Nhạc sĩ: Traditional
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श्री क्रेष्ण गोविन्द हरे मुरारी
हे नाथ नारायन वासुदेवा
बोली एलबिली सरकार की जैज़े
राधाराणी सरकार की जैज़े
प्रिये भक्तों
श्रीमत भागवत घीता के
ग्यारवे अध्याय के पश्यात
आईए हम आपको सुनाते हैं
ग्यारवे अध्याय का महात्म
आईए भक्तों आरम्ब करते हैं
भगवान विश्णू बोले हे प्रिये अब ग्यारवे अध्याय का महात्म सुनो
तुंग भद्र नामक एक नगर था
उस नगर के राजा का नाम सुखानन्द था
वहाँ एक बड़ा धन्वान और विद्वान ब्राहमन रहता था
वे नित्य शिरील लख्षमी नारायन जी के मंदिर में
गीता के 11 अध्याय का पाठ करता था
और राजा के हियां नित्य लख्षमी नारायन की सेवा भी करता था
एक दिन कुछ संथ तीर्थ यात्रा करते करते उस नगर में पहुँचे।
राजा ने संवान सहीथ संथों को टिकाया और भोजन कराया।
भोजन करके संथ बहुत प्रसंद हुए।
प्राते काल राजा अपने पुत्र और मिट्रों सहीथ उनके दर्शन को गया।
और संथों के महन्त जी से धर्म पर चर्चा करने लगा।
राजा का पुत्र वहाँ खेलने लगा।
वहाँ निकटी एक प्रेत रहता था।
उस प्रेत ने राजा के पुत्र को माडाला।
चाकरों ने राजा को इस पात की ख़बर दी।
राजा बोला,
हे संत जी,
आपके दर्शन का मुझे अच्छा भल मिला। मेरा एक ही पुत्र था,
वह भी प्रेत ने माडाला। संतों के कहने पर राजा,
उसका पुजारी ब्राहमन और अन्य व्यक्ती
प्रेत के पास गए। ब्राहमन ने प्रेत से कहा,
अरे प्रेत,
तु इस दड़के पर क
प्रेत बोला,
मैं पूर्व जन्म में ब्राहमन था,
इस ग्राम के बाहर हल जोत्ता था,
वहाँ एक घायल ब्राहमन जिसके अंगो से खून निकल रहा था,
खेत में आकर गिर पड़ा,
एक चील उसका मांस नोच कर खाने लगी,
मैं बैठा देखता रहा,
इतने में एक अन्य ब्राहमन आया,
और उसने ये हाल देखकर मुझसे कहा,
अरे हल जोतने वाले ब्राहमन,
तेरे कर्म चांडाल जैसे हैं,
अरे निर्दई,
तेरे खेत में ब्र
तिरा अच्चा का यहा,
और अपनी योनी से मुक्त हुआ प्रेत उस
विवान में बैठ कर स्वर्ग को चला गया।
राजा का पुत्र भी घीता का पाथ सुनने से भक्त
परायन होकर उसी विवान में बैठ कर स्वर्ग को गया।
राजा ने भी घीता का पाथ सुनने की तो
इस परकार वह भी परमगती को प्राप्त हुआ।
हे लक्ष्मी,
ऐसे अद्भूत प्रभाव वाला है घीता के घीता का पाथ।
बोलिये शी किष्ण भगवान की जेव।
इती श्री पदम पुराने उत्राकंडे घीता
महात्म नाम घ्यार्वा अध्याय समाप्तम।
तो भक्तों, इस परकार यहां पर
श्रीमत भगवत घीता के घ्यार्वे अध्याय का महात्म समाप्त होता है।
सनहे से, हिरदे से बोलियेगा।
ओम् नमों भगवते वासुदेवाय नमहां।
नमहां।