अपनी इस मिटी के हर रंग का वोहिन
कभी बसा इस जमीन पे
जहांका जो मैंने देखूं गिरे बानों में
जिरिया सोने की बट रही अब अख़पारों में
पादशाओं की उजुरियत
मकफूलों की जमुरियत
मजहबां का येर फेर हो चुकी अपड्रे
हर नज़र बिग गई बिग गई है सुबां
हर कलम है निलाम हुजूरों को सलाम
हर नज़र बिग गई बिग गई है सुबां
हर कलम है निलाम हुजूरों को सलाम
विकेश शल्चनत के गुलाम
कर हुसूर को सलाम
इस अहध के नौजवाँ
क्या पढ़ेंगे केताबों में
जब स्थूलों की दिवार
गिर कई पिछली बरसातों में
हर नजर बेगई
बेगई है सुपाँ
हर कलों है नला
बेगई है सुपाँ