Nhạc sĩ: Traditional
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बोलिये शिवशंकर भगवान की.
जै!
प्रेय भक्तु,
शिष्यु महा पुरान के अंतरगत सुना रहे..
..रुद्र सहीता
प्रतं सुष्टी खंड के..
..अध्यायतीन की कथा आरमब करते हैं.
और ये कथा है माया निर्मित नगर में..
शेल निधी की कन्या पर मोहित हुए नारद जी का..
..भगवान विश्णू से उनका रूप माँगना..
..भगवान का अपने रूप के साथ उने..
..वानर का सा मुहु देना..
..कन्या का भगवान को वरन करना..
..और कुपित हुए नारद का..
..शिव गणों को शाप देना.
तो आईए भक्तों आरंब करते हैं.
सूज्जी कहते हैं..
हे महरशियो..
..जब नारद मुनी इच्छानुसार वहां से चले गए..
..तब भगवान शिव की इच्छा से..
..माया विशारत श्री हरी ने..
..तदकाल अपनी माया प्रगट की.
उन्होंने मुनी के मार्ग में..
..एक विशाल नगर की रचना की..
..जिसका विस्तार सो योजन था.
वहे अदभुद नगर बड़ा ही मनोहर था.
भगवान ने उसे अपने वैकुंठ लोक से भी..
..बहुत से विहार इस्थल थे.
वहे शेष्ट नगर चारो वर्णों के लोगों से भढा था.
वहाँ शील निधी नामक एश्वर्य शाली राजा..
..राज्जि करते थे.
वे अपनी पुत्री का स्वेंबर करने के लिए उधधत थे.
अतहे उन्होंने महान उठ्सव का आयोजन किया था.
उनकी कन्या का वर्ण करने के लिए..
..उठ्सुखो चारो दिशाओं से बहुत से राजकुमार पढारे थे.
जो नाना परकार की वेश, भूशा..
..तथा सुन्धर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे.
वे राजा शील निधी के द्वार पर गए.
मुनी शिरोमनी नारद को आया देख..
..महाराज शील निधी ने शेष्ट रत्नमे सिंघासन पर बठाकर..
..उनका पूजन किया.
तत पश्चात अपनी सुन्धर कन्या को..
..जिसका नाम श्रीमती था, बुलवाया..
..और उससे नारद जी के चर्नों में प्रणाम करवाया.
वे कन्या को देखकर
नारद मुनी चकित हो गए..
..और बोले,
नारायन, नारायन.
राजन,
यह देव कन्या के समान सुन्धरी महाभागा कन्या कौन है?
उनकी यह बात सुनकर, राजा ने हाथ जोड कर कहा.
हे मुने,
यह मेरी पुत्री है,
इसका नाम शिरीमती है.
अब इसके विभा का समय आ गया है.
यह अपने लिए सुन्धर वर चुनने के निमित स्वैंबर में जाने वाली है.
इसके सब प्रकार के शुब लक्षन लक्षित होते हैं.
हे महरशे,
आप इसका भाग्य बताईए.
राजा के इसप्रकार पूछने पर काम से विहवल हुए मुनी शेष्ट नारद,
उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिए,
राजा को सम्भोधित करके इसप्रकार बोले.
नारायन, नारायन.
भूपाल,
आपकी यह पुत्री समस्त शुब लक्षनों से संपन्य है.
परम सोभाग्यवती है.
अपने महान भाग्य के कारण यह धन्य है.
और साक्षात लक्षमी की भाती समस्त गुणों की आगार है.
इसका भावी पती निष्चे ही भगवान शंकर के समान वैभावशाली सरविश्वर
किसी से पराजित नहीं होने वाला वीर,
काम विजए तथा संपून देवताओं में स्टेश्ट होगा.
ऐसा कहकर राजा से विदाले इच्छा अनुसार
विचरने वाले नारद मुनी वहां से चल दिये.
वे काम के वशी भूत हो गये थे.
शिव की माया ने उने विशेश मोह में डाल दिया था.
वे मुनी मनही मन सोचने लगे कि मैं इस राजकुमारी को कैसे प्राफ़त करूं.
स्वैंबर में आये हुए नरेशों में से सब
को छोड़कर यहे एक मात्र मेरा ही वरन करे.
यह कैसे संभव हो सकता है?
समस्त नारीयों को सौन्द्रिय सर्वता प्रिय होता है.
सौन्द्रिय को देख कर ही वे प्रसनता पूर्वक मेरे अधीन हो सकती है.
इसने संशे नहीं है.
ऐसा विचार कर काम से विहवल हुए मुनीवर नारद
भगवान विश्णू का रूप ग्रहन करने के लिए ततकाल उनके लोक में जा पहुंचे.
वहाँ भगवान विश्णू को प्रनाम करके वे इस प्रकार बोले,
नारायन, नारायन,
एग भगवन,
मैं एकांत में आपसे अपना सारा व्रतांत कहुंगा.
तब बहुत अच्छा कहकर लक्ष्मि पती श्री हरी
नारद जी के साथ एकांत में जा बैठे और बोले,
हे मुने,
आब आप अपनी बात कहिए.
तब नारद जी ने कहा,
नारायन, नारायन,
हे भगवन,
आपके भक्त जो राजा शील निधी हैं,
वे सदा धर्म पालन में तत्पर रहते हैं,
उनकी एक विशाल लोचना कन्या है,
जो बहुत ही सुन्द्री है,
उसका नाम श्रीमती है,
वे विश्वमोहुनी के रूप में विख्यात है और
तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्द्री है.
हे प्रभू,
आज मैं शीगर ही उस कन्या से विभा करना चाहता हूँ,
राजा श्रील निधी ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वेंबर रचाया है,
इसलिए चारों दिशाओं से वहां सहस्त्रो राजकुमार पधारे हैं,
हे नात,
मैं आपका प्रिय सेवक हूँ,
अते आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजीए,
जिससे राजकुमारी श्रीमती निष्चे ही मुझे वर ले।
सूत जी कहते हैं,
हे महरशियों,
नहरत मुणी की ऐसी बात सुनकर भगवान मदुसूदन हस पड़े,
और भगवान चंकर के प्रभाव का अनूबव करके उन
दयालु प्रभुने उने इस प्रकार उत्तर दिया,
भगवान विश्णू बोले,
हे मुने,
तुम अपने अभिष्ठ इस्थान को जाओ,
मैं उसी तरहें तुम्हारा
हित साधन करूँगा,
जैसे शेष्ट वैद अत्यंत पीडित रोगी का करता है,
क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिये हो।
ऐसा कहकर भगवान विश्णू ने नारद मुनी को
मुक्तो वानर का दे दिया,
और शेष अंगो में अपने जैसा स्वरूप दे कर
वे वहाँ से अंतर ध्यान हो गए।
भगवान की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया समझ कर
नारद मुनी को बड़ा हर्ष हुआ,
वे अपने को कृत कृत्य मानने लगे,
भगवान ने क्या प्रयत्न किया है
इसको वे समझ न सके,
तद अंतर मुनी श्रेष्ट नारद शीगर ही उस स्थान पर जा पहुँचे जहां राजा
शील निधी ने राजकुमारों से भरी हुई स्वैंबर सभा का आयोजन किया था।
हे विप्रवरों,
राजपुत्रों से घिरी हुई वे दिव्य स्वैंबर सभा,
दूसरी इंद्र सभा के समान अत्यंत शोभाप आ रही थी।
नारद जी उस राज सभा में जा बैठे और वहां बैठ कर
प्रसनन मन से बार-बार यही सोचने लगे कि मैं
भगवान विश्णू के समान रूप धारन किये हुए हूँ।
अत्यहवे राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरन करेगी।
दूसरे का नहीं,
मुनी स्वेष्ट नारद को यह ग्यात नहीं था
कि मेरा मुँ कितना कुरूप है।
उस सभा में बैठे हुए सब मनष्यों ने मुनी को उनके पूर्व रूप में ही देखा।
राजकुमार आदी कोई भी उनके रूप परिवर्तन के रहसे को नहीं जान सके।
वहाँ नारद जी की रक्षा के लिए भगवान रुद्र के दो पार्शद आये थे,
जो ब्रह्मन का रूप धारन करके गूड भाव से वहाँ बैठे थे।
वही नारद जी के रूप परिवर्तन के उठम भेद को जानते थे।
मुनी को कामा वेश से मूड हुआ जान वे दोनों पार्शद उनके निकट
चले गए और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हसी उडाने लगे।
परन्तु मुनी तो काम से विहवल हो रहे थे
अतेहे उनोंने उनकी यथार्थ बात भी अन्सुनी कर दी। विमोहित हो श्रीमती
को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आग्मन की प्रतीक्षा करने लगे।
इसी बीच में वै सुन्दरी राजकन्या इस्त्रियों
से घिरी हुई अन्तहपुर से वहाँ आई।
उसने अपने हाथ में सोने की एक सुन्दर माला ले रखी थी।
वै
शुब लक्षना राजकुमारी स्वैंबर के मद्धिभाग में
लक्षमी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी।
उत्तम वर्त का पालन करने वाली वै भूप कन्या हाथ में माला ले कर अपने
मन की अनुरूप वर का अन्वेशन करती हुई सारी सभा में भरमन करने लगी।
नारद मुनी का भगवान विश्णू के समान शरीर
और वानर जैसा मुँँ देखकर वै कुपित हो गई
और उनकी और से द्रिश्टी हटा कर प्रसन्न मन से दूसरी और चली गई।
स्वैंबर सभा में अपने मनुवानचित वर को न देखकर
वै भैभीत हो गई।
राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गई। उसने किसी के गले में
जैमाला नहीं डाली। इतने में ही राजा के समान वेश भूशा धारन किये भगवान
विश्णू वहाँ पहुंचे। किनी दूसरे लोगों ने उनको वहाँ नहीं देखा। केवल उस
पर तकाल ही उनके कंठ में वह मालाड पहना दी। राजा का रूप धारन करने वाले
भगवान विश्णू उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंट अध्रिश्य हो गए और अपने
धाम में जा पहुंचे। इदर सब राजकुमार श्रीमती की और से निराश हो गए। नार
रुद्रगन काम विहवल नारद जी से उसी खशन बोले रुद्रगनों ने कहा
हे नारद हे मुने
तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो
और सौन्द्रिय के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो
अपना वानर के समान घरणित मुह तो देख लो
सूच जी कहते हैं हे महर�
यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा विश्मे हुआ वे शिव की माया
से मोहित थे उन्होंने दरपण में अपना मुँ देखा वानर के
समान अपना मुँ देख वे त्रंत ही क्रोध से जल उठे और माया से
मोहित होने के कारण उन दोनों शिव गणों को वहां शाप देते
राक्षस हो जाओ ब्राह्मन की संतान होने पर
भी तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे
इस प्रकार अपने लिए शाप सुनकर वे दोनों ज्यानी
शिरोमनी शिव गण मुनी को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले
ब्राह्मनों
वे सदा सब घटनाओं में भगवान शिव की इच्छा मानते थे अतहे उदासीन भाव
से अपने इस थान को चले गए और भगवान शिव की इस तुती करने लगे बोले
शिव शंकर भगवान की जैए प्रिये भक्तू इस प्रकार यहाँ पर शिव महा पुरान
पर वह भगवान शिव की आपने यहाँ पर भगवान शिव की यहाँ पर शिव महा पुरान