जे स्री कृष्णा राधे राधे, आज पोष महा के कृष्ण पक्स की त्रित्या तिथी है, आज संकर्चोत का वर्त रखा जाएगा, वर्त रखने वाली सभी बहनों को हार्तिक शुब कामनाई, तो आज मेरी सभी बहनों के लिए परस्तुत है संकर्चोत वर्त कथा, तो आ�
संकर्चोत माता की जय हो, बोलो गनेश जी भगवान की जय हो
एक समय की बात है कि रावन ने स्वरक के सभी देवताओं को जीत लिया था, वै संध्या करते हुए बाली को पिछे से जाकर पकड़ लिया
वानराज बाली रावन को अपनी बगल में दबाकर किसी किंदा नगरी ले आई और अपने पुत्तर अंगत को खेलने के लिए खिलोने की रुप में रावन को दे दिया
अंगद रावन को खिलोना समझ कर रसी से बांध कर इधर उधर गुमाने लगा
इससे रावन को बहुत थी दुख और कष्ट होता था
इस तरहें कई दिन बीट गई लेकिन अंगद ने रावन से खेलना नहीं छोड़ा
रावन बहुत दुखी थे और उन्होंने एक दिन दुखी मन से अपने पिता में पुलसत्य जी को याद किया
रावन की यह दशा देखका है रिशी ने विचारा कि रावन की यह दशा कैसे हो सकती है
उन्होंने मन ही मन सोचा कि अभिमान हो जाने पर देव, मनुष्य वे असुर सभी की यही हालत होती है
तो यह सोचते हुए पुलसत्य रिशी ने रावन से पूछा कि तुमने मुझे याद क्यों किया
है तो रावन बोला कि पितामे मैं बहुत ही दुखी हूँ यह नगरवासी मुझे दिकार दिखें अब आप ही मेरी रक्षा करें तो रावन की बात सुनकर रिशी बोले कि रावन तुम दरो नहीं तुम इस बंदन से जल्द ही मुक्त हो जाओगे तुम विगन विनासक गने
भक्ति पूर्वक किया था इसलिए तुम भी विगन विनासक श्री गनेश जी के इस वर्थ को करो तुम्हें अवश्य शुक्कारा मिलेगा तब पिता की आज्या अनुसार रावन ने भक्ति पूर्वक इस वर्थ को किया था और फिर बंदन रहित हो अपने रच्य को पुन
अब सुनते हैं दूसरी कहन पुरानी कथा के अनुसार सत्यूग में महराजा हरीश चंदर के रच्ये में एक रीशी शर्मा नामक एक तपस्वी ब्रह्मन रहता था पुतर के जनम के बाद ब्रह्मन की मिर्टी हो गई तो उस पुतर के पालन पोशन की जिमेंदारी उसकी व
वह मिर्टी के बर्तन बनाता लेकिन हमेशा ही उसके बर्तन कच्ची रह जाती जिसकी वज़े से कुमहार बहुत ही प्रेशान रहता था एक दिन उसने एक तांत्रिक से पूछा कि मेरे आव के बर्तन पकते क्यों नहीं है इसका कोई समाधान बताएगा तो उसकी बात सुनक
कर तांत्रिक ने उसे कहा कि तुम ऐसा करो किसी बच्चे की बली दे दिया करो तो अगले दिन कुमहार ने घड़ों को पकाने के लिए एक बच्चे की बली देने की सोचे उस दिन संकट चोद का वर्थ था विद्वा ब्रामनी ने अपने पुतर के लिए संकट चोद का वर
आउ में उसे डाल दिया। इधर उसकी माता अपने पुत्र को ढूंढने लगी और अपने पुत्र के नाम मिलने पर वह विदुआ ब्रामनी बुरीतरह से रोने लगी और गनेश्ची से प्रार्थना करने लगी कि मेरा बच्चा ना जाने कहा है, किस हाल में है।
हे गनेश जी बगवान तुम ही उसकी रक्षा करना। रात बीट गई। सुबह हो गई पर उसका बेटा घर नहीं आया। सुबह होते ही जब कुमहार पके हुए बर्टनों को देखने के लिए आउं के पास गया तो वहां जाकर देखा कि उसमें तो पानी बरा हुआ था और उ
राजा ने अपने मंतरियों को भेजा कि ताकि वो पता लगा सके कि यह पुत्र किसका है और कहां से आया है। तो उस बालक को राजा के सेनिक राज दरबार में ले आई। फिर एलान करवाया कि किसी का बच्चा है तो वो आकर ले जाए। जब विद्वा ब्रामनी को अपन
राजा को प्रणाम करते हुए कहा कि हे राजन मैं कुछ नहीं जानते। मैं अपने बच्चे की मंगल कामना के लिए संकट चोत का वर्थ रखती हूँ और चोत माता ने ही मेरे बच्चे की रक्षा की है। तो यह सुनकर राजा तो बहुत ही परशन हुए और फिर एलान कर�
वाया कि हर बेटे की मा संकट चोत का वर्थ किया करें। कहा जाता है कि तब ही से महिलाएं अपनी संतान, घर परिवाय और अपने अखंड सुभाग्य के लिए संकट चोत का वर्थ करने लगी। बोलो चोत माता की जे हो।
एक नगर में एक बुड़ी मा रहती थी। वहे अपने बेटे की स्लामती के लिए बारा महिनों चोत का वर्थ करती थी। हर चोत को पंशारी से थोड़ा सा गुड और घी लाकर चार लडू बनाती। एक बेटे को दे देती, एक से पूजा करती, एक हदकार के निय निकालत
थी। और एक जब शाम को चंदर्मा उद्यक होता, तो चंदर्मा को अरग्य देने के बाद में उससे वर्थ का पारंग कर लेती। दोनों मा बेटे का गुजर बसर अच्छे से हो रहा था। एक बार उसका बेटा ताई से मिलने के लिए गया। उस दिन ताई ने वेशा की
चोथका वर्थ रखा था। तो उसने ताई से पूछा कि मेरी मा तो बड़ा चोथका वर्थ करती है। तो उसकी बात सुनकर ताई
पड़ी बोले की तेरी मा तेरी कमाई से तर माल खाने के लिए हर महिने वर्थ करती हैं। अगर तू परदेश चला जाये तो वहे एक भी चोथ का वर्थ नहीं करेगी।
तो अपनी ताई की बात सुनकर उस लड़के को लगा कि ताई तो सच कह रही है।
मेरी मा तो सच में ही मेरी कमाई को यूही उड़ा रही है।
तो वहे गुसे में घर आया और आ कर मा से कहा कि मा मैं परदेश जा रहा हूँ।
तो उसकी मा ने कहा कि बेटा ऐसी क्या बात हो गई, तू मेरा एक मातर साहरा है, तेरे बिना यहां पर मेरा कोई नहीं है, मैं अकेली यहां पर कैसे रहूंगी, तो वह बोला कि मा तू मेरी कमाई तो खाने पीने में ही उड़ा देती है, और बहाने बनाती है कि मेरी सलामती के
लिए तू बारा माची चोत का वर्थ करती है, आज मुझे सब कुछ पढ़ा चल गया है, इसलिए मैं परदेश जा रहा हूं, अब मैं भी देखता हूं कि तू हर महिने चोत का वर्थ कैसे रखती है, तो यह सुनकर उसकी मा की आंखों में आशुब आ गए, एक बार फिर से
उसने समझा कर अपने बेटे को परदेश जाने के लिए मना किया, लेकिन वो तो नहीं माना, तो मा ने उसे साथ में ले जाने के लिए चोत माता के आखे दे दिये और कहा कि बेटा, मुसीबत में ये चोत माता के आखे हैं, तेरी रख्षा करेंगे, तो वहे चुपचाब �
अपनी मा से वो आखे लेकर रवाना हो गया, चलते चलते रास्ते में एक नदी आई, तो उसने उस नदी में आखे डाल कर कहा कि हे चोत माता, मेरे लिए यहां पर रस्ता बन जाए, तो चोत माता के किरपा से उस नदी के उपर एक बड़ा सारा पुल बन गया, जिसे पार क
करके वह दूसरे नगर को पहुंच गया, वहां जाकर उसने देखा कि एक बुड़ी माई साथ में तो रो रही है और पूए भी बना रही है, तो उसने पूछा कि बुड़ी मा तुम रो क्यों रही हो, तो बुड़ी मा ने कहा कि बेटा इस नगर की पहाड़ी पर एक दित्
देता था, अब राजा हर गर से एक आदमी दित्य के पास रोजाना भेज देता है और आज मेरे बेटे की बारी है, इसलिए मैं रो रही हूँ और उसी के लिए पूए बना रही हूँ, तो वह बोला कि हे माता अगर तुम पूए मुझे खिलाते तो मैं तेरे बेटे की जग
लगी कि इस पराय पूत को मैं कैसे भेज सकती हूँ, इसकी भी तो मा होगी जब पता चलेगा कि मैंने मेरे बेटे के बदले में उसके बेटे को देत्य के पास भेज दिया, तो उसके दिल पर क्या गुझरेगी, वो यही सोच रही थी कि सेनिकों की अवाज से उस लड़के
मेरी मा मेरी सलामती के लिए वर्थ करती है, तो देत्य का सर कट कर जमीन पर गिर जाए, तो उसके इतना कहते ही चोथ माता की किरपा से देत्य का सर कट गया, लड़का से कुशल वापिस आ गया, तो यह देखकर राजा को बहुती आश्चरे हुआ, राजा ने उसे खूब स
ने उसे देखा, तो पकड़ कर ले आए, और आवे में चुन दिया, तो लड़के ने आवे के अंदर आखे डाल कर कहा की हे चोथ माता, यदि मेरी मा मेरी सलामती के लिए वर्थ रखती है, तो आवा मेरी बली के बिना ही जट से पक जाए, तो उसके इतना कहते ही आवा त�
किसे मिट्टी की जगह सोनी चांदी के बर्तन निकलने लगी, जैसे ही कुमार बर्तन निकालने लगा, तो अंदर से लड़का बोला की बर्तन धीरे धीरे निकालना, कहीं मुझे चोट ना लग जाए, तो जैसे ही ये आवाज कुमार ने सुनी, तो वहे तो दोडा दोडा �
राजा के पास आया और कहा कि राजन आवे के अंदर तो भूत है और आज बैतन भी जड़ से पक गई तो यह सुनकर राजा तुरंत वहां पहुंचे और उस लड़के को बाहर निकलवाया और पूछा कि तुम कोन हो और इस आवे में कैसे आई तो वह लड़का बोला कि तुम
तो राजा को विश्वास नहीं हुआ कि चोथ माता के वर्थ करने से क्या ऐसा चमतकार हो सकता है तो वह लड़का बोला कि ही राजन आप मेरी कठिन से कठिन प्रिक्षा ले सकते हो फिर तो आपको विश्वास हो जाएगा कि मेरी मा मेरी सलामती के लिए वर्थ रखती है औ
तो लड़के ने चोथ माता को याद करते हुए आख्य सुराही में डाले और कहा कि मैं बहुरा बनूं सुराही में से निकलों तो लड़का बहुरा बनकर सुराही में से निकल गया तो यह देखकर राजा को विश्वास हो गया कि सच में तेरे उपर तो चोथ माता की किरप
पास जाकर कहा कि मैं मेरे नगर जाने की सोच रहा हूँ। तो राजा ने रत, गोड़ा, हाती और खूब सारा दान दहेज देकर उसे विदा कर दिया। चोत के दिन वहे अपनी नगर पहुंचा। वहे अकेला पंशारी के यहां मा का इंतजार करने लगा। सोचा कि आज चोत
लड़के ने जानबूच कर अपना पैर लकडी के लगा दिया। और कहनी लगा कि बले तेरे पूर्ण लाठी मेरे पैर के लगा दी। तो इतना सुनते ही उसकी मा ने उसे नहीं पहचाना और कहनी लगी कि बेटा मुझे चाहे कितनी गाली दे दो पर मेरे बेटे को कुछ म
क्या कह दिया मुझे कलती हो गई मां मुझे माफक कर दो इतना कहते ही उसकी माने उसे गले से लगा दिया और रौनी
लगी कहने लगी कि बेटा फिर से कभी मुझे अकीला छोड़कर मत जाना तो वह बोला कि नहीं मा अब मैं तुम्हें छोड़कर
अगर कभी नहीं जाऊंगा, देखो मैं तुम्हारे दिये क्या लेकर आया हूँ। यह कहे कर उसने अपनी पत्नी को अवाज लगाई। तो उसकी पत्नी ने आकर अपने सास्त के चरण स्पर्श लिये। इतना सारा दान दहेज और शादी करके आया तो माँवालों ने विश्
की साहिता की वैसी हमारी भी करना। कहनी कहने वाले की, सुननेवाले की और
और हुकारा भरने वाले की सभी पर अपनी कृपया दृष्टि बनाई रखना बोलो चोथ माता की जय हो द्वापर युग में महिस्मति नाम की एक नगरी थी उसमें महिजित नाम का राजा राज्य करता था वह बड़ा ही पुन्यसी और परतापी राजा था वह अपनी परज
का नहीं लगता था क्योंकि वेदों में ने संतान का जीवन व्यक्त बताया गया है यदि संतान व्यहिन व्यक्ति अपने पित्रों
को जल दांधी था है तो उसके पित्रघन उस जल को गरम-जल के रूप में ग्रहन करते हैं तो धीरे-धीरे समय व्यतीत हो
राजा ने पुत्र प्राप्ति के लिए बहुत से डान-यज्ञ और आधी कार्य कीए,
पर फिर भी राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होई।
इसका करते करते।
राजा भुड़े हो चले।
पिर भी उन्हे संतान की प्राप्ति नहीं होई।
मुझे कोई संतान प्राप्ति का उपाय मिल जाए तो ऐसा सोचकर राजा ने विद्वान ब्राह्मनों तथा प्रजाजनों को सभा
में बुलाया तो राजा की आग्यानुषाय ब्राह्मन और सारी प्रजाजन वहां पर पहुंच गए तो राजा ने वहां जाकर
बेच्चेन वे सभी को प्रणाम करके कहा यह विद्वान ब्राह्मनों और प्रजा जनों आप सभी को मैं प्रणाम करता हूं
सारी प्रजा का मैं खूब अच्छे से ख्याल रखता हूं मैंने मेरी त्रफ से इन्हें कभी कोई कमी नहीं आने दिया
लेकिन आज मैं एक दुविदा में भसा हूँ, आप मुझे इसका मारक बताईगी, क्योंकि मैं तो 97 हूँ, अब मेरी गती क्या होगी, मैंने अपने जीवन में किंचित पापकरम भी नहीं किया, ना मैंने अत्याचार करके कोई धन संग्रे किया है, जो भी धन आया है, वो मैं
अपनी पर्जा की भलाई के लिए लगा दिया है, मैंने हमेशा आप से पुत्र वत पालन किया है, तथा धरम का आच्छन करके प्रित्वी पर सासन किया है, मैंने हमेशा जोर डाकुन को दर्डि किया है, हमेशा न्याई का सार्थ किया है, इश्ट मित्रों के भोजन की व्य
कार किया फिर भी मुझे अब तक पुत्तर ना होने का क्या कारण है तो राजा की सारी बात सुनकर विद्वान ब्राह्मन बोले
कि हे महाराज हम लोग वैसा ही प्रयतन करेंगे जिसके करने से तुम्हें संतान की प्राप्ति हो और आपके वास्ति वृति हो
इस परकार कहे कर सारे के सारे युक्ति सोचनी लगे सारी परजा राजा के मनौर्भ की सिद्धि के लिए ब्राह्मनों के साथ वन में जली गई
वन में जाने के बाद एक दिन उन सभी लोगों को एक स्रेष्ट मुनी के दर्शन हुए। वे मुनी निरहार रहे कर तपश्य कर रहे थे। ब्रह्मा जी के समार वे आतम जित, कुरोध जित तथा सनातन कुरुष थे। संपूर्ण वेद विशारत एमं अनेक ब्रह्म ज्ञान
कि उनका नाम लोमेश रिशी पड़ गया। ऐसे तिरिकाल दिर्शी महर्षी लोमेश के उन लोगों ने दर्शन किये। सब लोग उन तेजस्वे मुनी के पास जाकर बैठ गये। जब लोमेश रिशी की तपश्या पूरी हुई तो उन्होंने अपनी आँख खुल। तो सा
उनके उपदेश से हम सभी का मंगल होगा। तो यहे सुनकर रिशी ने कहा कि आप लोगों का यहां आना कैसे हुआ। तो वे बोले कि हे ब्रह्म रिशी हम लोगों के दुख का करण आप द्यान से सुनिये। हम अपनी संदेख के निवारन के लिए आपके पास आई है। हे �
बगवान आपको यूपाई बदलाईए। तो उनकी बात सुनकर महरसी लोमेश कहने लगे कि सजनों आप लोग यहां की सभी प्राइसे आई हैं। मुझसे आपका क्या प्रायोजन हैं। सपश्ट रूप से बताईए। मैं आपके सभी संदिहों का निवारन करूँगा। तो
मुझसे आपका क्या प्राइसे आई हैं। मुझसे आपका क्या प्राइसे आई हैं।
मुझसे आपका क्या प्राइसे आई हैं।
मुझसे आई हैं।
इस दिन गनेश भगवान की भूजा करके वर्थ के सारे नियमों का पालन करते हुए वर्थ रखना है और शाम को चंदर्मा उद्य होने पर चंदर्मा की भूजा करके अरग्य देने की बाद में वर्थ का पालन करना है।
आपके राजा को कहना कि विदी पुर्वक वर्त रख कर जितनी भी सर्दा हो ब्रामन को भोजन करवाईं और उन्हें वस्तर का दान करें।
ऐसा करने से गनेश्ची की किरपा से उन्हें अवश्य ही संतान की प्राप्ती होगी।
तो महर्षी लोमेश की बात सुनकर सारे लोग बहुत ही खुश हुए और सारे के सारे करंबद होकर उठ खड़े हुए।
नमस्तक होकर दंडवत परणाम करके सभी लोग नगर में लोट आए।
अपने नगर पहुंच कर राजा के पास गए और वर्ण में जो भी गटना हुई उसके बारे में राजा को बताया।
तो राजा परजाजनों की बात सुनकर बहुत ही परशन हुए।
और उहोंने शर्दा पूर्वक विदिवर्थ गनेश चतूर्थी का वर्थ करके ब्रामनों को बोजन करवाया और वस्तर का दान किया।
तो इस वर्थ के भरभाव से उन पर गनेश ची की खिरपा हुई।
और राजा की राणी सुदक्षिना ने बहुत ही सुन्दर और सुलक्षन पूतर को जनम दिया।
तो राजा को संतान की प्राप्ती होते ही राजा और राणी बहुत खुश हुए और साथ ही सारे नगर वस्यों ने कूब उत्सव मनाया।
राजा ने अपने परजाजनों का धन्यवाद करते हुए उन सभी को सोने की मोहरें पहर सवरूप दी।
तो इस परकार संकट चोत का वर्थ करने से राजा को पूतर की प्राप्ती हुई।
इस वर्थ का ऐसा परबाव है कि वर्थ रखकर सर्दा पुर्वक जो भी इस कथा को सुने का वह है संसार के सारे सुखों का अधिकारी होगा।
बोलो गनेश भगवान की जेहो, बोलो चोत माता की जेहो।
आप अपने सुनेंगे लपसी और तपसी की कहानी।
इस कहानी को हर वर्थ कथा के बाद में जरूर सुनना चाहिए।
इस कथा को सुने विना हमें हमारे वर्थ और पुजा पाठ का पुन्य भल नहीं मिलता है।
एक लपसी था, एक तपसी था।
तपसी हमेशा भगवान की तपस्या में लेन रहता था।
लपसी रोजाना सवा सेर की लापसी बनाकर भगवान को भूग लगाकर पुजन कर लिया करता था।
एक दिन किसी बात को लेकर उन दोनों में कहा सुनी हो गई और दोनों जोर जोर से लड़ने लगे।
तप्शी कहनी लगा कि मैं तो रोजाना भगवान की तपश्या करता हूँ इसलिए मैं बड़ा हूँ तो लब्शी कहनी लगा कि मैं रोजाना भगवान को सवा सेर की लाप्शी का भूग लगाता हूँ इसलिए मैं बड़ा हूँ इस तरहें कहते हुए वो दोनों जोर जोर से
लड़ने लगे, तब ही वहां से नारजी गुजर रही थे, दोनों को लड़ता हुआ देखकर वहां आ गए और उनसे पूछने लगे, कि तुम दोनों लड़ क्यों रही हो, तो तपसी ने खुद को बड़ा होनी का कारण बताया, और लपसी ने अपनी बड़े होनी का कारण �
बताया, और कहने लगे, कि अब आप ही हमारा फैंसला कर दो, तो नारजी कहने लगे, कि मैं तुमारा फैंसला तो कर दूंगा, लेकिन कल आऊंगा, तुम दोनों तैयार रहना, दूसरे दिन लपसी और तपसी नहा दोकर अपनी रोजना की बगती करनी आई, तो नारजी व
पैर के नीचे दबा ली, लपसी की नजर उस अंगूठी पर पड़ी, लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया, उसने रोजाना की तरहें लापसी बनाई, और भगवान को भोग लगाया, फिर स्व्यम बोजन करनी लगा, तो नारत जी उन दोनों की सामने आ गई, तो देखते ही दो
कहे रहे हैं कि लपसी बड़ा है, तो नारत जी नी कहा कि तुम अपने स्थान से खड़े हो जाओ, तो वो खड़ा हुआ, तो उसकी पैर के नीचे अंगूठी दिखाई पड़ी, तो नारत जी तपसी से कहने लगा कि तपस्या करने के बाद भी तुम्हारी चोरी करने की आ
मूठी को देख कर भी अंदेखा कर दिया, इसका अपनी रोजाना की वक्ति में द्यान था, इसने लपसी बनाई और भगवान को भोग लगया, इसलिए लपसी ही बड़ा हुआ और तुम्हें तुम्हारी इतनी कठिन तपस्या का कोई फल नहीं मिलेगा, तो यहे सुनकर त
कि मुझे मेरी तपस्या का फल कैसे मिलेगा, मैंने तपस्या बड़ी ही सर्दा भाव से की हैं, तो तपसी की बात सुनकर नारजी कहने लगे, कि यदि घर पर सारी रोटी बनाकर गाई और कुटे की रोटी नहीं बनाएगा, तो वह फल तुझे ही मिलेगा, अगर कोई दिय
तीवल सूट हम भेंड सवरुप देते हैं, उसके साथ अगर उपय नहीं देंगे, तो उसका फल भी तुझे ही मिलेगा, और वर्थ कथा में अगर कोई सारी कहानी सुन ले, लेकिन तुम्हारी कहानी ना सुने, तो उस वर्थ का फल भी तुझे ही मिलेगा, तो यह सुनकर �
तफसी बहुत ही खुश हुआ
और उसके बाद कभी भी चोरी ना करने का परन लिया
कहा जाता है कि उसी दिन से
हर वर्थ कथा के बाद में
लपसी तफसी की कहानी कही और सुनी जाती है
कहानी समाप्त होते ही बोलना चाहिए
कि लपसी का फल लपसी को मिले
तपसी का फल तपसी को मिले
हमारी कहानी का, हमारी वर्त का और हमारे पूजा पाट का फल हमें मिले