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Shiv Mahapuran Shat Rudra Sanhita Adhyay-21, 22, 23, 24, 25

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Kailash Pandit

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Bài hát shiv mahapuran shat rudra sanhita adhyay-21, 22, 23, 24, 25 do ca sĩ Kailash Pandit thuộc thể loại The Loai Khac. Tìm loi bai hat shiv mahapuran shat rudra sanhita adhyay-21, 22, 23, 24, 25 - Kailash Pandit ngay trên Nhaccuatui. Nghe bài hát Shiv Mahapuran Shat Rudra Sanhita Adhyay-21, 22, 23, 24, 25 chất lượng cao 320 kbps lossless miễn phí.
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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Shat Rudra Sanhita Adhyay-21, 22, 23, 24, 25

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोलिये शिवशंकर भगवान की जै!
तुरिय भक्तों,
शिष्यु महापुरान के शत्रुद्र सहिता की अगली कता है।
शिवजी के पिप्पिलाद अवतार के प्रसंग में
देवताओं की दधीची मुनी से आस्ती याचना।
तुरिय भक्तों,
आरंब करते हैं इस कथा के साथ,
21, 22, 23, 24, और 25 में अध्याय की कथा।
तद अंतर महेशावतार तथा वृशेशावतार का चरित सुना कर नन्दिश्वर ने कहा,
हे महा बुद्धिमान सनत्कुमार जी,
अब तुम अत्यंत आलाद पूर्वक महेश्वर के पिप्लाद
नामक परमोदक्रिष्ठ अवतार का वर्णन शावरन करूँ।
यह उत्तमा घ्यान बगती की व्रद्धी करने वाला है।
हे मुनिश्वर,
एक समय दैत्यों ने वृतासुर की सहइता से
इंद्र आधी सुमस्त देवताओं को पराजित कर दिया।
तव उन सभी देवताओं ने सहसादधी ची के आश्षम में
अपने अपने अस्तरों को भेंक कर ततकाल ही हार मान ली।
तत्पश्यात मारे जाते हुए वे इंद्र सहित संपूर्ण देवता
तता देवरिशी शीगर ही ब्रह्म लोक में जा पोँचे और वहां
ब्रह्मा जी से उन्होंने अपना वैद्धुखडा के सुनाया।
देवताओं का वे कथन सुनकर
लोक पितामें ब्रह्मा ने
सारा रहेज से यथार्थ रूप से प्रगट कर दिया।
ये सब
त्वश्टा की कर्तूत है।
त्वश्टा ने ही तुम लोगों का वद करने के लिए तपस्या
द्वारा इस महा तेजश्वी विवतासुर को त्पन्ने किया है।
यह दैत्य महान आत्मबल से संपन्य तथा समस्त दैत्यों का
आधिपती है। अतेह अब एसा प्रहितन करो जिससे इसका वद हो सके।
वे तपस्वी और जितेंद्रियें हैं। उन्होंने पूर्वकाल में शिवजी की
समाराधना करके वज्र सरीखी अस्तियां हो जाने का वर प्राप्त किया है।
अतेह
तुम लोग उनसे उनकी हड्यों के लिए याचना करो। वे अवश्य दे
देंगे। फिर उन अस्तियों से वज्र दंड का निर्मान
करके तुम निश्चह ही उससे वृतासुर को माड़ डालना।
नन्दिश्वर कहते हैं,
हे मुने ब्रह्मा का है वचन सुनकर इंद्र
देव गुरु ब्रस्पती तथा देवताओं को साथ ले,
तुरंथ ही दधीची रिशी के उठ्तमाश्यम पर आये।
वहाँ ऐंद्र ने
सुवर्चा सहित दधीची मुनी का दर्शन किया और आदर पूर्वक हाथ जोड़
कर उन्हें नवसकार किया। फिर देव गुरु ब्रस्पती तथा अन्य देवताओं
ने भी नमर्ता पूर्वक उन्हें सिर जुकाया। दधीची मुनी विद्वानों म
तत्पश्यार देवताओं सहित देवराज इंद्र
जो स्वार्थ साधन में बड़े दक्ष हैं अर्थ
शास्त्र का आश्चे लेकर मुनीवर से बोले।
इंद्र ने कहा,
हे मुने आप महान शिवभक्त,
दाता तथा शर्णा गत रक्षक हैं,
इसलिए हम सभी देवता तथा देवरिशी
तवश्टा द्वारा अपमानित होने के कारण आपकी शर्ण में आये हैं।
हे विप्रवर,
आप अपनी वज्र में हस्तियां हमें पुर्दान कीजिये,
यों कहने पर
परुपकार परायंदधीची मुनी ने अपने स्वामी
शिव का ध्यान करके अपना शरीर छोड़ दिया।
अपने पुर्दान कीजिये,
यों कहने पर परुपकार परायंदधीची मुनी ने अपने स्वामी शिव का ध्यान
करके अपने स्वामी शिव का ध्यान करके अपने स्वामी शिव का ध्यान करके
अपने स्वामी शिव का ध्यान करके
अपने स्वामी शिव का ध्यान करके अप
वज्ञादी से भली भाथी सुरक्षित हुए इंद्र ने तुरंत ही पराकरम प्रकट करके
उस वज्ञादी द्वारा विताशुर के परवट शिकर सरी के शिर को कांट गिराया
हे तात उस समय स्वर्ग वासियोंने महान विजोत सो मनाया
इंद्र पर पुष्पों की व्रश्टी होने लगी
और सभी देवतां उनकी स्थुती करने लगी
तधन तर महान आत्मबल से संपन्ने दधीची मुनी की पति वता पत्नी
सुवर्चा पती के आज्य अनुसार अपने आश्रम के भीतर गई
वहां देवताओं के लिए पती को मरा हुआ
जानकर मैं देवताओं को शाप दिते हुए बोली
सुवर्चा ने कहा
अहो इंद्र सहित ये सभी देवता बड़े दुष्ट हैं
और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुन,
मूर्ख तधा लोभी हैं इसलिए सब के सब आज से मेरे शाप से पशू हुजाएं
इसप्रकार
उस तपस्वी मुणी पत्नी सुवर्चा ने उन
इंद्र हादी समस्त देवताओं को शाप दे दिया
तत्पस्चात उस पतिवता ने पतिलोक में जाने का विचार किया
फिर तो
मनस्वनी सुवर्चा ने परमपवित्र लकडियों द्वारा एक चिता तियार
की उसी समय शंकर जी की पेड़िना से सुखतायनी आकाश्वानी हुई
वे उस मुणी पत्नी सुवर्चा को आश्वसन देती हुई बोली आक़वाश्वानी ने कहा
हे प्राग्गे ऐसा साहस मत करो
मेरी उत्तम बात सुनो
हे देवी
तुम्हारे उदर में मुनी का तेज वर्तमान
है तुम उसे यत्न पूर्वक उत्पन्न करो
पीछे तुम्हारी जैसी च्छा हो वैसा करना
क्योंकि शास्त का ऐसा अदेश है कि गर्ववती को अपना शरीर नहीं जलाना चाहिए
अर्थात सती नहीं होना चाहिए
नन्दिश्वर कहते हैं
हे मनिश्वर
यों कहकर वे आकाश्वानी उपराम हो गई
उसे सुनकर वे मुनी पत्त्नी खशन भर के लिए विश्मे में पड़ गई
परंतु सती साधवी स्वर्चा को तो पती लोक की प्राप्ती ही अभिश्च थी
अत्यावसने बैठकर पथ्थर से अपने उदर्ग को विधेन कर डाला
तव उसके पेच से मुनी वर्दधीची का वे गर्ब भाद निकलाया
उसका शरीर परंदिव्य और प्रकाश्मान था तत्हावे
अपनी प्रभासे दसों दिशाओं को उध्भासित कर रहा था
हे तात् दधीची के उत्तम तेज से
प्रादुर्भूत हुआ वे गर्ब अपनी लीला करने
में समर्थ साक्षात रुद्र का अवतार था
मुनी प्रियास वर्चाने दिव्यसरूब धारी अपने उस पुत्र
को देखकर मन ही मन समझ लिया कि वे रुद्र का अवतार है
फिर तो वे महा साद्वी परमानन्द मगन हो गई और
शिगर ही उसे नमसकार करके उसकी स्तुती करने लगी
हे मुनिश्वर उसने उस स्वरूब को अपने हिर्दे में धारन कर लिया
तद अंतर पति लोक की कामना वाली विमलिकशना माता सुवर्चा
मुस्करा कर अपने उस पुत्र से परम स्नहे पूर्वक बोली
सुवर्चा ने कहा एथात परमेशान
तुम इस अश्वत प्रक्ष के निकट चिरकाल तक इस्थित रहो
नन्दिश्वर जी कहते हैं
इतने में हर्ष में भरे होगी इंद्र सहीट समस्त देवता
मुनियों के साथ आमंत्रित हुई की तरहे सीगरता से वहाँ पुंचे
तब प्रसन बुध्धि वाले ब्रह्माने उस बालक का नाम पिपबलाद रखा
फिर सभी देवता महुत्सव मना कर अपने पने धाम को चले गए।
तदन्तर महान श्वयशाली रुद्रावतार पिपलाद उसी अश्वत्य के
नीचे लोगों की हित कामना से चिरकालिक तप में पिर्वत्व हुए।
लोकाचार का अनुसरन करने वाले पिपलाद का यूं
तपस्या करते वे बहुत बड़ा समय वितीथ हो गया।
तदन्तर पिपलाद ने राजा आरिन्ने की कन्या
पदमा से विभा करके तरुन हो उसके साथ
विलास किया।
उन मुनियों के दस पुत्र उत्पन्य हुए जो सबके
सब पिता के ही समान महात्मा और उग्रत पस्वी थे।
वे अपनी माता पदमा के सुख की व्रध्यी करने वाले थे।
इस प्रकार
महा प्रभुः शंकर के लिलावतार मुनीवर पिपलाद ने
महानिश्वय शाली तथा नाना प्रकार की लिलाएं
की उन कृपालूने जगत में शनीश्चरे की पीडा को
जिसका निवारन करना सब की शक्ती के बाहर था।
यह कर लोगों को प्रसन्यता पूर और कोई वर्दान दिया
कि जन्न से लिकर सोहले वर्ष तक की आयुवाले मनिश्चों
को तथा शिवभक्तों को शनी की पीडा नहीं हो सकती।
मेरा वचन सर्वता सत्य है। यदि कहीं शनी मेरे वचन का अनादर करके
उन मनिश्चों को पीडा पोहचाएगा तो वे निसंदे भस्म हो जाएगा।
हे तात् इसी लिए उस भैसे भीत हुआ ग्रह स्रेष्ट शनिष्चर
विक्कत होने पर भी वैसे मनिश्चों को कभी पीडा नहीं पोहचाता।
हे मुनिवर इसप्रकार मैंने लीला से मनिश्चरूब धारन
करने वाले पिपलाद का उत्तम चरित्व तुम्हें सुना दिया।
यह संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। गाधी,
कोशिक और महामोनी पिपलाद ये तीनों स्मर्ण किये जाने पर
शनिष्चर जनित पीडा का नाश कर देते हैं।
वे मुनीवर दधीची,
जो परम ज्यानी सत्पुर्शों के प्रिय ततबहान शिवभग्त थे,
धध्ने हैं।
जिनके हैं स्वेम आत्म ज्यानी महेश्वर पिपलाद नामक पुत्र होकर उत्पन हुए।

तात् या अक्ह्यान निर्दोश् स्वर्ग प्रद्,
कू ग्रह जनित दोशों का संघारक,
संपूर्ण मनौर्थों का पूरक और शिवभग्ती की विशेश व्रध्धी करने वाला है।
पोले शिवशंकर भगवान की जैय।
प्रिये भगतों,
इस प्रकार यहां पर शिश्यु महापुरान के
शत रुद्ध सहिता की यह कथा और इकीस,
बाईस,
देश,
चोबिस और पच्चिसमा अंध्या यहां पर समाप्त होता है।
तो स्नेह से बोलिये भगतों,
बोलिये शिवशंकर भगवान की जैय। और आदर के साथ
बोलिये। ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय। ओम नमः शिवाय।

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