शक्तीमान परमिश्वर रूप आत्मा ब्रह्म हैं
यह इस वाक्य का तात्परिय है
अब ईशा वास्यमिदम सर्वम का भावर्थ पता रहे हैं
परमिश्वर से रक्षनिय होने के कारण यह संपून जगत उनसे व्याप्त हैं
अब
प्रानोस्मि प्रज्ञान आत्मा और
यदे वेह तदमुत्रह इन वाक्यों के अर्थ पर विचार किया जाता हैं
यहां यत्तद का आर्थ क्रमश है यह और सह है
अर्थार जो परमात्म यहां है वेह परमात्म वहां हैं
योय मुत्र सेइः इस्तत थे। Closing sentence
- The God which is above the universe,
aojanyadev tadveedit sadh ahavidditates ahadi
इस वाक्के पर विचार करते हैं!
हें मुने!
anyadev tadveedit sadh ahaviddites ahadi
इस வाक्के में जिस प्रकार फल की भी विपरीतता की भावना होती है,
उसे यहां बताता हूं।
सँनूह!
विदितात् यह पद एथा विदितात् कि उन्हीं का इन समस्त
उतकिष्ट गुणों से नित्य सम्बंध हैं अपने और पराये के
भेद सतात् कि अर्थमे प्रवित्त हो सकता है वे विदित से
भिन्न है अर्थात जो असम्यग रूप से घ्यात है उससे भिन्न है।
अत्यात्मा या ब्रह्म आधि पद पूर्वत शक्ति
मान परमिश्वशिव के ही बोदक यह मणना चाही.
इन दो वाक्यों की अर्थ पर विचार किया जाता है।
यह तुम्हारा अंतरयामी आत्मा है,
जो स्वहम ही अम्रस्वरूप शिव है।
यह जो पुरुष में शंबु है,
वही सूर्य में भी इस्थित है।
इन दोनों में कोई भेद नहीं है।
जो पुरुष में है, वही आधित्य में है।
इन दोनों में प्रथक्ता नहीं है।
वह तत्व एक ही है। उसी को सर्वरूप कहा गया है।
पुरुष और आधित्य,
इन दो उपाधियों से युक्त जो अर्थ किया जाता है,
वह उपचारिक है।
उन शंभुनात को सब शुतियां हिरन्यमें बताती हैं।
हिरन्यवाहनेनमः।
इसमें जो बाहु शब्द है,
वह सब अंगों का उपलक्षन है।
अनिथा उसे हिरन्यपती कहना किसी भी यत्न से संभव नहीं होता।
चंदोग्योपनिशद में जो है शुति है।
ये एशोनंत्रादित्ते हिरन्यमें पुरुषो द्रिश्चते
हिरन्यस्मिर्ष्टिर्ः हिरन्यकेश आप्रण्यखात सर्व एव सुवर्णः।
इसके द्वारा आधित्यमंडलान तरगत पुरुष को सुवर्ण में
दाढी मुचोवाला सुवर्ण सद्रिश्च केशोवाला तथा नख से लेकर
केशाग्रभाग परियंत सारा का सारा सुवर्ण में
प्रकाश में ही बताया गया है। अतयहे वै हिरन्यमें पुरुष साक्
पर यह बताता हूँ। सुनो
एहम पद के अर्थबूत सत्यात्मा शिव ही बताये गये हैं।
वे ही शिव मैं हूँ। एसी वाक्यार्थ योजना अवश्य हुती है।
उनहीं को सबसे उतकिष्ट और सर्व सवरूप परब्रम्व कहा गया है।
यही करम से पर, अपर तथा परादपर रूप हैं।
इन तीनों से भी जो शेष्ट देवता हैं,
वे शंभू परब्रम्व शब्द से कहे गये हैं।
वेदो शास्त्रों और गुरु के वचनों के अभ्यास से,
शिष्च के हिरदे में स्वेम ही
पूर्णानन्द में शंभू का प्रादुरभाव हुता है।
सम्पून भूतों के हिरदे में विराज्मान शंभू ब्रम्व रूप ही है।
यही मैं हूँ,
इसमें संचे नहीं है। मैं शिव ही सम्पून तत्व समुधाय का प्राण हूँ।
ऐसा कहकर सकंद जी फिर कहते हैं।
हे मुने मैं शिव, आत्म तत्व, विध्या तत्व
और शिव तत्व इन तीनों का प्राण हूँ।
जीव आत्मा हूँ।
सर्वो वै रुद्रः। सब कुछ रुद्र ही है।
यह शुरुती साक्षात शिव के मुक से प्रगट हुई है।
अतेशिव ही सर्वरूप हैं क्योंकि उन्हीं का इन
समस्त उत्कृष्ट गुणों से नित्य सम्मंध है।
अपने और पराय के भेद से रहित होने के कारण मैं ही
अध्वित्यात्मा हूँ। सर्वखल्विदं ब्रह्म। इस वाक्य का आर्थ
पहले बता चुका हूँ। मैं भावरूप होने के कारण पूर्ण
हूँ। नित्य मुक्त भी मैं ही हूँ। पशु,
जीव,
मेरी कृपा से म�
मैं शिव रूप हूँ। वामदेव।
इस परकार संपूर्ण वाक्यों के अर्थ भगवान शिव ही बताये गए हैं।
तत्वयोष्चास्मयहं प्राणः सर्वः सर्वात्मकोहयहं।
जीवस्य चान्तर्या मित्वाज जीवोहं तस्य सर्वधा।
यद भूतं यच्छ भव्यं यद भविष्चत सर्वमेवच
मन्मयत्वादहं सर्व सर्वोवह रुद्ध इत्यपी।
शुतिराह मुनेसाहि साक्षाच्छिवह मुखोदगता सर्वात्मः परमेरे
भिरगुन निर्च्च सन्नवायात् स्वास्मात्परमात्पविर्हाददेति
योहं येवही सर्वं खलविदं ब्रह्मेति व्याक्यार्थ पूर्वमीरितः।
पूर्णोहं भावरूपत्वान्यत्यमुक्तोहामेवही
पश्वो मत्प्रसाधेन मुक्ता मदभावमाशिताह।
ईशावास्योपनिशद की शुती के दो वाक्यों द्वारा
प्रतिपादित अर्थ साक्षात शिव की एकता
का ज्यान प्रदान करने वाला होता है।
गुरु को चाहिए कि शिश्यों को इसका आतरपूर्वक उपदेश करें।
गुरु को उचित है कि वे आधार सहित शंख को लेकर अस्त्र
मंत्र फट से तता भस्म द्वारा उसकी शुद्धी करके,
उसे अपने सामने चोकोर मंडल में स्थापित करें।
यह स्वर्रीोण कुछों तुछाindet 330।
यह शुती का सिध्धान्त बताया गया है।
इसलिए तुम अपने चित्त को इस्ठिर करके निर्भए हो जाओ।
यस्त्वारंतारं किंचे दपी कुरुते यस्त्ययती भीती भाग
इत्याह शुती सत्तत्वं द्रिष्टात्मा गतभीर भव।
अगन्यास करके आसन पूर्वक शोडश उपचारों की कलपना करें।
विद्धार्पन करके ओम्स्वाहा का उचारन करें। कुल्लावराच्चमन
कराएं। अर्ग आदी देकर क्रमशे धूप दीप आधी समर्पित करें।
दिन्यार oli
तक महा नारायनोपनिशद के मंत्रों का पाठ करें।
इसके बाद शिष्य के सामने कलहार आदी की बनी हुई माला लेकर खड़े हो।
गुरु शिव निर्मित पंचास्मिक शास्त्र
के सिध्धी सकंध का धीरी धीरे जप करें।
अनुकूल चित्त से पूर्णोहम इस मंत्र तक का जप
करके गुरु उस माला को शिष्य के कंठ में पहना दे।
तद अंतर ललाट में तिलख लगाकर संपर्दाही के अनुसार
उसके सरवांग में विधीवत चंदन का लेप कराएं।
तत्पश्याद गुरु प्रसन्यता पूर्वक श्रीपाद युक्त नाम देकर
शिष्य को चथ्र औचरन पादुकार पित करें। उसे व्याक्ष्यान देने तता
आवश्य कर्म आधी के लिए दुर्वासन ग्रहन कराने का दिकार दे।
फिर गुरु अपने उस शिव रूपी शिष्य पर अनुग्रह करके कहे,
तुम सदा समाधिस्त रहे कर,
मैं शिव हूँ
इस प्रकार की भावना करते रहो। यों कहकर वे स्वेम शिव को नमस्कार करें।
इस्पारकार नमस्कार करके, सुषील शिष्य जंब मौन और
विनीध भाव से गुरु के समीप खडा हो। तुम गुरु इस्परकार
और संकटा जाय,
तो भी शिव का पूजन किये बिना कभी भोजन न करो।
गुरु भक्ती का आश्रेले सुखी रहो।
सुखी रहो।
हे मुनिश्वर बामदेव,
तुम्हारे स्नेहवश अत्यंत गोपनिय होने पर भी मैंने
यह योग पट्ट का प्रकार तुम्हें बताया है। एसा कहकर स्कंदने
यातियों पर कृपा करके अन्य से सन्यासियों के एक शोर
और स्नान विधी का वर्णन किया।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
प्रिय भगतों,
शिश्यु महापुरान के
केलास सहीता की यह कथा
और सत्रे अठारे तथा उनिस्व अध्याय हाँपर समाप्त होते हैं।
तो भगतों स्नेहे के साथ बोलिये।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
आनन्द से बोलिये।
ओम नमः शिवाय।