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Lời bài hát: Shrimad Bhagawad Geeta Saar Chapter. 04

Lời đăng bởi: 86_15635588878_1671185229650

घीता सार्ग
हरे कृष्णा
भगवत घीता
यानि साक्षार भगवान श्री कृष्ण की वाणी
यह भगवान श्री कृष्ण
और अरजुन के बीच में हुआ
दैवी समवाद है
यह समवाद
आज से पांच हजार वर्ष पूर्व
कृरुक्षेत्र नामक स्थान पर हुआ
प्रियदोस्तों
भगवत घीता
और भगवत घीता के ज्यान पर
असंख्य लोगों ने काम किया है
नजानी कितनी ही घीता आपने सुनी भी होगी
परितु मैं अब आपकी समक्ष प्रस्थुत कर
रही हूँ भगवत घीता की एक और व्याक्या
आखिर क्या विशेश है इस घीता में
घीता में यदि कुछ विशेश हैं तो वो है भगवान श्री कृष्ण
अगर जब निमित मात्र हैं साधन मात्र हैं परंटु मेरा ये
प्रयास है कि आज के जमाने में हमें यह घरंद रास्ता दिखाएं
आसानी से हम इस जटिल घरंद को समझ पाएं और
अपने दैनिक जीवन में इसका उपयोग कर पाएं
वैसे घीता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है
बहुत कुछ सुना भी गया है
शायद ही कोई ऐसा धर्मग्रंथ होगा जिस पर इतना लंबा लिखा गया
आखिर ऐसा क्या खास है इस घीता में
इस समय समय पर ये और भी आवश्यक और मार्गदर्शक भी होती जा रही है
एकटम सरल भाषा में कहें
तो भगवत घीता एक उत्तर है
उत्तर है दुनिया के जटिल्तम प्रश्नों का
जीवन से जुड़ा ऐसा कोई प्रश्न नहीं है
जिसका के उत्तर श्री कृष्ण ने घीता में नहीं दिया
हमारे मन मस्तिष्ग में कोई भी शंका,
परिशाने,
छिन्ता,
दुविधा
या किसी भी तरह का आवेग क्यों ना हो
दुनिया के हर प्रश्न का उत्तर है
भगवत घीता
हम कोई हम क़न है भगवान कोई है
हम एककश्ट क्यों होते हैं
या पुनरजन्म होता है
या अन्य ग्रहों पर जीवन है
हम किस प्रकार इस जनम
और अगले जनम में
सुक्की रह सकते हैं
हम कैसे भगवत धाम को जा सकते हैं
और नजाने कौन-कौन से प्रश्नों का सटीक उत्तर देती है ये भगवत गीता।
भगवत गीता में कुल अठारा अध्याय हैं,
और हर अध्याय में वेदों और उपनिशदों का सार है।
इसके हर अध्याय में आप
अपने आपको अर्जुन ही समझ़िये।
क्यूँकि अर्जुन की हर शंका,
उसका हर डर,
हर संशय वैसे देखा जाए,
तो हमारी ही परिशानी है। और जिसका हर हल बता रहे हैं श्री कृष्ण।
क्योंकि यदि उनके कहे अनुसार,
मैं और आप चलेंगे,
तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ,
कि हमारे जीवन की सारी ժरिशानीयों को हम आसानी से पार कर जाेंगे।
सारी परेशानियों को हम आसानी से पार कर जाएंगे।
आज यहां जीवन की प्राक्टिकल प्रॉबलम्स की बात की जाएगी दोस्तों।
तो आईए,
आपको लेकर चलती हूँ घीता के अठारह अध्यायों के सफर पर।
चोथा अध्याय
श्री कृष्ण भगवान बोले,
इस अविनाशी कर्मयोग को
मैंने सूर्य से कहा। सूर्य ने मनु से और मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा।
हे अर्जुन,
इस फरंपरा से प्राप
यह योग सब राजर्शियों ने जाना,
परन्तु अध्यक समय व्यतीत होने से यह लुप्त हो गया।
अर्जुन बोले,
आपका जन्म तो अभी हुआ है,
और सूर्य का जन्म बहुत पहले ही हो गया था।
मैं कैसे मानूं
कि आपने सूर्य को यह योग बताया था।
श्री कृष्ण बोले,
हे अर्जुन,
मेरे और तुम्हारे अनिएच जन्म हो चुके हैं,
मुझे याद है और तुम भूल गये हो।
जन्म से रहे
अविनाशी
संपून प्राणियों का स्वामी अपनी प्रकृती में स्थित हूं,
तथापी अपनी माया से जन्म लेता हूं।
श्री कृष्ण कहते हैं,
हे भारत,
जब-जब धर्म की हानी होती है और अधर्म का प्राबल्य हो जाता है,
तब-तब ही मैं जन्म लेता हूं।
साधूओं की रक्षा,
पापियों का नाश और धर्म की पुनास्थापना करने के लिए,
प्रत्येक युग में जन्म लेता हूं।
जो मेरे इस आलोक जन्म और कर्म का तत्व जानता है,
वह मृत्यू होने पर फिर जन्म नहीं लेता
और मुझमे ही लीन हो जाता है।
इस भाती,
मोह,
भय और क्रोध को त्याग कर,
मुझमे भक्ती करके
और मेरी शरणागती हो,
बहुत से मनुश्य घ्यान रूपी तपसे पवित्र होकर,
मुझमे ही मिल गए हैं।
जो जिस भाव से मेरा पूजन करता है,
उसको मैं उसी प्रकार का फल देता हूं।
अता,
हे पार्थ,
अगर
अगर जो जिसकी सेवा करें,
वह मेरी ही सेवा है।
मनुश्य लोग में कर्म सिध्धी की इच्छा
रखने वाले देवताओं का पूजन करते हैं,
क्यूंकि इस लोग में कर्म की सिध्धी शीगर होती है।
मैंने चारो वर्णों की सृष्टी अपने-अपने गुण और कर्म से की है।
सृष्टी का कर्ता मैं हूं,
तथापी मुझे अकरता अविनाशी जालो।
कर्म मुझको वृद्ध नहीं कर सकते,
तथापी
कर्मफल में मेरी कामणा नहीं है।
इसप्रकार जो मुझको पहचानता है,
वह कर्मों के बंधन में नहीं पढ़ता।
अतेव पूर्वपुरुशों के किये हुए कर्म को
तुम भी करो।
हे अर्जुन,
कर्म क्या है और अकर्म क्या है,
इसके विचार में विद्ध्वान की बुद्धी भी चक्रा जाती है।
उसी कर्म का वर्णन मैं तुमसे करूँगा,
जिसके जानने से संसार के बंधन छूट कर मोक्ष के भागी वनोगे।
कर्म,
विकर्म और अकर्म तीनों का जानना आवश्यक है,
क्योंकि कर्म की गती गंभीर है।
हे अर्जुन,
जो कर्म करने की कोई कामना नहीं रखता है और
जिसके समस्त कर्म घ्यान रूपी अगनी से भस्म
निर्मल हो गए हैं,
उसको पंडित कहते हैं।
जो कर्म
फल की आशा छोड़ कर करता है और उनमें आसक्ती भी नहीं रखता है
और निराश्रय ही संतुष्ट रहता है,
ऐसा मनुष्य कर्मों में घिरा रहने पर भी मानो कुछ नहीं करता है।
दैवियोग से जो कुछ मिल जाए उसी पर संतुष्ट रहता है।
जो हर्ष शोक आदी द्वन्दों से मुक्त है तत्था किसी से इर्श्या नहीं करता,
कर्म की सिध्धी
या असिध्धी में भेद नहीं समशता,
वह कर्म करता हुआ भी उसमें नहीं बनता।
जो फल की इच्छा नहीं रखता,
वह वासना से दूर हो गया है।
जिसका मन अचल है,
जो यज्य के कर्म करता है,
प्रंभ्रूप अग्नि में यग्य्रूप से हवन कर
परमात्मा का भजन करते हैं,
कोई ऐसे है,
जो अपनी इंद्रियों पो तथा कर्मों पो सयम्रूप अग्नि में
ओम देते हैं।
इंद्रियों के सबकरमों को और
प्राणों के कर्मों वो
आत्मग्याण से प्रज्वलिफ सैज्यम्रूप अग्नी मे औं साईतमा ।
कोई तो द्रव्य यज्य कहते है,
कोई तप्ययज्य,
קोई योगयज्य,
कवे मुझु तत्म्सर्र्य चीरु,
blamed yourself for stealing others whose
वे यज्य वेत्ता हैं। और यज्य से ही इनकी साब पापनाश हो जाते हैं।
जो यज्य में बचे हुए अमरत रूप अन्न को खाते हैं,
वे सनातन ब्रह्म को प्राब्त होते हैं।
हे अर्जुन्य।
जो यज्य नहीं करते हैं,
उनको यहलोक और परलोक दोनों ही नहीं हैं।
इस प्रकार से यज्य वेद में विस्तार सहित वर्णन है।
इन सब को कर्म से उत्पन हुए जानू।
हे परंतव।
प्रव्यमान यज्य से ज्यान यज्य उत्तम है।
अतव,
हे पार्थ,
भल सहित,
सब कर्म ज्यान में समाप्त हो जाते हैं।
सो,
उस ज्यान यज्य का तत्वदर्शी और ज्यानी लोग तुमको उपदेश करेंगे।
इसलिए,
तुम उनकी सेवा करना
और उनको विनय पूर्वत प्रसन्ण करके ज्यान यज्य करना।
इस ज्यान का लाब प्राप्त करके तुमको ऐसा मूह
फिर नहीं होगा।
इसी ज्यान से समस्त प्राणियों को तुम अपने में और मुझ में देखोगे।
अधि सब प्राणियों से भी अधिक पाप करने वाले हो,
तो भी ज्यान रूपी नोका से ही सब पाप रूपी समुद्र को पार कर जाओगे।
हे अर्जुन,
जिस प्रकार प्रज्वलित अगनी लकडी को जला कर भस्म कर देती है,
येसे ही ज्यान रूपी अगनी सब कर्मों को भस्म कर डालती है।
इस लोक में ज्यान के समान पवित्र और कुछ नहीं।
यह ब्रह्म बहुत काल परियंत कर्मयोग से सिद्धुवे
पुरुशों को अपने आप ही प्राप्त होता है।
जो श्रद्हवान पुरुष,
इंद्रियों को जीत कर ब्रह्म ज्यान में लगा रहता है,
वह ज्यान को प्राप्त करता है।
जिनके मन में संदेह रहता है,
उनको यह लोख परलोख और सुख कुछ भी प्राप्त नहीं होता,
जिसने परमेश्वर आराधन और निषकाम कर्मयोग के आश्रे से
कर्मबंधन त्याग दिये हैं,
उस आत्मज्ञानी पुरुष को कर्म नहीं वानते,
अतेव
अज्ञान से उत्पन्न हुए
चित के इस संशय को
ज्ञान रूपी तलवार से काटकर,
मेरे बताए हुए कर्मयोग को
करने के लिए प्रस्तुत हो जाओ।
तो एक बार फिर से,
प्रेम से बोलिये,
भगवानि श्री कृष्ण की जै!

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