आपको मृत्यो लोक में जाना है।
सुगधेव जीने का प्रभु जैसे आपकी आग्याद,
मुझे करना क्या है?
कि आपको
अपने आराज्धे की
नाम मेहमा का वर्णन करना है।
वो भाग्यवान होते हैं,
जो अपने जीवन में थाकुर जी की नाम मेहमा को बढ़ावा देते हैं।
घीता बाढते हैं,
ज्यान बाढते हैं,
उसका मूल हम चुका नहीं सकते हैं।
ज्यान की कोई कीमत देशकता हैं?
कभी नहीं।
जब देवता लोग अमरत के कलश से भागवज्जी का मूल नहीं चुका पाए,
तो प्यारे हम
इन कागच के टुकणों से क्या इस अमूल ज्ञान का मूल दे सकते हैं?
कदाप ही नहीं.
ये तो सिर्फ भावना है हमारी.
भगवान ने दिया है तो हमें करना चाहिए,
लेकिन सबसे पहले हमारी भाव सुद्ध होनी चाहिए.
मैं कहता हूँ,
जिनकी भाव सुद्ध हैं ना,
उनको भगवान हरिव्यापक सर्वत्रशमाना,
और प्रेम सो प्रगट्र होय में जाना.
हरिव्यापक है,
तो ही जल में,
तो ही थल में,
तो ही मन में,
तो ही बन में,
तो हर दिल में मूरत मान,
बनामन मंदिर आली शान.
भगवान कहा नहीं है,
हर जीव में,
उनकी सक्ती विराजमान है,
हर जीव में.
लख्षिम जी ने सुगदेव जी से कहा,
नारेण्य भगवान ने कहा,
तो सुगदेव जी तईयार हो गए,
प्रभु आपने मुझे सेवा दिये, तो मैं धन्य हूँ,
और मैं आपसे कहता हूँ भियारे,
अगर तुम्हें गुरु या गोविंद कोई सेवा दे रहे हों,
तो उसको इग्नोर मत कीजिए,
उसको सहस्तर स्वईकार कीजिए,
सहस्तर स्वईकार कीजिए,
और विचार कीजिए, मेरा अहो बाग्ये,
कि कम से कम गुरुदेव मेरु �
जिन को अपना कुछ मांध तें ,
अपनों परी ऐसा जमईयाद खों,
औरव्षेम कुछ नहीं कहता है प्यारे?
कापनोंस्य लगाव होता है समसा, बुख voir Muyo theo
जब अपनों के साथ कुछ बात होती है।
बाईकि दुरिया में कितने लोग आ रहे हैं,
जा रहे हैं,
कभी आपको उनका कश्ण होता है।
तो मैं फिर भी कह रहा हूँ प्यारे,
गुरुदेव चाहते हैं,
इससे मैं अपने जीवन में ऐसे अच्छे करम करा दूं,
जिससे आगे से फिर दुखों में ना गिरना पड़ा है।
इश्टिस्थेस्थर स्वईकार करो गुरुभाणी के लिए।
सुगदेव जी अथ्यन्त धर्शत हो गए।
प्रभु मुझे कहा जाना है,
पर तुमको केलास में जाना है।
वहाँ मेरे भोलेनाप,
माता पारवति को एक ऐसा घ्यान देने वाले हैं,
अमर कथागा,
जिस घ्यान को प्राणी अपने जीवन में सुविकार कर ले,
तो पुनीरपि जन्नम पुनीरपि मर्णंम पुणीरपि जन्नी जठरे सहनंम,
बार बार जनने िस जनं में खतम हो जाता है। और वह कौन सा घ्यान है,
भागवत का इजिन अंधा ब्यारे है।
भगवान संकर ने जो
पारवद्यू कता सुनाई थी न,
इसी भागवत को सुनाई था, अमर कता है ये।
अमर ग्रंथ है।
ये अमर ग्रंथ है ये मुक्ति पंथ,
ये पंचम बेद निरालाग।
पांचमा बेद है ये।
निगम् कल्पतरोरिगलितम् फलं सुक्वमुखाद अम्रत्ध्रवस्सयूतं
पिवत भागवत रसमालयं मूहु रहो रस्यका भुविभावुका।
इसको भाव से स्वईकार करो। और ये ऐसा फल है जिसमें ना गुटली है,
ना छिलका है,
ये रस से ओत प्रोत है। जितना प्यारे आप इसको पीगे उतने ही आपको
एक मन में अलग खुशी प्राप्त होगी।
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