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Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Pancham Yuddha Khand Adhyay-29, 30

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Kailash Pandit

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Lời bài hát: Shiv Mahapuran Rudra Sanhita Pancham Yuddha Khand Adhyay-29, 30

Nhạc sĩ: Traditional

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

बोलिये शिवशंकर भगवाने की जए!
प्रिये भगतों,
शिशिव महा पुरान के रुद्र सहीता
पंचम युद्धखंड की अगली कता है
शंख चूड का असुर राज्य पर अभिशेक
और उसके द्वारा देवों का अधिकार छीना जाना
देवों का ब्रम्मा जी की शरण में जाना ब्रह्मा
का उन्हें साथ लेकर विश्णू के पास जाना
विश्णू द्वारा शंक चूड के जन्म का
रहस्योदगाटन और फिर सब का शिव के पास जाना
और शिवसभा में उनकी ज्हांकी करना तथा अपना भिपराय प्रगट करना।
तो आईए भक्तों आरंब करते हैं।
इस कधा को
और इसके साथ उन्तीस और तीस्मा अध्याय.
सनत कुमार जी कहते हैं,
हे महरशे,
जब शंख चूर ने तप करके वर प्राप्त कर लिया
और वे विभाईत होकर अपने घर लोट आया,
तब दानूओं और दैत्यों को बड़ी प्रसन्दता हुई।
वे सभी असूर्थ तुरंथ ही अपने लोक से निकल
कर अपने गुरु शुक्राचारिय को साथ ले,
दल बना कर
उसके निकट आये
और विनह पूर्वक उसे प्रणाम करके अनेको प्रकार से
आदर प्रदर्शित करते हुए उसका इस्तवन करने लगे।
फिर उसे अपना तेजश्री स्वामी मान कर
अठ्यंद प्रेम भाव से उसके पास ही खड़े हो गए।
उधर दंब कुमार शंखचूड ने भी अपने कुल
गुरु शुक्राचारिय को आया हुआ देख कर
बड़े आदर और भक्ति के साथ उने साश्टांग प्रणाम किया।
तरण तर गुरु शुक्राचारिय ने समस्त असुरों के साथ सलाह करके
उनकी सम्मती से शंखचूड को दानव तथा असुरों का अधिपती बना दिया।
दंब पुत्र शंखचूड प्रतापी एवं वीर तो था ही।
उस समय असुर राज पर अभीशिक्त होने के कारण वह असुर राज
विशेश रूप से शोभा पाने लगा। तव उसने सहसा देवताओं
पर आकरमन करके वेग पूर्वक उनका संघार करना आरंब किया।
सम्पूर्व देवता मिलकर भी उसके उत्किष्ट थीज को सहन्य कर
सके। अतहवे समर्भूमी से भाग चले और दीन होकर यत्र तत्र
परवतों की खोहों में जाच्छे। उनकी स्वतंत्रता जाती रही।
वे शंखचूड के वश्वर्ती होने के कारण प्रभाहीन हो गये
देवताओं का सारा अधिकार छेन लिया।
वे तिरलोकी को अपने अधिहीन करके सम्पूर्व लोकों पर शासन करने लगा।
और स्वैंम इंद्र बनकर सारे यग्य भागों को भी हडपने लगा।
तथा अपनी शक्ती से कुबेर,
सोम,
सूर्य,
अगनी,
यम और वायू आधी के अधिकारों का भी पालन कराने लगा।
उस समय महान बलपराकरम से संपन्न महावीर शंक्षूड,
समस्त देवताओं,
असुरों,
दानवों,
राक्षसों,
गंधरवों,
नागों,
किन्नरों,
मनुष्यों तथा तिरलोकी के अन्यान प्राणियों का एक छत्र समराट था।
इसप्रकार महान राजराजिश्वर शंक्षूड बहुत वर्षों तक संपून भूनों
के राज्य का उपभोक करता रहा। उसके राज्य में नाकाल पढ़ता था,
ना महामारी और नाशूब ग्रहों का ही प्रकोप
होता था। आधी व्याधियां भी अपना प्रभाव नह
उत्पन्य करती थी। नाना प्रकार की ओश्धियां
उत्तम उत्तम फलों और रसों से युक्त थीं।
उत्तम उत्तम मनियों की खदाने थीं। समुंद्र अपने
तटों पर निरंतर धेर के धेर रत्न भिखेरते रहते थे।
व्रक्षों में सदा पुष्प,
फल लगे रहते थे। सरिताओं में सुस्वादु नीर बहता रहता था। देवताओं
के अतिरिक्त सभी जीव सुखी थे। उन्में किसी प्रकार का विकार
नहीं उत्पन्य हुता था। चारो वर्णों और आश्रमों के सभी लोग अपने-
केवल देवता भ्रात्र द्रोह वश दुख उठा रहे थे।
हे मुने महाबली शंक्छूड गोलोक निवासी श्री कृष्ण का परम्मित्र था।
साधु स्वभाव वाला वे सदा श्री कृष्ण की भक्ती में निरत रहता था।
पूर्व शापवस उसे दानव की योनी में जन्म लेना पड़ा था।
परंतु दानव होने पर भी उसकी बुद्धी दानव कीसी नहीं थी।
प्रियव्याच्ची,
तद अंतर जो पराजित होकर राज्य से हात धो बैठे थे,
वे सभी सुर्गण तथा रिशी परस्पर मंत्रना करके ब्रह्मा जी की सभाको चले,
वहां पहुँचकर उन्होंने ब्रह्मा जी का दर्शन किया
और उनके चर्णों में अभिवादन करके विशेश रूप से उनकी सुती की।
तब ब्रह्मा उन सभी देवताओं तथा मुन्यों को धाड़स बढ़ा कर
उन्हें साथ ले सत्वपुर्शों को सुक
पुरदान करने वाले वैकुंठ लोक को चल पड़े।
वहाँ पहुँचकर देव गणों सहिद
ब्रह्मा ने रमापती का दर्शन किया। उनके मस्तक पर
करीट सुशोबित था। कानों में कुंडल जलमला
रही थे और कंठ वर्माला से विभूशित था।
वे चतुर भुज़देव अपनी चारो भुजाओं में शंख,
चक्र,
गदाओं और पद्म धारन किये वे थे।
श्री विग्रह पर पीतांबर शोबा दे रहा था
और सन्जन अनादी सिध उनकी सेवा में न्यूक्त थे।
ऐसे सर्वव्यापि विश्णू की च्छांकी करके। ब्रह्मा आदी देवताओं तथा
मुनिश्वरों ने उन्हे प्रनाम किया और फिर भक्ति पूर्वक हात जोड़कर
वे उनकी स्ति करने लगे। देवता बोले,
हे सामर्तशाली वैकुंथा अधिपते,
आप देवों के भी देव और लोकों के स्वामी हैं,
आप तिरलोकी के गुरू हैं,
हे श्री हरे हम सब आपके शर्णापन्य हुए हैं,
आप
हमारी रक्षा कीजिए,
अपनी महिमा से कभी ये चुत्न हुने वाले अश्वर्यशाली त
लक्ष्मी आप में ही निवास करती है और
आप अपने भक्तों के प्रान स्वरूप हैं,
आपको नमसकार है प्रभु,
आपको नमसकार है।
इस प्रकार इसतुती करके सभी देवता श्री हरी के आगे रो पड़े।
उनकी बात सुनकर
भगवान विश्णू ने ब्रह्मा से कहा,
विश्णू भोले,
हे ब्रह्मन,
यह वैकुंथ योगियों के लिए भी दुरलब है,
तुम यहां किसली आये हो,
तुम पर कौन सा कश्टा पड़ा है,
वह यथारत रूप से मेरे सामने वर्णन करो।
सनत कुमार जी कहते हैं,
हे मुने,
श्री हरी का वचन सुनकर ब्रह्मा जी ने विनम्र
भाव से सिर जुका कर उन्हे बारंभार प्रणाम किया
और अंजली बांध कर परमार्त्मा विश्णू के समक्ष इस्थित हो,
देवताओं के कश्ट से भरी हुई शंक चूड की सारी कर्
वो सुनकर हस पड़े और ब्रह्मा जी से उस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बोले,
श्री भगवान ने कहा,
हे कमलियोणी,
मैं शंक चूड का सारा व्रतांत जानता हूँ,
पूर्व जन्म में वह महा तेजस्वी गोप था,
जो मिरा भक्त था,
वह व्रतांत से सम्वंध रखने वाले
इस पुरातन इतिहास का वर्णन करता हूँ।
ध्यान से सुनो,
इसमें किसी परकार का संधेह नहीं करना चाहिए,
भगवान शंकर सब कल्यान करेंगे।
तोक में मेरे ही रूप श्री क्रश्न रहते हैं,
उनकी स्ट्री श्री राधा नाम से विख्यात है।
वह जगत जन्नी तथा प्रकर्ती की परमोत क्रिष्ट पाच्वी मूर्ती है।
वही वहां सुन्दर रूप से विहार करने वाली है।
उनके यंग से उदभूत बहुत से गोप और गोपियां भी वहां निवास करती हैं।
वे नित्य राधा कृष्ण का अनूवर्थन करते हुए
उठ्तम उठ्तम क्रिढाओं में तत्पर रहते हैं।
वही गोप इस समय शम्भू की इस लीला से मोहित होकर शापवश
अपने को दुख देने वाली दानवी योणी को प्राप्त हो गया है।
शी क्रिश्ण ने पहले से ही रुद्र के तिरशूल
से उसकी मृत्यू निर्धारित कर दी है।
इस प्रकार वह दानव देह का परित्याग
करके पुनहे शी क्रिश्ण पार्शद हो जाएगा।
हे देवेश,
ऐसा जानकर तुम्हें भै नहीं करना चाहिए।
चलो,
हम दोनों शंकर की शर्ण में चलें,
वह शेगर ही कल्यान का विधान करेंगे।
अब हमें तुम्हें तथा समस्त देवताओं को निर्भे हो जाना चाहिए।
सनत कुमार कहते हैं,
हे मुने,
यों कहकर ब्रह्मा सहीत विश्णू शिवलोक को चले,
मार्ग में वे मन ही मन भक्त वच्चल
सरविश्वर शंभु का इसवर्ण करते जा रही थे।
एव्यास जी,
इसप्रकार वे रमापती विश्णू ब्रह्मा के
साथ उसी समय उस शिवलोक में जा पहुँचे,
जो महान दिव निराधार तथा भोतिकता से रहित है।
अना पहुँचकर उन्होंने शिवजी की सभा का दर्शन किया।
वह उंची एवं उत्किष्ट प्रभाव वाली सभा प्रकाश युप्त शरीरों वाले
शिव पार्शदों से घिरी होने के कारण विशेष रूप से शोबित हो रही थी।
उन्होंने पार्शदों का रूप सुन्दर कांती से युपत महिश्वर के रूप के
सद्रिश्य था। उनके दस बुजाएं थी। पांच मुख और तीन नेत्र थे। गले में नील,
चिन्ह तथा शरीर का वर्ण अध्यन्त गोर था।
ये सभी शेष्ट रत्नों से युक्त
रुद्राक्ष और भस्म के आवरण से विवुशित थे।
वै मनोहर सभा नवीन चंद्रमंडल के समान आकार वाली और चोकोर थी।
उत्तम,
उत्तम मनीयों तथा हीरों के हारों से वै सजाई गई थी।
मूल्य रत्नों से भरे हुए कमल पत्रों से शुशोबित थी।
उसमे मनीयों की जालियों से युक्त गवाक्ष बने थे।
जिससे वै चित्र विचित्र दीख रही थी।
शंकर की च्छा से उसमे पद्मराग मनी जड़ी हुई थी।
जिससे वै अदभुच्ची लग रही थी।
वै सेमन्तक मनी की बनी हुई सैकडों सीधियों से युक्त थी।
उसमे चारों और इंद्रनील मनी के खंबे लगे थे।
जिनपर स्वण सूत्र से गथित चंदन के सुन्दर पल्लोव लटक रही थे।
जिससे वै मन को मोहे लिती थी।
वै भली भाती संस्क्रित तथा सुगंधित वायुस से स्वासित थी।
एक सहस्तर योजन विस्तार वाली वै सभाद बहुत से किंकरों से खचा-खच बरी थी।
उसके मद्यभाग में अमुल्य रत्नों द्वारा निर्मित एक विचित्र सिंघासन था।
उसी पर ओमा सहित शंकर विराजमान थे।
उन्हें सुरेश्वर विश्णू ने देखा।
वे तारकाओं से घिरे हुए चंद्रमा के समान लग रहे थे।
वे कृड, कुंडल और रत्नों की मालाओं से विभूशित थे।
उनके सारे यंग में भस्म रमाई हुई थी।
और वे लीला कमल धरन किये हुए थे।
महान उल्लास से भरे हुए,
उमाकांत का मन शांत तथा प्रसन्य था।
देवी पारवती ने उन्हें सुहासित तामबूल प्रदान किया था,
जिसे वे चबा रहे थे।
शिवगन हात में श्वेत चवर लेकर
परम भक्ति के साथ उनकी सेवा कर रहे थे।
सिद्ध भक्ति वश सिर जुका कर
उनके इस्तवन में लगे थे।
वे गुणातीत
परेशान
तिरदों के जनक सर्व व्यापी निर्विकल्प निराकार
स्विछ्छानुसार साकार कल्यान स्वरूप माया रहित अजन्मा
आध माया के अधीश्वर प्रकृति और पुर्ष से भी पराथ पर
सर्व समर्थ परिपून तम और सम्ता युक्त हैं।
ब्रह्मा और विश्णु ने हाथ जोड कर उन्हें प्रणाम किया
और फिर वे स्तुती करने लगे।
विविद प्रकार से स्तुती करके अंत में वे बोले,
एब भगवन
आप दीनों और अनाथों के सहायक,
दीनों के प्रतिपालक,
दीन बंधु,
तिरलोकी के अधीश्वर
और शर्णागत वच्छल हैं।
हे गोरीश हमारा उध्धार कीजिए। हे परमिश्वर
हम पर कृपा कीजिए।
हे नात हम आपके ही अधीन हैं,
अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
प्रिये भक्तों,
इस प्रकार यहांपर शिवशिव महापुरान की रुद्र सहीता,
पंचम युद्धखंड की ये कथा,
और उन्तीस और तीसमा अध्या यहांपर समाप्त होता है।
तो सिनहे के साथ बोलिये भक्तों,
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैये।
ओम् नमहः शिवाय।

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