Nhạc sĩ: Traditional
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श्री क्रेश्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायन वासु देवाबोलि राधाराणी सरकार की जेप्रिये भक्तों, श्रीमत भगवत कीता का ठारुम अध्याय आरंब करने जा रही हैऔर इसकी कथा है त्याग एवं सन्यास योगतो आईए भक्तों, आरंब करते हैंअर्जुन ने भगवान श्री क्रिष्ण से कहाहे हिरशी केश, हे पुर्श्वत्तमअब मैं त्याग और सन्यास के बारे में तत्व से जानना चाहता हूँत्याग और सन्यास में परस्पर क्या सम्मंद हैऔर इनके कौन-कौन से रूप हैकृपा करके मुझे विस्तार पूर्वक बतलाईएभगवान श्री क्रिष्ण ने कहाहे भारत, सन्यास के कई अर्थ कहे जाते हैंकुछ ग्यानी जन तो सभी कर्मों के त्याग को सन्यास कहते हैंकुछ ग्यानियों का मत हैकि कर्मों के फल की प्राप्ती की इच्छा न रखते हुए कर्म करना सन्यास हैकुछ विद्वान कहते हैंकि सभी कर्मों का त्याग उचित नहींइसलिए यग्यदान, तप आदी अच्छे कर्म करते हुएबुरे कर्मों को छोड़ देने का नाम सन्यास हैहै अर्जुन, सन्यास के बारे में अच्छी तरह समझने के लिएपहले तू त्याग के बारे में अच्छी प्रकार सुन और समझयग्य, दान, भोजन और मनिश्य की प्रवत्यों के समान हीत्याग भी तीन प्रकार का होता हैसात्विक, राजस तथा तामसहेय अर्जुन ! आलिष्य के वशी भूद होकर अच्छे-बुरे सभी चिन्मों को त्याग देनाऔर अपने नियतकारियों भी न करना यह ताम स्थ्याग हुई।निषद्र और स्वार्थपूर्ण दुष्ट कर्मों को त्याग करअपने सभी करतव्य करमों को करनाऔर साथ ही उन कर्मों से प्राप्त फलों की इच्छा रखना राजस्त्याग हैयग्य दान तबस्या करने के साथ-साथअपने सभी कर्तव्यों के निशकाम भाव से आपूर्ती करते रहना साथ्यक्त्याग हैहे अर्जुन, मेरे विचार में तो यह सात्विक त्याग अर्थात निशकाम भाव से कर्म करना ही वास्तिक सन्यास हैकुछ विद्वान कहते हैं कि मनिश्य को बुरे और भले सभी प्रकार के कर्म त्याग देने चाहिएउनका मत है कि अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे कर्मों का बुरा फल मिलता हैइस प्रकार कर्म करने से मनिश्य फलों के बंधन में बंधता हैअतः सभी कर्मों का त्याग ही उचित हैहे अर्जुन, क्या सभी कर्मों का त्याग कभी संभव है?जीव माता के गर्म में आने से मृत्यू परियंत तक कुछ न कुछ कर्म करता रहता हैअतह कर्म का पूर्ण रूप से त्याग तो संभव ही नहीं हैहे अर्जुन जो विवेकवान व्यक्ति हैंविय अच्छे और बुरे रूप के कर्मों का विभाजन करके अच्छे कर्म करने के लिए कहते हैंऔर बुरे कर्मों से बचने का आग्रह करते हैंयग्य दान, तप और ईश्वर की आराधनाजैसे सत्कर्म करना, अहिंसा और धर्म का पालन तथा इसनान जैसे आवश्यक क्रियाओं को नियम पूर्वक करके तथा बुरे कर्मों से बचे रहने को ही ऐसे व्यक्ति सन्यास समझते हैं।परन्तु वास्तव में ऐसे व्यक्ति भी सन्यासी अथवा वास्तविक त्यागी नहीं।हे अर्जुन, कुछ दुष्ट और तामस व्यक्ति तो कर्म त्याग और सन्यास के नाम पर अपने आलस्य को छिपाने की कुछेश्टा भी करते रहते हैं।वे बुरे भले का भेद त्याग कर सभी कारियों से बचने का प्रियास करते हैं।वे उनका आलस्य ही है।यही कारण है कि निशिद्ध और स्वार्थ पूर्ण कर्मों का त्याग तो उचित हैपरन्तु अपने निशिद्ध कर्म मनुष्य को अवश्य करते रहना चाहिएयही इस श्रष्टी का आधार हैवास्त्विक त्याग की व्याख्या करते हुए भगवान ने आगे कहाहे पार्थ कर्म का पूर्ण रूप से त्याग तो संभव ही नहींपरन्तु अपने सभी कर्म करते हुए भी मनुष्य सन्यासी बना रह सकता हैइसके लिए कर्म का नहीं बलकि कर्म के फल सरूप मिलने वाले फल की आकांखशा का त्याग करना होता हैहे अर्ज़न, तीन प्रकार के कर्म होते हैं और तीन ही प्रकार के उनके फल हैंअच्छे कर्मों के अच्छे फल मिलते हैंऔर बुरे कर्मों के फल भी बुरे मिलते हैंबुरे भाव से किये गे अच्छे कर्मोंऔर अच्छे बुरे मिश्चित कर्मों के फल भी मिले जुले होते हैंपरंतु ये फल उनी को भोगने पड़ते हैंजो अपने मन में करता का भाव रख कर कर्म करते हैंहे पार्थ, जो व्यक्ति निष्काम भाव सेअपना करतव्य समझ कर कर्म करता हैवह कर्म के फल की आकांशा नहीं रखताऔर नहीं स्वेम को उस कर्म का करता ही मानता हैपै निष्कां कर्म करने वाला कर्म योगी कर्म और उसके फल से नहीं बनतापै संसार में सभी कर्म करते हुए भी वास्तव में सन्यासी हैक्योंकि वै करता भाव और फल की इच्छा त्याग कर सभी कारिय करता हैभगवान शी कृष्ण आगे बोलेहे महाबाहोआपको सांख्य शास्त्र में सभी कारियों के पाँच कारक और उपाय बतलाए गए हैं। उन्हें तो विस्तार पूर्वक मुझसे सुन। सभी कर्मों की सिद्धी में अधिष्ठान, करता, करन, चेष्टाएं और हेतु नामक पाँच कारक होते हैं। जिनके आश्रे कर्म कियजाएं उसे अधिष्ठान कहते हैं। करता करने वाला यह शरीर है और करण के अंतरगत इंद्रियां तथा अन्य साधन आते हैं। चेष्टाओं से तात्प्रिये उन विविद्ध किरियाओं से हैं जो कर्म करने हेतु की जाती हैं। जबकि हेतु वह कारण अथवा फल है जकेवल मूर्ख और अज्ञानी ही यह समझते हैं कि आत्म कारिय करती है। जबकि ज्ञानवान व्यक्ति जानता है कि आत्म करता नहीं है। कारिय इंद्रियां और शरीर करता है। हमारी मन और आत्मा उससे तब ही लिप्थ होती है जब किसी स्वार्थ के वशी भूत होकर हम �उसमें बुरित रहे लिप्त हो जाते हैं।हे पार्थ, ज्यानवान मनुष्य सभी कर्म करता है,परन्तु उनमें लिप्त नहीं होता,और नहीं उनसे प्राप्त होने वाले फलों की कामना ही मन में रखता है।वे तो यह भी नहीं मानता कि वे अमुक कार्य कर रहा है,अतेह करता होने का भाव भी उसमें नहीं आता है।हे पार्थ, ज्यानवान वक्ति सभी कार्य प्रभु की इच्छा मान कर करता है,और उनके फल की आकांशा भी नहीं रखता,प्रसब कुछ इश्वर के अरपन कर देता है, अतेह उन कार्यों का फल भी उसको नहीं लगता।ऐसा कर्म योगी सभी कार्य करने के बावजूद फल की इच्छा का त्याग कर देने के कारण वास्तव में सन्यासी है।ऐसा व्यक्ति युद्ध में किसी को मार कर भी नहीं तो स्वम को उसका मारने वाला समझता है और नहीं किसी प्रकार के पाप में बनता है।हे अर्जुन, त्याग और सन्यास को और भी अच्छी तरह समझने के लिए, तु कर्म की प्रेर्णा, अर्थात ज्ञान, कर्ता, साधन और किरिया के भेदों को भली प्रकार मुझसे समझ.अर्जुन, प्रकर्ती के अनुसार ज्ञान भी तीन प्रकार का होता है. सत्व ग्ञान वाले व्यक्ति को सभी प्राणियों में अपने समान ही आत्मा नजराती है. और वे कन कन में मुझ पर ब्रह्म परमिश्वर को देखता है.सात्विक ज्ञान वाला व्यक्ति सबके साथ समान व्यवहार करता हैकिसी से गहना नहीं करता और तेरे मेरे की भावना से दूर रहता हैराजस ज्ञान वाला व्यक्ति विबिन जीवों और कारियों को अलग-अलग द्रिश्टी से देखता हैऔर अपने पराये की भावना भी उसके अंदर होती हैतामस ज्ञान वाला व्यक्ति तो सभी को अपने से तुछ समझता हैउसे संसार में हर वस्तु दोश पून ही नजराती हैऔर वे अधिकांश जीवों से घरणा करता हैहे अर्जुन घ्यान के समान ही कर्म और करता के भी तीन तीन वर्ग हैकरतापन के अभिमान से रहित होकर और मन में फल की इच्छा ने रखकरशास्त्र विधी से नियत कार्यों को करना सात्विक कर्म हैऔर इस प्रकार कर्म करने वाला व्यक्ति सात्विक कर्ताहोता इस प्रकार के कर्ता को कर्म का फल नहीं भोगना पड़ता और वह पूर्ण क्रियाशील रहने के बावजूद त्यागीऔर सन्यासी है अपने लाभ मान में वृद्धि अथ्वा अन्य किसी फल की इच्छा से जो कर्म किया जाता है वह कर्म तथाकर्म दोनों ही तामस हैं हे अर्जुन मनिश्यों की बुद्धियां और उनके अंतय करण की दृढ़ता भी तीन तीन प्रकार की होती हैंहे जो हर हाल में खुश रहे घृत कार्य को भला और बुरे कार्य को बुरा माने और यह भी समझे कि इस बात से मैंको मुक्ति तथा इसे बंधन होगा वह सात्विक बुद्धि है जिस बुद्धि से धर्म को धर्म और बुरे को भला समझा जाए वह बुद्धतामसी है। इन दोनों के मद्ध राजस्बुद्धि है। राजस्बुद्धि वाला व्यक्ति धर्म, अधर्म और अच्छे-बुरे का भेत तो जानता है, परन्तु एकर्तव्य और एकर्तव्य को यथावत नहीं जानता।हे अर्जुन, मन की एकागरता और द्रढ़ता को शास्त्रों ने ध्रती कहा है। यह ध्रती भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक ध्रती वाला व्यक्ति शुभ विचारों द्वारा मन, प्राणी और इंद्रियों की किरियाओं पर नियंत्रन रखता है। तथा उसका मन हर सममें पर ब्रह्म परमेश्वर के ध्यान में लगा रहता है। फल की इच्छा रखने वाला मनुष्य जिस धारण शक्तीद अर्थात प्रेरणा से कार्य में लगा रहता है, वै ध्रती राजस है। तामस ध्रती वाला व्यक्ति शारीरिक सुखों और प्रमादों को न छोड़होती हैं, उसी प्रकार सुख भी तीन प्रकार के होते हैं। भजन, ध्यान, योग, परमार्थ आदि कार्य जो प्रारंभ में करने पर कष्ट देते हैं, परन्तु उनका परिणाम अमृतुल्य है। सात्विक सुख कहे जाते हैं। सांसारिक भोग तथा अन्य वेकर्म जो करपरिणाम सुख दायक है, तामस सुख कहे जाते हैं। हे अर्जुन, संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसमें बुद्धी और ध्रती लेश मात्र भी न हो। मेरी तीनों गुणों से युक्ति है माया, इस संसार को चला रही है और प्रतेक व्यक्ति से कर्म करवा रहरही है। व्यक्तियों के सात्विक, राजस और तामस गुणों, तीन प्रकार की बुद्धियों और ध्रतियों के आधार पर ही समाज में चार वढणों की रशना की गई है। चारों वढणों के गुण और स्वाभाव की प्रकिरिया अलग-अलग है। बालक में जन्म लेतना तप करना, भजन करना, पवित्रता, क्षमा, कोमल स्वभाव, ज्ञान अपना और विज्ञान परमेश्वर का मानना और गौविंद में तत्व बुद्धि परमेश्वर का चिंतन आदि। ब्राह्मन के स्वाभाविक गुण धर्म है। मान सम्मान की चाहत, वीरता, तेपशुपालन, खेती, वानिज्य व्यापार करना वैश्य का स्वाभाविक धर्म है। तीनों ही वर्णों की सेवा करना और जो प्राप्ती हो उसी में संतोष रखना ये शुद्र के स्वाभाविक धर्म है। अर्जुन को समझाते हुए आगे भगवान शी कृष्ण ने कहाहे सव्यसांची, ऊपर चारो वर्णों के धर्म कही हैं. पृत्येक वर्णका अपने अपने धर्म के पालन से कल्याण होता है। अपना धर्म तुछय दिखेपराया धर्म सहायता न करेगा lifestyle hurrell g colocaसे लड़ और फल मुझी श्वर पर छोड़ दे। हे कुन्ती नंदन, अपने वर्ण के अनुसार सौभाविक कर्म करना मनुष्य का सहज सौभाव तो है ही, मेरी सबसे बड़ी पूजा भी है। अपने सौभाविक धर्म के अनुरूप कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों के �पाप का भागी नहीं होता क्योंकि वे तो मेरी विवस्था और मेरे आदेशों का पालन कर रहा है।हे अर्जुन अपना स्वाभाविक कर्म करते समय जो फल की इच्छा और आसाक्ती त्याग कर निर्मल हिर्दे से पूर्ण द्रश्टा के साथ कारे करता है।कर्म योगी मेरा सबसे बड़ा भक्त है।हे अर्जुन कर्म का त्याग नहीं बलकि कर्म करते हुए उसके फल की इच्छा का त्याग ही सबसे बड़ा त्याग और वास्तेक सन्यास है।हे अर्जुन, एकांत में रहकर और अपने कठोर सैयम द्वारा इंद्रियों को पूरित रहें वश्ट में रखते हुएनिरंतर मेरा भजन करने वाले योगी मुझे परम प्रिय हैंमम्ता रहित और शांति युक्त होकर निरंतर मेरा भजन करने वाले योगीबहुत लंबी साधना के बाद मुझे पाते हैंपरन्तु मेरे परायन हुआ कर्म योगीतो सभी कर्मों को सदा करता हुआ भी मुझे सहज ही प्राप्त कर लेता हैहे अर्जुन अन्य धार्मिक कारियतो स्वर्ग ही प्रदान कराते हैंपरन्तु मेरे परायन होकर अपने स्वाभाविक कर्म करने वाला कर्म योगी तोसनातन अविनाशी परमपत को प्राप्त करता हैअतै तू सभी प्रकार का मोह और फल की चिंता छोड़ कर युद्ध करक्योंकि यही तेरा स्वाभाविक धर्म, कर्म और कर्तव्य हैहे अर्जुन तू मेरा मित्र और भक्त हैइसलिए मैंने संपूर्ण धर्म का मर्म और परमगोपनिय यह उपदेश तुझ को दिया हैयदि तू मेरी बात मानेगातो इस लोक में यश और मिर्त्यू के उपरांथ मोक्ष को प्राप्त करेगायदि तू अभिमान के वशी भूत होकर मेरी बात नहीं मानेगातब हर प्रकार से तेरा नुकसान ही होगायदि तू मोह के वशी भूत होकर इस समय युद्ध नहीं करेगातब भी अपने आपको उससे अलग नहीं रख पाएगाक्योंकि ख्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना तेरा स्वाभाविक कर्म हैहे अर्जुन, तू अपने कर्तव्य का त्याग न करबलकि उसके फल को मेरे उपर छोड़ करनिश्चल भाव से अपना कर्म करमैंने तुससे हे यह परम गोपनिय ज्ञान कहा हैअब तू इस पर विचार करऔर फिर तुझे जो उचित लगे वह करहे अर्जुन, गीता के रूप में मैंने तुझे जो यह उपदेश दिया हैयह आगामी पीढियों के लिए धरवार हैजो व्यक्ति इस गीता को पढ़ेगा, सुनेगाअथवा दूसरों को सुनाएगा, वह भी मुझे परमप्रिय होगाजो शद्धा पूर्वक इस गीता को पढ़ेगावह ज्ञान यग से मेरा पूजन करने का फल प्राप्त करेगायह मेरा वचन हैपरन्तु किसी नास्तिक, धर्म विद्वेशी और शद्धा रहित व्यक्ति कोयह ज्ञान नहीं सुनाना चाहिएगीता का यह उपदेश समाप्त करते हुएभगवान शी किष्ण ने अर्जुन से पूछाहे अर्जुन, क्या तूने मेरे इस संपून उपदेश कोपूरे ध्यान से सुना और मनन किया हैक्या आज्ञान के कारण उपजा तेरा मोह समाप्त हो गया हैया अभी अन्य कोई संशय शेश हैअर्जुन ने शीस चुका कर कहाहे अर्जुन, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया हैअब मैं संशय रहित हूँऔर मैंने अपने कर्तव के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लिया हैआप मुझे आज्ञा दीजियेमैं आपकी प्रतेक आज्ञा का पालन करूँगाहस्तनापुर नरेश महराज धरत राष्ट कोअब तक का संपून व्रतान्त सुना रहे संजय ने कहाहे राजन, इस प्रकार मैंनेमदु सुधन भगवान शी कृष्ण और उनके सखाएवं परम भक्त अर्जुन के मद्ध हुएइस अध्भुद परम गोपनिय रोमांचकारी और रहस्य पून संवाद कोपून रूप से सुना और उन्हें देखाउनके इस कल्यानकारी और पावन संवाद को याद करकेमैं बारंबार हर्षेत और प्रमुदित हो रहा हूँहे राजन मुझे तो ऐसा लगता हैकि जहां योगिश्वर भगवान शी कृष्ण और गांडीव धनुषधारी अर्जुन हैवहीं पर विजय, वैभव, अचल नीत, श्री और विहूती हैंऔर भविश्य में भी रहेंगीबोलिये शी कृष्ण भगवान की जैइती श्रीमत भगवत कीता मोक्ष सन्यास योगो नाम अश्ठ दशो अध्याय समाप्तमप्रिय भक्तों इस प्रकार यहाँ पर श्रीमत भगवत कीता का अठारवा अध्याय समाप्त होता हैतो सने के साथ बोलियेओम नमो भगवते वासु देवाएनमनमनमः