Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जए!
प्रिये भगतों,
शिश्यु महा पुरान के केलास सहिता की अगली कता है
सन्यास क्रहेन की शास्त्रिय विधी
गनपति पूजन,
होम,
तत्त्व शुद्धी,
सावित्री प्रवेश,
सर्वसन्यास
और दंड्यधारन आधी का प्रकार.
तो आईए भगतों,
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ
तेहिर्वा अध्याय.
इसकंध कहते हैं,
हे वामदेव,
तद अंतर मध्याहन काल में
इसनान करके साधक अपने मन को वश्मे रखते हुए
गनानान्त्वा,
इत्यादी मंत्र से विधी पूर्व गनेश जी का आवाहन करें.
आवाहन के पश्यात उनके स्वरूप का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए.
उनकी अंग कान्ती लाल है,
शरीर विशाल है,
सब प्रकार के आभूशन उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं.
उनोंने अपने करकमलों में क्रमशे, पाश, अंकुष,
अक्षमाला तथा वर नामक मुद्राय धारन करकी हैं.
इस प्रकार आवाहन और ध्यान करने के
पश्यात शम्भू पुत्र गजानन की पूजा करके,
खीर,
पूआ,
नारियल और गुड़ आधी का उत्तम नयवध्य निवेधन करें.
तत्पश्यात
तामभूल आधी दें,
उने संतुष्ट करके नमसकार करें और अपने अभीश्ट
कारिय की निर्विगन पूर्ती के लिए प्रार्थना करें.
तदंतर अपने ग्रिह सूत्र में बताई हुई विधी
की अनुसार ओपास नागनी में आज्यभागान्य.
कुष्चकंडिका के अनंतर अगनी में जो चार आहुतियां दी जाती हैं,
उनमें प्रतम दो को आधार और अन्तिम दो को आज्यभाग कहते हैं.
अतेह
ओपास नागनी में आज्यभागान्य हवन करके अगनी देवता
सम्मंधी यग्यविश्यक इस थाली पाक होम करना चाहिए.
इसके बाद भुवः स्वाहा
इस मंतर से पूर्णाहुति होम करके हवन का कारिये समाप्त करें.
तत्वश्यात आलश से रहित हो,
अपराहन्य काल तक गायत्री मंतर का चप करता रहें.
तदन्तर इसनान करके साइकाल की संधोपास्ना तथा
साइकालिक उपास्ना सम्मंधी निथ्य होम आधी करके मौन हो,
गुरु की आज्या ले चरू पकाए.
फिर अगनी में समिधा चरू और घी की रुद्र सूक्त से
और सदोजाता अधी पांच मंत्रों से प्रिथिक प्रिथिक
आहुती दें.
अगनी में उमा सहित महिश्वर की भावना करें और
गोरी देवी का चिंतन करते हुए गोरिर मिमाय.
पूरा मंतर इसप्रकार है.
इस मंतर से 108 बार होम करके
अगने स्विष्ठ कृते स्वाहा.
इस मंतर से एक बार आहुती दें.
इसप्रकार मंतर से हवन करने के पश्चात विद्वान
पुरुष अगनी से उत्तर में एक आसन पर बैठें
जिसमें नीचे कुशा,
उसके ऊपर म्रगचर्म और उसके ऊपर वस्तर बिच्छा हुआ हुआ.
येसे सुखद आसन पर बैठकर मौन भाव से सुईस्थिरचित हो,
जागरन पूर्वक ब्रह्म मुहूर्त आने तक गायत्री का जब करता रहें.
इसके बाद स्नान करें,
जो जल से स्नान करने मा समर्थ हो,
वै भस्म से ही विधी पूर्वक स्नान करें,
फेर उस अगनी पर ही चरू पकाकर उसे घी से तर करें,
उसे उतार कर अगनी से उत्तर दिशा में कुश पर रखें.
पुनेह घी से चरू को मिश्रित करें,
इसके बाद व्याहरती मंत्र,
रुद्र सूक्त तथा सधो जाता अधि पांच मंत्रों का
जब करें और इनके द्वारा एक एक आहुती भी दें.
ओम् पजापतये नमह स्वाहाँ
तत्पश्यात पुन्याःवाचन कराकर आगनेह स्वाहा इस मंत्र से
अगनी के मुख में आहुती देने तक का कारिय संपन्द करें.
फिर प्रानाए स्वाहा इत्यादी पांच मंत्रों
द्वारा घृत सहित चरू की आहुती दें.
इसके बाद आगनाए स्विष्ट करते स्वाहा बोलकर एक आहुती और दें.
तद अंतर फिर रुद्धशुक्त तथा हिशान आधी पांच मंत्रों का जब करें.
महेशाधी चक्रविव मंत्रों का भी पाठ करें.
इसप्रकार तंत्र होम करके अपनी ग्रिह शाखा में बताई हुई पद्धती के
अनुसार उन उन देवताओं के उद्धेश्य से बुद्धीमान पुरुष सांग होम करें.
इस तरहें जो अगनी मुक आधी कर्म तंत्र को पवर्तित किया गया है,
उसका निर्वाह करके विर्जा होम करें.
चबिस तत्वरूप इस शरीर में छिपे हुए तत्व समुदाय
की शुद्धी के लिए विर्जा होम करना चाहिए.
उस समय यह कहें
कि मेरे शरीर में जो ये तत्व हैं,
इन सब की शुद्धी हो.
उस पुर्संग में आत्म तत्व की शुद्धी के
लिए आरुन केतुक मंत्रों का पाठ करते हुए,
पृत्वी आदी तत्व से लेकर
पुरुष तत्व परियंत क्रमश हैं.
सभी तत्वों की शुद्धी के निमित गिर्त युक्त चरू का होम
करें तता शिव के चरणारविन्दों का चिंतन करते हुए मौन रहें.
तत्व शुद्धी के लिए पृतख पृठख वाक्य योजना करनी चाहिए,
जैसे पृत्वी आदी के लिए.
इतना बोलकर समिधा चरू और आज्य की 40-40 आहुतियां दें.
इसी तरहें सभी तत्वों के नाम लेकर वाक्य योजना करें.
पृत्वी,
चल,
तेज,
वायू और आकाश ये पृत्वे आदी पंचक कह रहते हैं.
शब्द,
पर्श,
रूप,
रस और गंध ये शब्दा अधी पंचक हैं.
वाग, पानी,
पाद,
पायू तथा, उपस्त
ये वागाधी पंचक हैं.
श्रोत,
नेत्र,
नासिका,
रस्ना और त्वक ये श्रोत आधी पंचक हैं.
शिर, पार्श, प्रिष्ठ और उधर
ये चार हैं.
इनहीं में जंगह को भी जोड लें,
फिर त्वक आधी साथ धात्वे हैं.
प्रान,
अपान आधी पांच,
वाईयू को प्रान आधी पंचक कहा गया है.
अन्नम या आधी पांचो कोशो को कोश पंचक कहते हैं.
इनके नाम इसप्रकार हैं.
अन्नमे,
प्रानमे,
मनोंमे,
विज्ञानमे और आनंदमे,
इनके सिवा मन,
चित,
बुद्धी,
एहंकार,
ख्याती,
संकल्प, गुण, प्रिकृती और पुरुष हैं.
भोगतापन को प्राप्त हुए पुरुष के लिए
भोगकाल में जो पांच अंतरंग साधन हैं,
उन्हें तत्वपंचक कहा गया है.
उनके नाम ये हैं.
नियति, काल, राग,
विध्या और कला,
ये पांचो माया से उतपन्य हैं.
मायां तुः प्रकर्तिः विध्धात् इस शुती में प्रकर्ति ही माया कही गई है,
उसी से ये तत्व उतपन्य हुए हैं,
इसमें संशे नहीं है.
काल का स्वाभाव ही नियति है,
ऐसा शुती का कथन है.
ये नियति आदी जो पांच तत्व हैं,
इनी को पंच कुञ्चुक
कहते हैं.
इन पांच तत्वों को नजानने वाला विध्धान भी मूड ही कहा गया है.
नियती प्रकर्ति शे नीचिय है,
और यह पूर्श प्रकर्ति शे उपर है,
जैसे कोई की एकी आँख उसके दोनों गोलकों में घूमती रहती है.
ब्रह्मन प्रज्ञानं ब्रह्म्
इस शुती के वाकिय से यह शिव तत्व ही प्रतिपादित हुआ है।
हे मुनिश्वर,
पृत्वी से लेकर शिव परियंत जो तत्व समू हैं,
उसमें से प्रतिको क्रमशे अपने अपने
कारण में लीन करते हुए उसकी शुधी करो।
यह घारे वर्ग हैं।
इन एकादश वर्ग सम्मन्धी मंत्रों के अंत में
इस वाक्य का उचारण करें। किस प्रकार करना हैं। यह देखिए।
विविधाय स्वाहा
इसका उचारण करें। तत्पस्चात्
इस मंत्र के अंत में विश्वरुपाय पुर्शाय ओम् स्वाहा
बोलकर
स्वयत्वय त्याग के लिए लोगत्रिय व्यापिने परमात्मने शिवायेदमनेहमं
का उचारण करें।
प्रदंतर अपनी शाखा में बताई हुई विधी से पहले
तंत्र कर्म का संपाधन करके गृत्र मिश्रित चरू का प्राशन एवं आच्मन करने
के पश्चात् प्रोधा आचारिय को स्वण आदी से संपन्य समूचित दक्षना दें।
इसके बाद मनिश्य सम्मा सिञ्चन्तू मरुतः इस मंत्र का जब करें।
धर्म सिंधुकार ने कहा है कि समंमा सिञ्चन्तू
मरुतः इस मंत्र से अगनी का उपस्थान करके
पूरा मंत्र और इसका अर्थ इस प्रकार है।
अर्थात मरुतकण,
इंद्र,
ब्रहस्पति तथा अगनी ये सभी देवता मुझे पर कल्यान की वर्षा करें।
यगनिदेव मुझे आयु ज्यान उपी धन तथा साधन की शक्ती से संपन्य करें।
साध ही
मुझको दीर्ग जीवी भी बनाए।
पूरे मंत्र और अर्थ यो हैं।
हे यगनिदेव,
जो तुम्हारा यग़ी है,
यगों में तकठ होने वाला स्वरूप है।
उसी स्वरूप से तुम यहां पधारो और मेरे लिए बहुत से मनुश्यों प्योगी,
विशुद्धन,
साधन संपत्ती की सुश्टी करते हुए आत्मा
रूप से मेरे आत्मा में विराज्बान हो जाओ।
तुम यग्यरूप होकर अपने कारण रूप यग्य में पहुच जाओ।
हे जातवेदा,
तुम पृत्वी से उत्पन्य होकर अपने धाम के साथ यहां पधारो।
यद्यादी मंतर से हाथ को अगनी में तपाकर उस अगनी
को अध्वेत धाम स्वरूप अपनी आत्मा में आरोपित करें।
तद अंतर प्राते काल की संध्योप आसना करके सूर्योप स्थान के
पश्चात जलाशे में जाकर ना भी तक जल के भीतर प्रवेश करें।
वहाँ प्रसन्यता पूर्वक मन को इस्थिर कर
उच्छुकता पूर्वक वेद मंत्रों का जब करें।
वहाँ जल लेकर उसे आशूह शिशान इस सूक्त से
अभिमंतित करके सर्वाब्यो देवताब्यह स्वाहा
ऐसा कहकर छोड़ दे।
धर्मसिन्धु के अनसार
जो अगनिहोत्री हो वह स्थापित अगनी में प्राजापत्तेश्ठी करके
यदिश्ठम्
यच्चपूर्तम् यच्चापधनापधी प्रजापतो तन्मनसी
जुहोमि वेमुक्तोहं देवकिल्विशात्तस्वाहा
यही प्रजापतेश्ठी है। यही प्रजापतेश्ठी है।
यही प्रजापतेश्ठी है।
प्रिये भक्तों,
इसप्रकार इन वाक्यों का प्रेमपूर्व कुछारण जुआग्न
हुत्रि हो वै स्थापित अगनी में करें और चित्त को चंचल
न होने के उससमें गायत्री का इसप्रकार ध्यान करें ।
ये भगवती गायत्री साक्षात भगवान चंकर
के आधे शरीर में वास करने वाली हैं।
इनके पांच मुख और दस भुजायें हैं।
ये पंद्रहे नेत्रों से प्रकाशित होती हैं।
तन्रत्नमेकरीट से जगमगाती हुई चंद्रलेखा
इनके मस्तक को विभूशित करती हैं।
इनकी अंगकांती शुद्ध स्वटिक्मनी के समान उज्ञवल हैं।
ये शुभलक्षणा देवी अपने दस हाथों में
दस प्रकार के आयुद्ध धारन करती हैं।
आर,
केयूर,
बाजुबंध,
कडे,
करधनी और नुपुर आदी आबूशनों से इनके अंग विभूशित हैं।
इन्होंने दिव्य वस्त धारन करक्खा है।
इनके सभी आबूशन रत्न निर्मित हैं।
पिश्णु,
ब्रह्मा,
देवता,
रिशी तथा गंधर्व,
राज और मनिश्य ही सदा इनका सेवन करते हैं।
ये सर्वव्यापनी शिवा सदा शिवधेव की मनोहारनी धर्मपत्नी हैं।
जब जगत की माता तीनों लोकों की जननी
त्रिगुण मैं निर्गुणा तथा अजन्मा हैं।
इसप्रकार गायत्री देवी के स्वरूप का चिंतन करते हुए।
पुरिश प्राह्मनत्त्व आधी परदान करने वाली
अजन्मा आधी देवी त्रिपदा गायत्री का चप करे।
गायत्री व्याहिरतियों से उत्पन्य हुई हैं और उनहीं में लीन होती हैं।
वह शिव का वाचक मंत्रों का राजाधी राच महाबीश्वरूप और शेश्ट मंत्र हैं .
शिव प्रणव हैं और प्रणव शिव कहा गया है।
भकतों क्योंकि वाक्चे
और वाचक में अधिक भेद नहीं होता
इसी महा मंत्र को काशी में शरीर त्याग करने वाले जीवों के मरन
काल में उन्हें सुनाकर भगवान शिव परम मौक्ष परदान करते हैं।
इसलिए शेष्ट
यति अपने हिर्दै कमल के मद्य में ब्राजबान एक अक्षर
परणव रूप परम कारण शिव देव की उपास्थना करते हैं।
दूसरे मौमुक्षु
धीरेवं विरक्त लोकिक पुरुष भी मन से विश्यों का परिठाग करके परणव रूप
परम शिव की उपास्थना करते हैं।
इस प्रकार गायत्री का शिव वाचक परणव में ले करके
मैं संसार वृच्छ का उठ्छेद करने वाला
मेरी कीरती परवत के शिखर की भाती उन्नत है।
उन्नतोद पादख शक्ती से युप्त सूर्य में जैसे उत्तम अम्रित
है उसी प्रकार मैं भी अतीशे पवित्र अम्रित सरूप हूँ।
तथा मैं प्रकाश युप्त धन का भंढार हूँ।
परमाननद मैं अम्रित से अभीशिक्त तथा शेष्ट बुद्धी वाला हूँ।
इस प्रकार यह तृशंकू रिशी का अनुभव किया हुआ वैधिक प्रवचन है।
इन अनुवाग का चब करें तत पश्यात
यश्छन्द साम्रशब्ः।
इस अनुवाग को आरम्ब से लेकर शुतम्मे गोपाय तक पढ़ कर कहें।
विचर्शनम् जिव्यामे मदुमत्तमा
करनाभ्यां भूरि विश्रुवं
ब्रह्मनम् केशो असी मेधया पिहितः शुतम्मे गोपाय।
अर्थात मैं इस्त्री की कामना,
धन की कामना और लोकों में ख्याती की कामना से उपर उठ गया हूँ।
एमुने इस वाक्य का मंध,
मध्यम और उच्छ सवर से क्रमश है तीन बार उच्छारन करें।
तत्पशात सिश्टी, इस्तती और लेके क्रम से पहले
प्रणावमंत्र का उध्धार करके फिर क्रमश है इन वाक्यों का उच्छारन करें।
ओम् भूः सन्यस्तं मया।
इन वाक्यों का मंध,
मध्यम और उच्छारन करें।
और उच्छ स्वर में हिर्दे में सदाशिव का
ध्यान करते हुए सावधान चित से उच्छारन करें।
तद अंतर
अभयम सर्व भूते भ्योमत्तह स्वाहा।
मेरी ओर से सब प्राणियों को अभयदान दिया गया।
ऐसा कहते हुए पूर्व दिशा में एक अंजली जल लेकर छोडे। इसके
बात शिखा के शेष पालों को हात में उखाड डाले। और यग्योपवित
को निकाल कर जल के साथ हात में ले। इस प्रकार कहें।
यों कहकर उसका जल में ही होम कर दे। फिर
इस प्रकार तीन बार कहकर तीन बार जल को अभिमंत्रित करके उसका आच्मन करें।
देर जलाशे के किनारे आकर वस्त्र और कटी सूत्र को भुमी पर त्याग
दें तथा उत्तर या पूर्व की और मुँकर के साथ पद्स से कुछ अधिक चलें।
कुछ दूर जाने पर आचारीय उससे कहें ठहरो ठहरो भगवन
लोक व्यवहार के लिए कोपीन और दंड स्विकार करें।
यों कहे आचारीय अपने हाथ से ही उन्हें कटी सूत्र और कोपीन दे कर
गेरूआं वस्त्र भी अर्पित करें।
तब पश्चात सन्यासी जब उससे अपने शरीर को धख कर
दो बाराच्चमन कर ले तब आचारीय शिष्ष से कहें
इन्द्रश्य वज्ज्रोहसी यह मंत्र बोल कर तंद
ग्रहन करें। तव यह इस मंत्र को पढ़ें और
सखा मा गोपायो जह सखा योसिन्द्रश्य वज्ज
हे दंड तुम मेरे सखा सहायक हो,
मेरी रक्षा करो,
मेरे ओज प्रान शक्ती की रक्षा करो,
तुम वही मेरे सखा हो जो इंद्र के हाथ में वज्जर के रूप में रहते हो,
तुमने ही वज्जर रूप से आग़ात करके वृत्राशुर का
संघार किया है।
तुम मेरे लिए कल्यान में बनो,
मुझ में जो पाप हो उसका निवारन करो।
तुमने वज्जर के लिए प्रान शक्ती की रक्षा करो,
तुमने ही वज्जर के लिए पाप हो उसका निवारन करो।
तुमने वज्जर के लिए पाप हो उसका निवारन करो।
तुमने पशाथ गुरू विर्जागनी जनित उस श्वेत भस्म को लेकर उसी को
शिश्य के अंगो में लगाएं अथवा उसे लगाने
की आज्या दें। उसका क्रम इस परकार है।
इस मंतर से भस्म को अभिमंतरित करें।
तदंतरीशान आदी पांच मंत्रों द्वारा उस
भस्म का शिश्य के अंगों से सपर्ष कराकर
उसे मस्तक से लेकर
पहरों तक सरवांग में लगाने के लिए दें।
विश्य उस भस्म को विधी पूर्वक हात में लेकर त्रायुश्यम्।
इन दोनों मंत्रों को तीन तीन बार पढ़ते हुए ललाट
आदी अंगों में क्रमशे त्रिपुंड्र धारन करें।
अतपशात श्रेष्ट शिष्य अपने हिरदे कमल में विराज्मान
उमा सहित भगवान शंकर का भकती युक्ति चित से ध्यान करें।
फिर गुरु शिष्य के मस्तक पर हात रखकर उसके दाइने कान
में रिशी चंद और देवता सहित प्रणव का उपदेश करें।
असके बाद कृपा करके प्रणव के अर्थ का भी बोध कराएं।
श्रेष्ट गुरु को चाहिए कि वे प्रणव के
छे प्रकार के अर्थ का ज्यान कराते हुए,
उसके बाहरे भेदों का उपदेश दें।
अत्वस्चात शिष्ष दंड की भाती पृत्वी पर
पढ़कर गुरु को शाष्टांग प्रणाम करें।
और सदा उनके अधीन रहें।
उनकी आज्या के बिना दूसरा कोई कारिय न करें।
गुरु की आज्या से शिष्ष वेदान्त के तात्परिय के अनुसार,
सगुन निर्गुन भेद से शिव के ज्यान में तत्पर रहें।
गुरु अपने उसी शिष्ष के द्वारा शरवन,
मनन और निधी ध्यासन पूर्वक जब के अंत में
प्राह्ते कालिक आधी नीमों का अनुस्थान करवावें।
लास प्रसस्तर
नामक मंडल में शिव के द्वारा प्रतिपादित मार्ग के अनुसार,
शिष्ष वही रहकर शिव पूजन करें।
जदी गुरु के आदेश के अनुसार वहे प्रति दिन वही रहकर,
मंगल में देवता शिव की पूजा करने में असमर्थ हो,
तो उनसे अरगह सहीद इस फटिक में शिव लिंग रहन करले,
और कहीं भी रहकर निथ्य उसका पूजन किया करें।
यह गुरु के निकट शपत खाते हुए इस तरह प्रतिग्या करें।
मेरे प्रान चले जाएं यह अच्छा है,
मेरा सिर काट लिया जाएं यह भी अच्छा है,
परन्तु में भगवान त्रिलोचिन की पूजा किये बिना कदापी भोजन नहीं कर सकता।
इसा कहकर
सुद्रध चितवाला शिष्ष मन में शिव की भगती
लिये गुरु के निकट तीन बार शपत खाये।
और तभी से मन में उत्सा रखकर उठ्तम भगती भाव से पंचावरन
पूजन की पद्धती के अनुसार परते दिन महादेव जी की पूजा करें।
सभी यहें पर समापत होता है उत notion के साथ बोलेंगे
ओननमःशिवाय ओननमःशिवाय ओननमःशिवाय