जय स्री कृष्णा राधे राधे आप सभी को मारक्षिष पुरिण्मा वर्थ की हार्दिक शुब कामनाएं।
मारक्षिष पुरिण्मा का हमारे सनातन धरम में कुछ खासी महतव माना जाता है।
यह साल की आखरी पुरिण्मा है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन किये गए दान पुन्य से 32 गुना अधिक शुब खलों की प्राप्ती होती है।
इस दिन माता लक्ष्मी और भगवान विश्णों की पूजा करने का वी दान होता है।
जो लोग सची सर्दा के साथ इस सुब दिन पर पूजा पाठ करते हैं, उनके घरों में कभी भी धन का अभाव नहीं रहता।
पुरिण्मा के दिन सुवेश जल्दी उठना जाहिए।
फिर शनान करने के पानी में गंगा जल मिला कर शनान करें।
फिर घर के मंदिर में बगवान श्री हरी विश्नू और लक्ष्मी माता की उपासना करें।
वर्त का संकल्प ले।
इस दिन बगवान सत्य नारेण की पूजा करने का भी विदान है।
इस तेन वर्थ की सुरुवत सुर्योध्य के साथ होदी है और चंदर्मा दशन के बाद समाप्त होदी है।
इस सुब देन पर पुर्ण चंदर्मा का दशन करना बहुत ही शुब फलदाई माना जाता है।
पूर्णमा का वर्थ करने से सादक के सरीर और मन पर कई सकारात्मक परभाव पड़ते हैं।
जो सादक इस दिन का वर्थ करते हैं, उनके जीवन में कभी भी कोई चीज की कमी नहीं रहती।
सच्ची सर्दा से पूज़ अर्शना करने से घर में सुख स्मरद्धी और खुशियों का वास हमेशा बना रहता है।
तो आईए अब अपनी सुनते हैं सत्यनारिन भगवान की कथा।
एक समय नेमी सार्णिया तिर्थ में सोनकादि अठासी हजार रिशियों ने सिरी सूत जी से पूछा कि हे परभु इस कल्युग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को परभु वक्ति किस परकार मिले तथा उनका उत्थार कैसे होगा।
इसी लिए हे मुनी आप ऐसा कोई वर्थ या तप कही जिसे थोड़े समय में पुन्य प्राप्त होगी तथा मनवांचित फल मिले। वहे कथा हमारी सुनने की परबल इच्छ है।
वहाँ से कहा था, सो ध्यान से सुनू, एक समय योगीराज नारग जी दूसरों की हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मिर्त्यू लोक में आपकची। वहां अनेक योनियों में जन्मे हुए सभी मनुष्य अपने अपने कर्मों दुवरा अनेक दुखों से ब
वाले देवों के इस नारायण को देखकर जिनके भातों में संक्र, चकर, गधा तथा वनमाला पहने हुए थे, स्तूती करने लगे, कि हे भगवान, आप अत्यंत शक्ती से संपन है, मन तथा वाणी आपको पा नहीं सकती, आपका आधी मत्य अंत नहीं है, आप निर्गुन स�
रूप, स्रिष्टी के आधी हूद, वह भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो, आपको मेरा बारंबार नमस्कार, नारद जी से इस परकार की स्तूती सुनकर, विश्णु भगवान बोले, कि हे मुनी स्रिष्ट, आपके मन में क्या है, और किस काम के लिए आपका आ�
हो रहे हैं, हे नारद, मुझ पर दया रखते हो तो बतलाईए, कि उन सब मनुष्यों के दुख थोड़े से ही प्रयतन से कैसे दूर हो सकते हैं, तो सिरी भगवान जी बोले, कि हे नारद, मनुष्यों के बलाई के लिए तुमने ये बहुत ही अच्छी बात पूछी है, जि
आज मैं प्रेमवस होकर तुमसे कहता हूँ, ध्यान पूर्वक सुनना, सत्य नारण का यह है वर्थ, अच्छी तरहे विदी पूर्वक करने के बाद मनुष्य आयू प्रांथ, यहां के सुख भोग कर, मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है, सिरी भगवान जी के वचन सुन
भगवान सिरी हरी विश्णू बोले कि दुख शोक अधी को दूर करने वाला, धन धन्य बढ़ाने वाला, सुख सोभाग्य तथा संतान को देने वाला, यह है वर्थ सब स्थानों पर विजय प्राप्त करने वाला है, भगती और सर्दा के साथ किसी भी दिन मनुष्य सिरी स
सत्यनायन की प्राते काल की समय या फिर शाम को ब्रहमनों और बंधुओं के साथ धरम प्रायंट होकर पूजा करें, भगती भाव से निवेद केले का फल, घी, दूद, गेहु का चूरन सवाया ले वे, गेहु की अभाव में साथी का चूरन, सक्कर तथा गुड ले और सब
पूजा कर रहें, इसे स्विकार कीजिए, मेरा आपको बारंबार नमस्कार है, इसके बाद सत्यनारेंड जी की कथा पढ़नी अथवा सुनने चलें, कथा समाप्त होने पर सत्यनारेंड जी की आर्थी करें और उसके बाद में सत्यनारेंड भगवान का समर्ण करते हुए सम
सबसे सरल उपाय यही है। तो सूत्र जी बोले कि हे रिश्यु, जिसने पहले के समय में इस वर्थ को किया है, उसका इतिहास भी मैं तुम्हें कहता हूँ। दिहान से सुन्नो।
सुन्दर कासीपुरी नगरी में एक अत्यांत निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह बूख और प्यास से बेचेन हुआ, नित्य पृथ्वी पर घूमता था।
ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले बगवान श्री हरी ने ब्राह्मण का वेश धारण करके, उस बुढ़े ब्राह्मण के पास जाकर आदर से पूछा कि हे विपर, नित्य दुखी हुआ प्रिथ्वी पर क्यों घूमता है।
ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले बगवान श्री हरी ने ब्राह्मण का वेश धारण करके, उस बुढ़े ब्राह्मण के पास जाकर आदर से पूछा कि हे विपर, नित्य दुखी हुआ प्रिथ्वी पर क्यों घूमता है।
ब्राह्मण को वर्त का सारा विधहान समझाकर ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री हरी विश्नू अंतर्ध्यान हो गए और वहे ब्राह्मण भी घर आ गया। घर आकर वह सोचनी लगा कि उस ब्राह्मण ने जिस वर्त के बारे में बताया था, मैं उसे अवश्य क
में बहुत सारा धन मिला। जिससे बंदु बांदुओं के साथ उसने सत्यनायण भगवान का वर्थ किया। इस वर्थ को करने से वह ब्रामण सब दुखों से छूट कर अनेक परकार की संपतियों से युग्ध हुआ। उस समय से वह ब्रामण हर महिने वर्थ करने लगा। इस
रोग में और क्या कहा। तो रिशी बोले कि हे मुनिश्वर संसार में इस ब्रामण से सुनकर किस-किस ने वर्थ किया। वह सब भी हम आज जानना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में सर्दा है। तो सूद्ध जी बोले कि हे मुनियों जिस-जिस ने उस वर्थ को किया है �
वह सब सुन। एक समय वह ब्रामण धन और एश्वर्य के अनुसार बंदु-बांधुं के साथ वर्थ करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकडी बेचने वाला बुधा ब्रामण आया और बाहर लकडियों को रखकर ब्रामण के मकान में गया। प्यास से दुखी लकड हार
जाओ तो ब्रामण ने कहा कि सब मनुकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनायन भगवान का वर्थ है। इसी की कृपा से मेरे यहां धन धान्य की व्रदी हुई है। तो ब्रामण से इस वर्थ के बारे में जानकर लकड हारा बहुत ही पर्शन हुआ। चर्णा मत ले पर
उत्तम वर्थ आज मैं भी करूँगा। तो यह मन में विचार करके वह बुदा लकड हारा लकडिया अपनी सर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहती थे। वह ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहां उसे लकडियों के दाम पहले दिनों से चोगुना मिले�
तो वह बुदा लकड हारा बहुत ही खुश हुआ। और दाम लेकर पके केले के फल, सकर, घी, दूद, दही और गेहुं का चूरन। सत्यनायन भगवान के वर्थ की कुल सामगरियों को लेकर अपने घर आ गया। फिर उसने अपने भाईयों को बुला कर विदि विदान के स
साथ सत्यनायन भगवान का पूजन किया और वर्थ किया। उस वर्थ के परभाव से वह बुदा लकड हारा, धन पुत्र आदि से युक्त हुआ। संसार के समझ सुखों को भोग कर बैगूंट को सला गया। तो सूत्र जी बोले कि हे स्रेष्ट मुन्यों, अब मैं आगे की
देगर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पतली कमल के समान मुख वाली सती साद्वी थी। भदर सिला नदी के तट पर उन दोनों ने सिरी सत्यनायन भगवान का वर्थ किया। उसी समय में वहाँ एक सातु विश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत सारा धन �
था। वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया। वो राजा को वर्थ करते हुए देखकर विने के साथ पूछने लगा कि हे राजन बक्ति युगचित से आप यह क्या कर रहे। मेरे भी सुनने की इच्छा है। सो आप मुझे बतलाईए। तो राजा बोला कि
और सादु आदर से बोला कि हे राजन मुझे इसका सारा विधान बताओ। मैं भी आपके कहे अनुसार इस वर्थ को करूँगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है और मुझे विश्वास है कि वर्थ करने से निष्चे ही होगी। तो राजा से वर्थ का सारा विधान सुनकर व्
निवर्थ होकर वह आनंद के साथ घर गया। सादु ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले उस उत्तम वर्थ के बारे में बताया। और कहा कि जब मेरे संतान होगी तब मैं भी इस वर्थ को करूँगा। सादु ने ऐसे वचन अपनी पत्नी लिलावधी से कहे। एक दिन �
उसकी स्त्रे लिलावती पती के साथ आननित हो सांसारिक दरम में परविर्थ होकर सत्यनायन भगवान की किरपा से गरवती हो गए।
तथा उसने दस्वे महिने बहुत ही सुन्दर कन्या को जरम दिया।
वह कन्या दिनों दिन इस तरहें बढ़ने लगी जैसे सुकल पक्ष कर चंदर्मा बढ़ता।
कन्या का नाम कलावती रखा गया।
तब लिलावती ने बड़े ही मिठे शब्दों में अपने पती से कहा कि आपने जो संकल्ब किया था कि मैं सत्यनायन भगवान का वर्थ करूँगा तो आप उसे करिये।
तो सादू बोला कि हे पिलिये इसकी विवाह पर करूँगा।
इस परकार वह अपनी पत्नी को आश्वासन देकर नगर को चला गया।
कलावती पित्र ग्रह में युरिती को प्राप्त हो गई।
सादू ने जब नगर में सख्यों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरंथ दूत बुला कर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई स्वियोग्य वर्थ देख कर लाओ।
सादू की आज्या पाकर दूत कंचर नगर पहुँचा और बड़ी खोज भार करके लड़की के लिए स्वियोग्य वानिक पुत्र को लियाया।
उस स्वियोग्य लड़के को देखकर सादू ने अपने बंदु बादुओं सहीद पर्शंचित हो अपनी पुत्री का विवहा उसके साथ कर दिया।
किन्तु दुरुभाग्य से उस समय भी वह उस वर्थ को परना भूल गया।
तब भगवान क्रोधित हो गई और श्राप दिया कि तुझे दारुन दुख प्राप्त होगा।
एक बार वह सादू अपनी जमाई को लेकर समुदर के समीप इस्तित रतनपुर नगर में गया।
जब दूतों ने उस सादू विशय के पास राजा के धन को देखा तो दोनों को बांध कर ले गए।
और परसंता से दोड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले कि हम दो चोर पकड़ कर लाए हैं देख कर आग्या दे।
तब राजा ने आग्या दी कि उनको कठोर कारावास में डाल दो और उसका सारा धन छीन दो।
परसात ग्रहन करके रात को घर आई तो माता ने कलावती से कहा कि हे बेटा अब तक तुं कहा थी और तेरे मन में क्या है।
तो कलावती बोली कि माता मैंने एक ब्रहमन के घर सिरी सत्यनायन भगवान का वर्थ होते देखा है।
कन्या के वचन सुनकर लिलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी।
लिलावती ने परिवार और बंदुवों सहित सिरी सत्यनायन भगवान का पूजन किया और साथी वर्थ भी रखा।
वर्थ मांगा कि मेरे पती और दामाद शिगर घर आ जाये।
साथी प्रार्थना की कि हम सब का अपराज छमा करो।
तो सत्यनायन भगवान उसके इस वर्थ से संतुष्ट हो गई।
प्रातय काल राजा चंद्र केतु ने सभा में अपना सब्वन सुनाया।
फिर दोनों वानिक पुत्रों को कैद से मुक्त करके सभा में बुलाया।
दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया।
तो राजा ने बड़े ही मिठ्ठे वचनों से कहा कि हे महनुं भहो।
तो राजा ने दूबना धन देकर आदर सहित विदा किया।
तब दोनों ससुर जमाई अपने घर को चल दिया।
सूत्र जी कहते हैं कि वेश्य ने मंगलाजार करके यत्रा आरम की और अपने नगर को चला।
कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य हो। दंडी ऐसा कहे कर वहां से दूर चले गए और कुछ दूर जाकर समुदर के किनारे पर बैठ गए। दंडी के जाने के बाद वेशय ने नित्य किरिया करने के बाद जैसे ही अपनी नाव को उंचा उठा दे
लगा। तब उसका दामाद बोला कि आप शोप न करें। यह दंडी का स्राप है। अते हमें उनकी सरण में चलना चाहिए। तभी हमारी मनो कामना पूर्ण होगी। दामाद के वचन सुनकर सादु वानित दंडी के पास पहुंचा। अत्यत भक्ती भाव से नमस्कार करके
बोला कि हे भगवान आपकी माया से मोहित बर्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानती। तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ। आप पर्शन होई। मैं सामर्थ्य के अनुसार आपके पूजा करूँगा। आप मेरी रक्षा करो। और पहले के समान मेरी नोका में �
धन भर दो। तो उसके भगती वचन सुनकर भगवान पर्शन होकर उसकी इच्छा अनुसार वर देकर अंतर ध्यान हो गए। तब उन्होंने नाव को देखा तो नाव तो धन से परिपूरन थी। फिर वो भगवान सत्य नारण का पूजन करके अपने जमाई के साथ नगर
के समीप आ गए हैं। ऐसा वचन सुनकर सादु की पत्नी बहुत ही खुश हुई और बड़ी ही खुशी के साथ सत्य देव भगवान का पूजन किया और अपनी पुत्री से कहा कि मैं अपने पती के दर्शन के लिए जा रही हूं तो उस कार्या पूरन करके सिगर ही आ जाना
तो माता के ऐसे वचन सुनकर कलावती परसाद को छोड़कर पती के दर्शन करने के लिए गई परसाद की अवक्या के कारण सत्य देव भगवान फिर उष्ट हो गई उसके पती को नाव सहित पानी में डुबो दिया कलावती अपने पती को ना देखकर रोती हुई जमीन प
उसे छमा करो उसके दीन वचन सुनकर सत्य देव भगवान परशन हो गई और आकाश्वानी हुई कि हे सादू तेरी कन्या मेरे परसाद को छोड़कर आई है इसे लिए इसका पती एदर्श्य हुआ है यदि वहे घर जाकर परसाद खाकर लोटे तो इसे इसका पती अवश्
भगवानों सही सत्य देव भगवान का विदी पूर्वक पूजन किया और उसके बाद से वह प्रत्येक पुर्णमा को सत्य नायण भगवान का पूजन करता और वर्त रखता साथ ही कथा भी करता फिर इस लोग का सुख भोग कर आंतमिन स्वर्ग लोग हो गया फिर सूर्�
में जाकर वन्य पस्वों को मार कर बढ़ के पेड़ के नीचे आया वहां पर उसने गुवालों को भक्ती भाव से सर्दा सहित सत्य नायण जी का पूजन करते देखा तो राजा तो गमण्ड वस वहां नहीं गया और नाही नमस्कार किया पूजा समाक्त होने पर जब गु�
धक्वान का परशाद राजा को दिया तो राजा ने उस परशाद को त्याग दिया और अपनी नगरी को चला गया वहां जाकर उसने देखा कि सब कुछ नष्ट हो गया है तो वह राजा जान गया कि ये है सब सत्य नायण भवान ने किया है तब वह विश्वास करके फिर से
जो मनुष्य इस परम दुर्लव वर्थ को करेगा, भगवान की कृपा से उसे धन धन्य की प्राप्ति होगी।
नेधन धन्य बंदी बंदन से मुक्त हो जाता है।
संतान हिंतों को संतान की प्राप्ति होती है तथा सब मनुष्य पूर्ण होकर अंत में बैखुंट दाम को जाता है।
जिन्होंने पहले इस वर्थ को किया था, अब उसके दूसरे जनम की कथा कहता हूँ।
अवरित स्तानन्द प्रहमण ने सुदामा का जनम लेकर मुक्ष को पाया।
उलकामुक नाम का राजा दसरत होकर बैखुंट को प्राप्त हुआ।
सातु वेश्य ने मोर ध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीर कर मुक्ष को प्राप्त किया।
महाराज तुम ध्वज ने श्वेम भू होकर भगवार में भक्ति करम करके मुक्ष को पाया।
बोलो सत्यनायन भगवान की जय हो।
बोलो विश्णू भगवान की जय हो।